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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
यो अ॒ग्नौ रु॒द्रो यो अ॒प्स्वन्तर्य ओष॑धीर्वी॒रुध॑ आवि॒वेश॑। य इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि चा॒क्लृ॒पे तस्मै॑ रु॒द्राय॒ नमो॑ अस्त्व॒ग्नये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒ग्नौ । रु॒द्र: । य: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य: । ओष॑धी: । वी॒रुध॑: । आ॒ऽवि॒वेश॑ । य: । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑नानि । च॒क्लृ॒पे । तस्मै॑ । रु॒द्राय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒ग्नये॑ ॥९२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अग्नौ रुद्रो यो अप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश। य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे तस्मै रुद्राय नमो अस्त्वग्नये ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अग्नौ । रुद्र: । य: । अप्ऽसु । अन्त: । य: । ओषधी: । वीरुध: । आऽविवेश । य: । इमा । विश्वा । भुवनानि । चक्लृपे । तस्मै । रुद्राय । नम: । अस्तु । अग्नये ॥९२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
विषय - रुद्र, ईश्वर का स्मरण।
भावार्थ -
(यः) जो (रुद्रः) रोदनकारी, तीक्ष्ण शक्ति (अग्नौ) अग्नि में प्रविष्ट है, और (यः) जो (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर है, और (यः) जो (ओषधीः) ओषधियों और (वीरुधः) लताओं में (आ-विवेश) प्रविष्ट है, और (यः) जो (इमाः) इन (विश्वा) समस्त (भुवनानि) भुवनों को (चाक्लृपे) बनाती है, उस (अग्नये) अग्निस्वरूप (रुद्राय) रुद्र के लिये (नमः) हमारा नमस्कार और आदरभाव है। अर्थात् जिस प्रभु की शक्तियां अग्नि में तेजोरूप से, जल में स्नेहरूपसे, ओषधियों में रस और पुष्टिरूप से, और लता वनस्पतियों में रोग दूर करने की शक्तिरूप से विद्यमान है, और जो समस्त भुवनों को नाना रूप और सामर्थ्यों से युक्त बनाता है, हम उस प्रभु का सदा स्मरण करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। जगती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
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