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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त
अ॒पो दि॒व्या अ॑चायिषं॒ रसे॑न॒ सम॑पृक्ष्महि। पय॑स्वानग्न॒ आग॑मं॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प:। दि॒व्या: । अ॒चा॒यि॒ष॒म् । रसे॑न । सम् । अ॒पृ॒क्ष्म॒हि॒ । पय॑स्वान् । अ॒ग्ने॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । तम् । मा॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वर्च॑सा ॥९४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो दिव्या अचायिषं रसेन समपृक्ष्महि। पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठअप:। दिव्या: । अचायिषम् । रसेन । सम् । अपृक्ष्महि । पयस्वान् । अग्ने । आ । अगमम् । तम् । मा । सम् । सृज । वर्चसा ॥९४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्मचर्य पालन।
भावार्थ -
मैं (दिव्याः) दिव्य प्रकाशमय, ज्ञानमय, ईश्वरीय (अपः) कर्म और ज्ञान-कणों का (सम् अचायिषम्) संग्रह करूं और उनके (रसेन) सारभूत बल से अपने को (सम् अपृक्ष्महि) संयुक्त करूं। हे (अग्ने) ज्ञानवान् प्रभो ! इस प्रकार ईश्वरीय ज्ञानक्रम से मैं (पयस्वान्) ‘पयस्वान्’, ज्ञानवान् और कर्मवान् होकर (आगमम्) प्राप्त हुआ हूं (तम् मा) उस मुझको (वर्चसा) ब्रह्मतेज से (संसृज) युक्त कर। जिस प्रकार मेघ (दिव्यः) दिव्य जलों का संग्रह करके विद्युत् अग्नि से मिल कर प्रकाशमान् हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान और कर्म में निष्ठ होकर शरीर में हृष्ट पुष्ट होकर आचार्य और ईश्वर की साक्षिता में ब्रह्मचर्य का पालन करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सिन्धुद्वीप ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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