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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    सूक्त - यमः देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुष्वप्नाशन सूक्त

    दौष्व॑प्न्यं॒ दौर्जी॑वित्यं॒ रक्षो॑ अ॒भ्व॑मरा॒य्यः॑। दु॒र्णाम्नीः॒ सर्वा॑ दु॒र्वाच॒स्ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दौ:ऽस्व॑प्न्यम् । दौ:ऽजी॑वित्यम् । रक्ष॑: । अ॒भ्व᳡म् । अ॒रा॒य्य᳡: । दु॒:ऽनाम्नी॑: । सर्वा॑: । दु॒:ऽवाच॑: । ता: । अ॒स्मत् । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥२४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दौष्वप्न्यं दौर्जीवित्यं रक्षो अभ्वमराय्यः। दुर्णाम्नीः सर्वा दुर्वाचस्ता अस्मन्नाशयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दौ:ऽस्वप्न्यम् । दौ:ऽजीवित्यम् । रक्ष: । अभ्वम् । अराय्य: । दु:ऽनाम्नी: । सर्वा: । दु:ऽवाच: । ता: । अस्मत् । नाशयामसि ॥२४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 23; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (दौः-स्वप्न्यम्) बुरे स्वप्नों (दौः-जीवित्यं) दुःख से जीवन के बीतने, जीवन में बुरे भाव, बुरे आचार और हीनता के होने और (रक्षः) धर्म कार्यों में विघ्नों के होने तथा (अभ्वम्) जीवन काल में सामर्थ्य के न रहने और (अराय्यः) समृद्धि, सम्पत्ति और उत्तम गुणों रहित दुष्टवृत्तियों, (दुः-नाम्नीः) बुरे व निन्दित नाम वाली और (दुः-वाचः) दुष्ट वाणी बोलने वाली, सब हीन मानस वृत्तियों को हम (अस्मत्) अपने से (नाशयामसि) दूर करें। इसकी व्याख्या (४/१७/५) में भी कर आये हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। अनुष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्।

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