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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
उत्ति॑ष्ठ॒ताव॑ पश्य॒तेन्द्र॑स्य भा॒गमृ॒त्विय॑म्। यदि॑ श्रा॒तं जु॒होत॑न॒ यद्यश्रा॑तं म॒मत्त॑न ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । अव॑ । प॒श्य॒त॒ । इन्द्र॑स्य । भा॒गम् । ऋ॒त्विय॑म् । यदि॑ । श्रा॒तम् । जु॒होत॑न । यदि॑ । अश्रा॑तम् । म॒मत्त॑न ॥७५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठताव पश्यतेन्द्रस्य भागमृत्वियम्। यदि श्रातं जुहोतन यद्यश्रातं ममत्तन ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठत । अव । पश्यत । इन्द्रस्य । भागम् । ऋत्वियम् । यदि । श्रातम् । जुहोतन । यदि । अश्रातम् । ममत्तन ॥७५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
विषय - योग द्वारा प्रतिमा का तप।
भावार्थ -
हे लोगो ! (उत् तिष्ठत) उठो, (अव पश्यत) देखो (इन्द्रस्य) इन्द्र, राजा का (ऋत्वियम्) ऋतु अनुकूल (भागम्) भाग (यदि श्रातं) यदि परिक्व होगया है तो (जुहोतन) दे दो (यदि अश्रातं) यदि नहीं पका है तो (ममत्तन) पकाओ।
अध्यात्म में—हे साधक नेता, उठो इन्द्र आत्मा के (भागं) सेवन करने योग्य (ऋत्वियं) सत्य ज्ञान, ब्रह्ममय, प्राप्तम मोक्ष पद को देखो (यदि श्रातं) उसका परिपाक होगया है तो उसको आत्मा के निमित्त अर्पण करो। यदि नहीं पक्व हुआ हो तो उसको तपस्या से परिपक्व कर लो। अथवा (ऋत्वियं, भाग) ऋतु=प्राण सम्बन्धि भाग, अंश इन्द्रिय गण का निरीक्षण करो, यदि वह ज्ञान और तप द्वारा पक्व हैं तो उनको आत्मा में लीन करलो यदि नहीं तो उनको तप से पक्व् करलो।
टिप्पणी -
ऋग्वेदे प्रथमस्य शिविरौशीनर ऋषिः। द्वितीयस्य प्रतर्दनः काशिराजः, तृतीयस्य वसुमना रोहिदश्व ऋषिः।
(तृ०) ‘यदिश्रातो’, (च०) ‘यद्यश्रातो’, इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ अनुष्टुप्, २, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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