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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 96

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
    सूक्त - कपिञ्जलः देवता - वयः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अस॑द॒न्गावः॒ सद॒नेऽप॑प्तद्वस॒तिं वयः॑। आ॒स्थाने॒ पर्व॑ता अस्थुः॒ स्थाम्नि॑ वृ॒क्काव॑तिष्ठिपम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑दन् । गाव॑: । सद॑ने । अप॑प्तत् । व॒स॒तिम् । वय॑: । आ॒ऽस्थाने॑ । पर्व॑ता: । अ॒स्थु॒: । स्थाम्नि॑ । वृ॒क्कौ । अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म् ॥१०१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असदन्गावः सदनेऽपप्तद्वसतिं वयः। आस्थाने पर्वता अस्थुः स्थाम्नि वृक्कावतिष्ठिपम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असदन् । गाव: । सदने । अपप्तत् । वसतिम् । वय: । आऽस्थाने । पर्वता: । अस्थु: । स्थाम्नि । वृक्कौ । अतिष्ठिपम् ॥१०१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 96; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (गावः) जिस प्रकार गौवें अपने (सदने) घर में (असदन्) आकर बैठती हैं उसी प्रकार (गावः) इन्द्रिय गण (सदने) अपने आयतन, भोगाश्रय शरीर में (असदन्) आकर बैठ जाती हैं। और जिस प्रकार (वयः) पक्षी (वसतिम्) अपने घोंसले में आकर बैठता है उसी प्रकार यह जीवात्मा अपने (वसतिम्) वासस्थान देह को (उपपप्तत्) प्राप्त कर लेता है। और उस देह में (पर्वताः) पोरु वाले अंगों में स्थित हड्डियां भी (आ-स्थाने) ठीक ठीक स्थान पर (तस्थुः) स्थिर हो जाती हैं और (स्थाम्नि) ठीक ठीक स्थान पर मैं परमेश्वर जीव के शरीर में (वृक्कौ) गुर्दे आदि अंगों को (अतिष्ठिपम्) स्थापित करता हूं। गर्भाशय में प्रथम इन्द्रियें, फिर जीव आता है, और फिर हड्डियां, और उसके पश्चात् गुर्दे और फेफड़े आदि बनते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कपिंजल ऋषिः। वयो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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