Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
इडै॒वास्माँ अनु॑ वस्तां व्र॒तेन॒ यस्याः॑ प॒दे पु॒नते॑ देव॒यन्तः॑। घृ॒तप॑दी॒ शक्व॑री॒ सोम॑पृ॒ष्ठोप॑ य॒ज्ञम॑स्थित वैश्वदे॒वी ॥
स्वर सहित पद पाठइडा॑ । ए॒व । अ॒स्मान् । अनु॑ । व॒स्ता॒म् । व्र॒तेन॑ । यस्या॑: । प॒दे । पु॒नते॑ । दे॒व॒ऽयन्त॑: । घृ॒तऽप॑दी । शक्व॑री । सोम॑ऽपृष्ठा । उप॑ । य॒ज्ञम् । अ॒स्थि॒त॒ । वै॒श्व॒ऽदे॒वी ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इडैवास्माँ अनु वस्तां व्रतेन यस्याः पदे पुनते देवयन्तः। घृतपदी शक्वरी सोमपृष्ठोप यज्ञमस्थित वैश्वदेवी ॥
स्वर रहित पद पाठइडा । एव । अस्मान् । अनु । वस्ताम् । व्रतेन । यस्या: । पदे । पुनते । देवऽयन्त: । घृतऽपदी । शक्वरी । सोमऽपृष्ठा । उप । यज्ञम् । अस्थित । वैश्वऽदेवी ॥२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
विषय - बुद्धिरूप कामधेनु का वर्णन।
भावार्थ -
(इडा) श्रद्धा बुद्धि, सत्य धारण करने वाली बुद्धि रूप कामधेनु (एव) ही (अस्मान्) हमें (व्रतेन) ज्ञान और कर्म से (अनु वस्ताम्) आच्छादित करे, सुशोभित करे, (यस्याः) जिसके (पदे) पद अर्थात् प्राप्ति और ज्ञान में (देवयन्तः) अपने को देव, उत्तम गुण सम्पन्न बनाने की चेष्टा करने वाले, अथवा देव, ईश्वर और विद्वानों की उपासना करनेवाले लोग, अपने को (पुनते) पवित्र कर लेते हैं। वह (घृत-पदी) तेजोमय स्वरूप वाली, ज्ञानमयी, पद पद पर घृत के समान पुष्टिकारक, बुद्धिवर्धक पदार्थ को उत्पन्न करनेवाली कामधेनु के समान (शक्वरी) सब प्रकार से शक्तिमती, (सोम-पृष्ठा) सोम-आत्मा, और ब्रह्म को अपने पीठ पर धारण करनेवाली, आत्मा और ब्रह्मज्ञान की पोषक होकर (वैश्वदेवी) समस्त विद्वानों को हितकारक और आत्मा के सब इन्द्रियगण के लिये सुखकारी होकर (यज्ञम्) यज्ञ, शुभकर्म या परमात्मा में (अस्थित) स्थित है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिर्ऋषिः। इडा देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें