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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
सिनी॑वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा॑। जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः ॥
स्वर सहित पद पाठसिनी॑वालि । पृथु॑ऽस्तुके । या । दे॒वाना॑म् । असि॑ । स्वसा॑ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । दि॒दि॒ड्ढि॒ । न॒: ॥४८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥
स्वर रहित पद पाठसिनीवालि । पृथुऽस्तुके । या । देवानाम् । असि । स्वसा । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । दिदिड्ढि । न: ॥४८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
विषय - सभा पृथिवी और स्त्री का वर्णन।
भावार्थ -
हे देवि ! विश्पत्नि ! दिव्य गुणों वाली प्रजाओं का पालन करने वाली ! हे (सिनीवालि) अन्न का प्रदान करने वाली ! अथवा प्रेमबद्धे ! हे स्त्रि ! हे (पृथुस्तुके) बहुत से पुत्रों वाली या बहुतों से प्रशंसित ! या विशाल मध्यभाग वाली ! या उत्तम कामनावति ! या पृथु = द्युलोक के प्रति सदा खुली रहने वाली ! तू (देवानाम्) देव = वायु, सूर्य, जल, मेघ आदि दिव्य पदार्थों के साथ (स्वसा) स्वयं स्वभावतः नैसर्गिक रूप में संगत है। तू (आ-हुतम्) आहुति किये हुए (हव्यम्) अन्न को, या वीर्य को जो बीज रूप से तेरे में बोते हैं उसे (जुषस्व) प्रेम से स्वीकार कर और (नः) हमें (प्रजां) प्रजा को उत्कृष्ट रूप से उत्पन्न हो जाने पर (दिदिड्ढि) प्रदान कर। महर्षि दयानन्द ने मन्त्र को स्त्री के वर्णन में लगाया है।
टिप्पणी -
ऋग्वेदे गृत्समद ऋषिः स्तुकः केशभारः, स्तुतिः, कामो वा इति महीधरः पृथुसंयमितकेशभारा इति उव्वटः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। विश्पत्नी देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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