यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - ब्रह्म देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
2
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्।तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
स्वर सहित पद पाठअने॑जत्। एक॑म्। मन॑सः। जवी॑यः। न। ए॒न॒त्। दे॒वाः। आ॒प्नु॒व॒न्। पूर्व॑म्। अर्ष॑त् ॥ तत्। धाव॑तः। अ॒न्यान्। अति॑। ए॒ति॒। तिष्ठ॑त्। तस्मि॑न्। अ॒पः। मा॒त॒रिश्वा॑। द॒धा॒ति॒ ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनेजदेकम्मनसो जवीयो नैनद्देवाऽआप्नुवन्पूर्वमर्शत् । तद्धावतोन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥
स्वर रहित पद पाठ
अनेजत्। एकम्। मनसः। जवीयः। न। एनत्। देवाः। आप्नुवन्। पूर्वम्। अर्षत्॥ तत्। धावतः। अन्यान्। अति। एति। तिष्ठत्। तस्मिन्। अपः। मातरिश्वा। दधाति॥४॥
विषय - वेदविषयविचार:
व्याख्यान -
( नैनद्देवा॰ ) इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है। जो कि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जीभ, नाक और मन, ये छः देव कहाते हैं। क्योंकि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सत्य और असत्य इत्यादि अर्थों का इनसे प्रकाश होता है। और देव शब्द से स्वार्थ में ‘तल्’ प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है। जो-जो गुण जिस-जिस पदार्थ में ईश्वर ने रचे हैं, उन-उन गुणों का लेख, उपदेश, श्रवण और विज्ञान करना तथा मनुष्य सृष्टि के गुण-दोषों का भी लेख आदि करना इसको ‘स्तुति’ कहते हैं। क्योंकि जितना-जितना जिस-जिस में गुण है, उतना-उतना उसमें देवपन है। इससे वे किसी के इष्टदेव नहीं हो सकते। जैसे किसी ने किसी से कहा कि तलवार काट करने में बहुत अच्छी और निर्मल है, इसकी धार बहुत तेज है, और यह धनुष् के समान नमाने से भी नहीं टूटती, इत्यादि तलवार के गुणकथन को स्तुति कहते हैं।
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