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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 41

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - श्येनः छन्दः - जगती सूक्तम् - सुपर्ण सूक्त

    अति॒ धन्वा॒न्यत्य॒पस्त॑तर्द श्ये॒नो नृ॒चक्षा॑ अवसानद॒र्शः। तर॒न्विश्वा॒न्यव॑रा॒ रजां॒सीन्द्रे॑ण॒ सख्या॑ शि॒व आ ज॑गम्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ । धन्वा॑नि । अति॑ । अ॒प: । त॒त॒र्द॒ । श्ये॒न: । नृ॒ऽचक्षा॑: । अ॒व॒सा॒न॒ऽद॒र्श: । तर॑न् । विश्वा॑नि । अव॑रा । रजां॑सि । इन्द्रे॑ण । सख्या॑ । शि॒व: । आ । ज॒ग॒म्या॒त् ॥४२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति धन्वान्यत्यपस्ततर्द श्येनो नृचक्षा अवसानदर्शः। तरन्विश्वान्यवरा रजांसीन्द्रेण सख्या शिव आ जगम्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अति । धन्वानि । अति । अप: । ततर्द । श्येन: । नृऽचक्षा: । अवसानऽदर्श: । तरन् । विश्वानि । अवरा । रजांसि । इन्द्रेण । सख्या । शिव: । आ । जगम्यात् ॥४२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 41; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार सूर्य मरुस्थलों में भी जलों की वर्षा करता है और इन्द्र = मेघ के रूप में सर्वत्र कल्याणस्वरूप होकर प्राप्त होता है उसी प्रकार (श्येनः) ज्ञानवान् या सर्व व्यापक प्रभु (नृचक्षाः) सब मनुष्यों का द्रष्टा (अवसान-दर्शः) अवसान अर्थात् प्रलयकाल में भी सब पदार्थों और कर्म, कर्मफलों का द्रष्टा, (धन्वानि) भोगभूमियों को (अति) अतिक्रमण करके (अपः) ज्ञान जलों को (ततर्द) वर्षाता है। और (विश्वानि) समस्त (अवरा) नीचे के (रजांसि) लोकों को (तरन्) पार करता हुआ अर्थात् इन तीनों लोकों की जहां स्थिति नहीं वहां पर रहता हुआ (इन्द्रेण सख्या) अपने मित्र जीव के द्वारा (शिवः) यह कल्याण और सुखमय, आनन्दमय, तुरीयपद, मोक्षरूप परमात्मा (आ जगम्यात्) प्राप्त होता है, साक्षात् होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रस्कण्व ऋषिः। श्येनो देवता। जगती। त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥

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