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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - ब्रह्म देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    5

    अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्।तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अने॑जत्। एक॑म्। मन॑सः। जवी॑यः। न। ए॒न॒त्। दे॒वाः। आ॒प्नु॒व॒न्। पूर्व॑म्। अर्ष॑त् ॥ तत्। धाव॑तः। अ॒न्यान्। अति॑। ए॒ति॒। तिष्ठ॑त्। तस्मि॑न्। अ॒पः। मा॒त॒रिश्वा॑। द॒धा॒ति॒ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनेजदेकम्मनसो जवीयो नैनद्देवाऽआप्नुवन्पूर्वमर्शत् । तद्धावतोन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनेजत्। एकम्। मनसः। जवीयः। न। एनत्। देवाः। आप्नुवन्। पूर्वम्। अर्षत्॥ तत्। धावतः। अन्यान्। अति। एति। तिष्ठत्। तस्मिन्। अपः। मातरिश्वा। दधाति॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    कीदृशो जन ईश्वरं साक्षात्करोतीत्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो मनुष्याः! यदेकमनेजन्मनसो जवीयः पूर्वमर्षद्ब्रह्माऽस्त्येनद्देवा नाप्नुवँस्तत्स्वयं तिष्ठत् सत्स स्वानन्तव्याप्त्या धावतोऽन्यानत्येति, तस्मिन् स्थिरे सर्वत्राभिव्याप्ते मातरिश्वा वायुरिव जीवोऽपो दधातीति विजानीत॥४॥

    पदार्थः

    (अनेजत्) न एजते कम्पते तदचलत् स्वावस्थायाश्च्युतिः कम्पनं तद्रहितम् (एकम्) अद्वितीयं ब्रह्म (मनसः) मनोवेगात् (जवीयः) अतिशयेन वेगवत् (न) (एनत्) (देवाः) चक्षुरादीनीन्द्रियाणि वा (आप्नुवन्) प्राप्नुवन्ति (पूर्वम्) पुरःसरं पूर्णं (अर्षत्) गच्छत् (तत्) (धावतः) विषयान् प्रति पततः (अन्यान्) स्वस्वरूपाद् विलक्षणान्मनोवागिन्द्रियादीन् (अति) उल्लङ्घने (एति) प्राप्नोति (तिष्ठत्) स्वस्वरूपेण स्थिरं सत् (तस्मिन्) सर्वत्राऽभिव्याप्ते (अपः) कर्म क्रियां वा (मातरिश्वा) मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति प्राणान् धरति वायुस्तद्वद्वर्त्तमानो जीवः (दधाति)॥४॥

    भावार्थः

    ब्रह्मणोऽनन्तत्वाद्यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र पुरस्तादेवाऽभिव्याप्तमग्रस्थं ब्रह्म वर्त्तते, तद्विज्ञानं शुद्धेन मनसैव जायते, चक्षुरादिभिरविद्वद्भिश्च द्रष्टुमशक्यमस्ति, स्वयं निश्चलं सत्सर्वान् जीवान् नियमेन चालयति धरति च। तस्यातिसूक्ष्मत्वादतीन्द्रियत्वाद् धार्मिकस्य विदुषो योगिन एव साक्षात्कारो भवति नेतरस्य॥४॥

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    विषयः

    वेदविषयविचार:

    व्याख्यानम्

    अत्र देवशब्देन मनःषष्ठानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि गृह्यन्ते। तेषां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानां सत्यासत्ययोश्चार्थानां द्योतकत्वात्तान्यपि देवाः। यो देवः सा देवता, ‘देवात्तल्’ [अष्टा॰५.४.२७] इत्यनेन सूत्रेण स्वार्थे ‘तल्’ विधानात्। स्तुतिर्हि गुणदोषकीर्तनं भवति। यस्य पदार्थस्य मध्ये यादृशा गुणा वा दोषाः सन्ति तादृशानामेवोपदेशः स्तुतिर्विज्ञायते। तद्यथा, अयमसिः प्रहृतः सन्नतीवच्छेदनं करोति, तीक्ष्णधारः स्वच्छो धनुर्वन्नाम्यमानोऽपि न त्रुट्यतीत्यादि गुणकथनमतो विपरीतोऽसिर्नैव तत् कर्त्तुं समर्थो भवतीत्यसेः स्तुतिर्विज्ञेया।

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    हिन्दी (6)

    विषय

    कैसा जन ईश्वर को साक्षात् करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो! जो (एकम्) अद्वितीय (अनेजत्) नहीं कंपनेवाला अर्थात् अचल अपनी अवस्था से हटना कंपन कहाता है, उससे रहित (मनसः) मन के वेग से भी (जवीयः) अति वेगवान् (पूर्वम्) सबसे आगे (अर्षत्) चलता हुआ अर्थात् जहां कोई चलकर जावे, वहां प्रथम ही सर्वत्र व्याप्ति से पहुंचता हुआ ब्रह्म है (एनत्) इस पूर्वोक्त ईश्वर को (देवाः) चक्षु आदि इन्द्रिय (न) नहीं (आप्नुवन्) प्राप्त होते (तत्) वह परब्रह्म अपने-आप (तिष्ठत्) स्थिर हुआ अपनी अनन्त व्याप्ति से (धावतः) विषयों की ओर गिरते हुए (अन्यान्) आत्मा के स्वरूप से विलक्षण मन, वाणी आदि इन्द्रियों का (अति, एति) उल्लङ्घन कर जाता है, (तस्मिन्) उस सर्वत्र अभिव्याप्त ईश्वर की स्थिरता में (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में प्राणों को धारण करनेहारे वायु के तुल्य जीव (अपः) कर्म वा क्रिया को (दधाति) धारण करता है, यह जानो॥४॥

    भावार्थ

    ब्रह्म के अनन्त होने से जहां-जहां मन जाता है, वहां-वहां प्रथम से ही अभिव्याप्त पहिले से ही स्थिर ब्रह्म वर्त्तमान है, उसका विज्ञान शुद्ध मन से होता है, चक्षु आदि इन्द्रियों और अविद्वानों से देखने योग्य नहीं है। वह आप निश्चल हुआ सब जीवों को नियम से चलाता और धारण करता है। उसके अतिसूक्ष्म इन्द्रियगम्य न होने के कारण धर्मात्मा, विद्वान्, योगी को ही उसका साक्षात् ज्ञान होता है, अन्य को नहीं॥४॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( अनेजत् ) = काँपनेवाला नहीं अचल, अपनी अवस्था से कभी चलायमान नहीं होता।  ( एकम् ) = अद्वितीय  ( मनसःजवीयः ) = मन से भी अधिक वेगवाला ब्रह्म है ।  ( पूर्वम् ) = सबसे प्रथम, सबसे आगे  ( अर्षत् ) = गति करते हुए अर्थात्  जहाँ कोई चलकर जावे वहाँ व्यापक होने से पूर्व ही विद्यमान है, ( एनम् ) = इस ब्रह्म को ( देवा: ) = बाह्य नेत्र आदि इन्द्रिय  ( न आप्नुवन् ) = नहीं प्राप्त होते ।  ( तद् ) = वह ब्रह्म ( तिष्ठत् ) = अपने स्वरूप में स्थित  ( धावतः ) = विषयों की ओर गिरते हुए  ( अन्यान् ) = आत्मा से भिन्न मन वाणी आदि इन्द्रियों को   ( अति एति ) = लांघ जाता है। अर्थात् उनकी पहुँच से परे रहता है ।  ( तस्मिन् ) = उस व्यापक ईश्वर में  ( मातरिश्वा ) = अन्तरिक्ष में गतिशील वायु और जीव भी ( अप: ) = कर्म वा क्रिया को  ( दधाति ) = धारण करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमात्मा व्यापक है, मन जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ प्रथम  से ही परमात्म देव स्थिर वर्त्तमान हैं। प्रभु का ज्ञान शुद्ध एकाग्र मन से होता है, नेत्र आदि इन्द्रियों और अज्ञानी विषयी लोगों से वह देखने योग्य नहीं वह जगत्पिता आप निश्चल हुआ, सब जीवों को और वायु, सूर्य, चन्द्र आदिकों को नियम से चलाता और धारण करता है। ऐसे मन नेत्रादिकों के अविषय ब्रह्म को कोई महानुभाव महात्मा बाह्य भोगों से उपराम ही जान सकता है। विषयों में लम्पट दुराचारी शराबी कबाबी कभी नहीं जान सकता।

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    विषय

    वेदविषयविचार:

    व्याख्यान

    ( नैनद्देवा॰ ) इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है। जो कि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जीभ, नाक और मन, ये छः देव कहाते हैं। क्योंकि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सत्य और असत्य इत्यादि अर्थों का इनसे प्रकाश होता है। और देव शब्द से स्वार्थ में ‘तल्’ प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है। जो-जो गुण जिस-जिस पदार्थ में ईश्वर ने रचे हैं, उन-उन गुणों का लेख, उपदेश, श्रवण और विज्ञान करना तथा मनुष्य सृष्टि के गुण-दोषों का भी लेख आदि करना इसको ‘स्तुति’ कहते हैं। क्योंकि जितना-जितना जिस-जिस में गुण है, उतना-उतना उसमें देवपन है। इससे वे किसी के इष्टदेव नहीं हो सकते। जैसे किसी ने किसी से कहा कि तलवार काट करने में बहुत अच्छी और निर्मल है, इसकी धार बहुत तेज है, और यह धनुष् के समान नमाने से भी नहीं टूटती, इत्यादि तलवार के गुणकथन को स्तुति कहते हैं।

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    विषय

    आत्मा का स्वरूप ।

    भावार्थ

    ( अनेजत्) अपनी अवस्था से कभी च्युत न होने वाला, परिणामरहित, ( एकम् ) अद्वितीय, (मनसः जवीयः) मन से भी अधिक वेगवान् ब्रह्म है । (पूर्वम् ) सबके पूर्व सबसे आगे, (अर्पत्) गति करते हुए (एनत् ) उसको (देवा:) पृथिवी आदि तत्व और चक्षु आदि इन्द्रियगण ( न आप्नुवन् ) नहीं प्राप्त होते । ( तत् ) वह पर-ब्रह्म ( तिष्ठत् ) अपने स्वरूप में स्थित, कूटस्थ स्थिर होकर भी (धावतः) विषयों के प्रति जाते हुए ( अन्यान् ) अपने से भिन्न अन्य मन आदि इन्द्रियों को (अतिएति ) लांघ जाता है उनकी पहुँच से परे रहता है | ( तस्मिन् ) उस सर्वव्यापक में ही (मातरिश्वा ) अन्तरिक्ष में गति करने वाला वायु और उसके समान जीव भी (अप) कर्म (दधाति) करता है । (२) राष्ट्रपक्ष मैं — उस आत्मा के आश्रय पर ( मातरिश्वा ) प्राण गति करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बह्म । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    निरभिमानता

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की फलश्रुति के बाद प्रस्तुत मन्त्र में 'सर्वव्यापकता' की भावना का ही प्रकारान्तरेण वर्णन प्रारम्भ होता है - [क] वे प्रभु (अनेजत्) = [न एजत्] बिलकुल हिल परन्तु नहीं रहे। खाली स्थान हो तो हिला जाए! जब वे सर्वव्यापक हैं, हिलें ही कैसे, सर्वव्यापक न होते हुए भी तो किसी और से स्थान भरा होने के कारण 'न हिलना' हो सकता है, अतः कहते हैं कि ('एकम्') = वे हैं तो एक। 'एक होते हुए न हिलना' तभी होता है जब वह सर्वव्यापक हो। [ख] (मनसो जवीय:) = वे प्रभु मन से भी अधिक वेगवान् हैं। मन सर्वाधिक वेगवाला है। प्रभु मनसे भी अधिक वेगवान् हैं। वास्तविकता तो यह है कि (एनत्) = इस प्रभु को (देवाः) = देव (न आप्नुवन्) = नहीं पकड़ पाते। देवों की दौड़ के साम्मुख्य में सब देव इससे पीछे रह जाते हैं। प्रभु जीत जाते हैं। जीत का अभिप्राय यही है कि 'विजयस्तम्भ' पर पहले पहुँच जाना। प्रभु तो (पूर्वम्) = पहले ही (अर्शत्) = वहाँ पहुँचे हुए हैं। सर्वव्यापक होने के कारण वे कहाँ नहीं हैं। [ग] (तत्) = वे प्रभु (धावतः अन्यान्) = दौड़ते हुए दूसरों को अत्येति लाँघ जाते हैं, उनसे आगे निकल जाते हैं और खूबी यह कि तिष्ठत्-ठहरे-ठहरे ही। बिना गति किये लाँघ जाना इसीलिए तो है कि जहाँ भी पहुँचना प्रभु वहाँ पहले से ही हैं। २. एवं, वे प्रभु सर्वव्यापक तो हैं ही, परन्तु साथ ही सौन्दर्य की बात यह है कि गतिशून्य होते हुए भी सर्वाधिक गतिमान् हैं। ठहरे भी दौड़ते हुओं से आगे निकल जानेवाले हैं। ठीक-ठीक बात यह है कि गतिशून्य होते हुए सबको गति दे रहे हैं। वे गति के स्रोत हैं। ३. (मातरिश्वा) = मातृगर्भ में बढ़नेवाला यह जीव भी (तस्मिन्) = उस प्रभु में ही (अपः) = कर्मों को (दधाति) = धारण करता है। इसकी भी सारी गति उस प्रभु की शक्ति से ही हो रही है। जीव को यह भ्रम हो जाता है कि उसकी अपनी शक्ति है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की सर्वव्यापकता को अनुभव करें। कण-कण में उसकी शक्ति को काम करता हुआ देखें और अपनी सफलताओं को प्रभुशक्ति से होता हुआ समझें तथा सदा प्रभु का स्मरण करें।

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    मन्त्रार्थ

    (अनेजत्) ब्रह्म अचलायमान एकरस-निर्विकार है (एकम्) संख्या में एक तथा केवल है और नवयव है (मनसः-जवीयः) मन से वेगवान् है (देवा:-एनत्-न-आप्नुवन्) इन्द्रियां इसे प्राप्त नहीं कर सकतीं । क्योंकि (पूर्वम् अर्षत्) वह ब्रह्म पूर्व से ही प्राप्त है-प्रथम से ही विद्यमान है (तत् तिष्ठत्) वह सर्वत्र स्थित हुआ स्थूल एवं एकदेशी गति से रहित हुआ भी (अन्यान् धावतः) अन्य दौडते हुए पदार्थों को (अत्येति) अतिक्रमण कर जाता है-पीछे डाल देता है (तस्मिन्) उसके आधार पर (मातरिश्वा) माता के गर्भ में जाने वाला जीवात्मा (अपः) कर्म को (दधाति) धारण करता है ॥४॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    ब्रह्म अनंत असल्यामुळे जेथे जेथे मनाची गती असते तेथे तेथे ते पूर्वीपासूनच व्याप्त असते. त्याचे ज्ञान शुद्ध मनानेच होते. ब्रह्म हे चक्षू इत्यादी इंद्रियांनी व विद्वान नसलेल्या लोकांना दिसू शकत नाही. ब्रह्म हे निश्चल असून सर्व जीवांना धारण करते व नियमाने सर्वांवर नियंत्रण ठेवते. ते इंदियगम्य नसून अतिसूक्ष्म असते म्हणून धर्मात्मा, विद्वान योग्यालाच त्याचे साक्षात ज्ञान होते इतरांना नाही.

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    विषय

    कोण ईश्‍वराचा साक्षात्कार करू शकतो, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान मनुष्यहो (हे जाणून घ्या की) तो परब्रह्म (एकम्) अद्वितीय व एकच आहे. तो (अनेजत्) कंप पावणारा वा कंपित होणारा नाही म्हणजे अचल असून आपल्या नित्यदशेपासून यत्किंचितही कंपित वेगवान असून (पूर्वम्) तोच सर्वाच्या पुढे (अर्षत्) चालणारा आहे म्हणजे कोणीही मनुष्य चालत कुठे जातो, तर ब्रह्म त्याच्या आधी (नित्य व व्यापक असल्यामुळे) तिथे विद्यमान असतो. (एनत्) या पूर्ववर्णित ईश्‍वराला (देवाः) नेत्र आदी इंद्रियें (न) (आन्पवन्) प्राप्त करू शकत नाही (तो अति सूक्ष्म असून इंद्रियांचा विषय नाही) (तत्) तो परब्रह्म स्वतःच्या सामर्थ्याने (तिष्ठत्) स्थिर असून अनंत व सर्वव्यापक असल्यामुळे (धावतः) विषयांकडे धावणार्‍या (अन्यान्) मन, वाणी आदी इंद्रियांना (अति, एति) उल्लंघून पुढे जातो (इंद्रियें त्याच्यापर्यंत पोहचू शकत नाहीत.) (तस्मिन्) त्या सर्वव्यापी ईश्‍वराच्या स्थिरतेमधे (मातरिश्‍वा) अंतरिक्षात प्राणांचे धारण करणार्‍या वायूप्रमाणे जीवात्मा (अपः) कर्म (दधति) करतो वा क्रिया करतो. (ब्रह्म सर्वव्यापक व स्थिर असून सर्व जीवात्मा त्यामधे गती व क्रिया करतात म्हणजे कोणीही आत्मा वा पदार्थ त्याच्या बाहेर नाही.) ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - तो परब्रह्म अनंत आहे यामुळे मन जेथे जेथे जाते, सर्वव्यापी ब्रह्म तेथे तेथे आधीपासून विद्यमान असते. त्या ईश्‍वराचे ज्ञान शुद्ध मनाने होत असून तो नेत्र आदी इंद्रियांद्वारे गम्य नाही आणि अविद्वान मनुष्यांद्वारा ज्ञातव्य वा ज्ञेय नाही. तो ब्रह्म स्वतः निश्‍चळ असून सर्व जीवांना नियमाप्रमाणे चालवितो वा धारण करतो. तो अति सूक्ष्म असल्यामुळे इंद्रियगम्य नाही, त्यामुळे केवळ धर्मात्मा विद्वान योगी यांनाच त्याचे साक्षात ज्ञान होते, अन्यांना नाही. ॥4॥

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    व्याख्यान

    भाषार्थ : (नैनद्देवा.) या वचनात देव शब्दाने इंद्रियांचा बोध होतो. श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जीभ, नाक व मन हे सहा देव समजले जातात. कारण शब्द, स्पर्श, रूप, गंध, सत्य व असत्य इत्यादी अर्थांचा यांच्याद्वारे प्रकाश होतो. देव शब्दाने स्वार्थामध्ये ‘तल’ प्रत्यय लागल्याने देवता शब्द सिद्ध होतो. ज्या ज्या पदार्थात ईश्वराने जे जे गुण दिलेले आहेत त्या गुणांचे कथन, उपदेश, श्रवण व विज्ञान तसेच मनुष्यसृष्टीच्या गुणदोषांचे वर्णन इत्यादींना स्तुती म्हणतात. कारण ज्या पदार्थात जितके गुण आहेत तितके तितके देवत्व त्यांच्या ठायी असते. त्यामुळे ते कुणाचे इष्टदेव होत नाहीत. जसे एखाद्याने एखाद्याला म्हटले, की ही तलवार कापण्यासाठी चांगली आहे, धारधार आहे, धनुष्यासारखी वाकविल्यास तुटत नाही इत्यादी तलवारीच्या या गुणांना स्तुती म्हणतात.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God is permanent, One, swifter than mind, beyond the reach of physical organs, speeding on before them. He through His Omnipresence, outstrips the physical organs running after passions. Residing in Him doth soul perform action.

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    Meaning

    Brahma is constant, unmoving, One and only One, without a second, and faster than the mind. The mind and senses cannot attain to It, although It is present everywhere, already and always. Though still, It surpasses and transcends others who are at the fastest move in nature. Within It the wind holds the waters of the universe. Within the Divine Presence the soul performs its actions. (If something moves faster than the velocity of light, it becomes omnipresent. And what is omnipresent, is still too, because there is no space to move through. )

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    Translation

    That one, though absolutely motionless, is swifter than mind. The gods could not overtake It, when it sped before them. Though standing still, it outstrips all the others running fast. Even the vehement wind concedes its supremacy. (1)

    Notes

    Contradictory statements are only to give an idea of the extra-ordinary nature of the Supreme Deity. Anejat, absolutely motionless. Manaso javiyaḥ, mind is considered to be the speediest thing, but God Supreme is speedier than mind. Arsat, when it sped (before them). Devāḥ, in legend Agni, Väyu, Sürya, Indra etc. are gods; most of them are speedy. Also, sense-organs, which are unable to comprehend the God Supreme. Tişthat, standing still. Tasmin apo matariśvā dadhāti, even the wind concedes His supremacy. (An arbitrary translation of 'apo dadhāti'; Hindi idiom, आगे पानी भरना ) ।

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    बंगाली (2)

    विषय

    কীদৃশো জন ঈশ্বরং সাক্ষাৎকরোতীত্যাহ ॥
    কেমন জন ঈশ্বরকে সাক্ষাৎ করে এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ মনুষ্যগণ ! যিনি অদ্বিতীয় (অনেজৎ) অকম্পমান অর্থাৎ অচল নিজের অবস্থান হইতে সরিয়া আসাকে কম্পন বলে, তাহা হইতে রহিত (মনসঃ) মনের বেগ হইতেও (জবীয়ঃ) অতি বেগবান্ (পূর্বম্) সকলের পূর্বে (অর্ষৎ) চলিয়া অর্থাৎ যেখানে কেউ গমন করে সেখানে প্রথমেই সর্বত্র ব্যাপ্তি দ্বারা উপস্থিত ব্রহ্ম আছে (এনৎ) এই পূর্বোক্ত ঈশ্বরকে (দেবাঃ) চক্ষু আদি ইন্দ্রিয় (ন) না (আপ্লুবন্) প্রাপ্ত হয় (তৎ) সেই পরব্রহ্ম স্বয়ং (তিষ্ঠৎ) স্থির থাকিয়া নিজের অনন্ত ব্যাপ্তি দ্বারা (ধাবতঃ) বিষয়ের দিকে পতিত হইয়া (অন্যান্) আত্মার স্বরূপ হইতে বিলক্ষণ মন, বাণী আদি ইন্দ্রিয়দিগের (অতি, এতি) উল্লঙ্ঘন করিয়া যায় (তস্মিন্) সেই সর্বত্র অভিব্যাপ্ত ঈশ্বরের স্থিরতায় (মাতরিশ্বা) অন্তরিক্ষে প্রাণ সকলকে ধারণকারী বায়ুতুল্য জীব (অপঃ) কর্ম বা ক্রিয়াকে (দধাতি) ধারণ করে, এই জানিবে ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ব্রহ্মার অনন্ত হওয়ায় যেখানে যেখানে মন গমন করে সেখানে প্রথম হইতেই অভিব্যাপ্ত, প্রথম হইতেই স্থির ব্রহ্ম বর্ত্তমান, তাহার বিজ্ঞান শুদ্ধ মন দ্বারা হয়, চক্ষু আদি ইন্দ্রিয় এবং অবিদ্বান্দের দ্বারা দেখিবার যোগ্য নহে । তিনি স্বয়ং নিশ্চল হইয়া সব জীবদেরকে নিয়মপূর্বক চালনা করেন এবং ধারণ করেন । তাঁহার অতিসূক্ষ্ম, ইন্দ্রিয়গম্য না হওয়ার কারণে ধর্মাত্মা বিদ্বান্ যোগীকেই তাঁহার সাক্ষাৎ জ্ঞান হয়, অন্যের নহে ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অনে॑জ॒দেকং॒ মন॑সো॒ জবী॑য়ো॒ নৈন॑দ্দে॒বাऽআ॑প্নুব॒ন্ পূর্ব॒মর্ষ॑ৎ ।
    তদ্ধাব॑তো॒ऽন্যানত্যে॑তি॒ তিষ্ঠ॒ত্তস্মি॑ন্ন॒পো মা॑ত॒রিশ্বা॑ দধাতি ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অনেজদিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । ব্রহ্ম দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    অনেজদেকং মনসো জবীয়ো নৈনদ্দেবাআপ্নুবন্ পূর্বমর্ষৎ ।
    তদ্ধাবতোঽন্যানত্যেতি তিষ্ঠৎ তস্মিন্নপো মাতরিশ্বা দধাতি ।। ৮৭।।
    (যজু, ৪০।০৪)
    পদার্থঃ হে বিদ্বান মানুষ ! যিনি (একম্) এক ও অদ্বিতীয় ব্রহ্ম, তিনি (অনেজৎ) কম্পন রহিত অর্থাৎ নিজ স্বরূপ থেকে কখনো বিচলিত হন না, তিনি (মনসঃ) মনের বেগ থেকেও (জবীয়ঃ) অতি বেগবান (পূর্বম্) সবার অগ্রণী, পূর্ণ (অর্ষৎ) সর্বত্র মনের থেকেও প্রথমে উপস্থিত, (এনৎ) এই ব্রহ্মকে (দেবাঃ) চক্ষু আদি ইন্দ্রিয় (আপ্নুবন্) প্রাপ্ত করতে পারে (ন) না । (তৎ) তিনি স্বয়ং (তিষ্ঠৎ) নিজ স্বরূপে স্থিত হয়ে নিজের অনন্ত ব্যাপকতা দ্বারা (ধাবতঃ) বিষয়ের প্রতি ধাবমান (অন্যান্) আত্মস্বরূপ থেকে ভিন্ন মন, বাক্য, ইন্দ্রিয়কে (অতি এতি) অতিক্রম করে যান, (তস্মিন্) সেই সর্বত্র ব্যাপক স্থির ব্রহ্মে (মাতরিশ্বা) যেমন অন্তরিক্ষে বায়ু ক্রিয়াশীল থাকে ঐরূপ জীব সেই ব্রহ্মে (অপঃ) কর্ম বা ক্রিয়াকে (দধাতি) ধারণ করে, এরূপ জানো ।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যদিও তিনি ধ্রুব, তবুও তিনি মনের চেয়েও দ্রুতগামী; অন্যান্য ধাবমান সকলকে শক্তিকে অতিক্রমকারী। এক ও অদ্বিতীয় তিনি। বেগবান নেত্র, শ্রোত্রাদি ইন্দ্রিয়সমূহও তাঁকে প্রাপ্ত হয় না। তাই তাঁকে চোখ দিয়ে দেখা যায় না, ইন্দ্রিয় দিয়ে ধারণ করা যায় না। অতীন্দ্রিয়, সূক্ষ্ম জ্ঞান দ্বারাই বিদ্বান ধার্মিকগণ তাঁকে জানতে পারেন। চন্দ্র, সূর্য, বায়ু সকল কিছুর ধারক তিনি। যেমন অন্তরীক্ষ বায়ুকে ধারণ করে, ঠিক তেমনি ব্রহ্মরূপী জগৎমাতা সকল জীবকে ধারণ করে আছেন।।৮৭।। 

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