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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
उप॑ प्रि॒यं पनि॑प्नतं॒ युवा॑नमाहुती॒वृध॑म्। अग॑न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नमो॑ दी॒र्घमायुः॑ कृणोतु मे ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्रि॒यम् । पनि॑प्नतम् । युवा॑नम् । आ॒हु॒ति॒ऽवृध॑म् । अग॑न्म । बिभ्र॑त: । नम॑: । दी॒र्घम् । आयु॑: । कृ॒णो॒तु॒ । मे॒ ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम्। अगन्म बिभ्रतो नमो दीर्घमायुः कृणोतु मे ॥
स्वर रहित पद पाठउप । प्रियम् । पनिप्नतम् । युवानम् । आहुतिऽवृधम् । अगन्म । बिभ्रत: । नम: । दीर्घम् । आयु: । कृणोतु । मे ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
विषय - दीर्घ आयु की प्रार्थना।
भावार्थ -
(प्रियं) अपने को प्रिय लगने वाली (प निप्नतम्) सदा क्रियाशील, नित्य प्रयोग में आने वाली (युवानम्) सदा तरुण अर्थात् प्रबल (आहुती-वृधम्) आहुति पडने पर बढ़ने वाली अग्नि अर्थात् जाठराग्नि में हम लोग (नमः बिभ्रतः) अन्न को डाला करें, इस प्रकार सदा (उप अगन्म) इस अग्नि के समीप हम रहें अर्थात् इससे हमारा वियोग कभी न हो। इससे वह प्रबल जाठर अग्नि (मे) मेरी (दीर्घम् आयुः) दीर्घ आयु (कृणोतु) करे। मन्दाग्नि में अन्न का भोजन करना आयुनाशक है। प्रबल जाठर अग्नि के होते हुए भूख लगने पर अन्न खाने से आयुष्य बढ़ता है।
टिप्पणी -
‘दीर्धमायु कृणोतु मे’ इति चतुर्थः पादो ऋग्वेद नास्ति।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्।
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