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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 58

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    सूक्त - कौरूपथिः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - जगती सूक्तम् - अन्न सूक्त

    इन्द्रा॑वरुणा सुतपावि॒मं सु॒तं सोमं॑ पिबतं॒ मद्यं॑ धृतव्रतौ। यु॒वो रथो॑ अध्व॒रो दे॒ववी॑तये॒ प्रति॒ स्वस॑र॒मुप॑ यातु पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑वरुणा । सु॒त॒ऽपौ । इ॒मम् । सु॒तम् । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । मद्य॑म् । धृ॒त॒ऽव्र॒तौ॒ । यु॒वो: । रथ॑: । अ॒ध्व॒र: । दे॒वऽवी॑तये। प्रति॑ । स्वस॑रम् । उप॑ । या॒तु॒ । पी॒तये॑ ॥६०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रावरुणा सुतपाविमं सुतं सोमं पिबतं मद्यं धृतव्रतौ। युवो रथो अध्वरो देववीतये प्रति स्वसरमुप यातु पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रावरुणा । सुतऽपौ । इमम् । सुतम् । सोमम् । पिबतम् । मद्यम् । धृतऽव्रतौ । युवो: । रथ: । अध्वर: । देवऽवीतये। प्रति । स्वसरम् । उप । यातु । पीतये ॥६०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 58; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुण आप दोनों (सुत-पौ) सोम अर्थात् ज्ञान का और आभ्यन्तर आनन्द का पान करने हारे हो। अतः (मद्यं) हर्ष और तृप्ति जनक (सुतं) इस उत्पादित (सोमम्) ज्ञान और आनन्द-रस को (धृत-व्रतौ) स्थिर, नियत, कर्मनिष्ठ और समस्त कर्मों को धारण करने में समर्थ होकर (पिबतं) पान करो, (युवोः) तुम दोनों के भीतर (रथः) रमण करने वाला (अध्वरः) कमी न हिंसित, सदा जीवित, अमर, यज्ञमय आत्मा (देव-वीतये) देव = इन्द्रियगणों से प्राप्त ज्ञान का भोग करने के लिये और (पीतये) विचार धारण में प्रतिदिन आनन्द-रस पान करने के लिये (प्रति स्वसरम्) प्रति देहरूप घट में (उप यातु) प्राप्त हो अथवा (प्रति स्वसरम् उप यातु) देह के प्रत्येक स्वयं सरण करने योग्य इन्द्रियों में व्याप्त हो अथवा प्रतिदिन प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कौरुपथिर्ऋषिः। मन्त्रोक्ताविन्द्र वरुणौ देवते। १ जगती। २ त्रिष्टुप्॥ द्व्यृचं सूक्तम्॥

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