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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 65

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गवीरुत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुरितनाशन सूक्त

    प्र॑ती॒चीन॑फलो॒ हि त्वमपा॑मार्ग रु॒रोहि॑थ। सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॒ वरी॑यो यावया इ॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ती॒चीन॑ऽफल: । हि । त्वम् । अपा॑मार्ग । रु॒रोहि॑थ । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ । वरी॑य: । य॒व॒या॒: । इ॒त: ॥६७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीचीनफलो हि त्वमपामार्ग रुरोहिथ। सर्वान्मच्छपथाँ अधि वरीयो यावया इतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीचीनऽफल: । हि । त्वम् । अपामार्ग । रुरोहिथ । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि । वरीय: । यवया: । इत: ॥६७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 1

    भावार्थ -

    हे (अपामार्ग) अपामार्ग लते ! (स्वम्) तू जिस प्रकार (प्रतीचीनफलः) अपने फलों को अपने से छूने वाले के प्रति कष्टदायी होकर अपने फलों को उसको वस्त्रों से चिपटा देती है इसलिये ‘प्रतीचीनफल’ वाली होकर (रुरोहिथ) उगा करती है। इसलिये तेरे पास कोई नहीं जाता। इसी प्रकार हे (अपामार्ग) पाप लेशों को दूर से परे रखने वाले पुरुष ! तू भी (प्रतीचीनफलः) अपने शत्रुओं के लिये विपरीत फल उत्पन्न करने वाले कामों को करता हुआ (रुरोहिथ) वृद्धि को प्राप्त हो। और (मत्) मुझ से (सर्वान्) समस्त (शपथान्) आक्रोश या निन्दाजनक भावों को (इतः) अभी इसी काल से (वरीयः) सर्वथा (अधि यवय) परे कर। अथवा अपामार्ग शब्द से आत्मा का ही सम्बोधन किया गया है। है (अपामार्ग) कर्मपरिशोधक आत्मन् ! तू (प्रतीचीन-फलः) प्रत्यक्, साक्षात् होकर ही फलने हारा या स्वतः फलरूप होकर (रुरोहिथ) अधिक बलवान् पुष्ट होता है। मुझसे (शपथान्) सब पाप भावों को (इतः) यहां इस देह से (अधि यवय) दूर कर। देखो अथर्व ० ४। १९। ७॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    दुरितापमृष्टिप्रार्थी शुक्र ऋषिः। अपामार्गवीरुद् देवता। अनुष्टुप छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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