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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 14
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    याभि॑र्म॒हाम॑तिथि॒ग्वं क॑शो॒जुवं॒ दिवो॑दासं शम्बर॒हत्य॒ आव॑तम्। याभि॑: पू॒र्भिद्ये॑ त्र॒सद॑स्यु॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । म॒हाम् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वम् । क॒शः॒ऽजुव॑म् । दिवः॑ऽदासम् । श॒म्ब॒र॒ऽहत्ये॑ । आव॑तम् । याभिः॑ । पूः॒ऽभिद्ये॑ । त्र॒सद॑स्युम् । आव॑तम् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभिर्महामतिथिग्वं कशोजुवं दिवोदासं शम्बरहत्य आवतम्। याभि: पूर्भिद्ये त्रसदस्युमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। महाम्। अतिथिऽग्वम्। कशःऽजुवम्। दिवःऽदासम्। शम्बरऽहत्ये। आवतम्। याभिः। पूःऽभिद्ये। त्रसदस्युम्। आवतम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजासेनाजनसभाध्यक्षैः परस्परं किं किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना राजप्रजयोः शूरवीरजनौ युवां शम्बरहत्ये याभिरूतिभिर्महामतिथिग्वं कशोजुवं दिवोदासं सेनापतिमावतम्। याभिः पूर्भिद्ये त्रसदस्युमावतं ताभिरु स्वागतम् ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (महाम्) महान्तम् पूज्यम् (अतिथिग्वम्) अतिथीन् प्राप्नुवन्तम् (कशोजुवम्) कशांस्युदकानि जवयति गमयति तम्। कश इत्युदकना०। निघं० १। १२। (दिवोदासम्) दिवो विद्याधर्मप्रकाशस्य दातारम्। दिवश्च दास उपसंख्यानम्। अ० ६। ३। २१। इति षष्ठ्या अलुक्। (शम्बरहत्ये) शम्बरस्य बलस्य हत्या हननं यस्मिन् युद्धादिव्यवहारे तस्मिन्। शम्बरमिति बलनामसु पठितम्। निघं० २। ९। (आवतम्) रक्षतम् (याभिः) क्रियाभिः (पूर्भिद्ये) शत्रूणां पुराणि भिद्यन्ते यस्मिन् संग्रामे तस्मिन् (त्रसदस्युम्) यो दस्युभ्यस्त्रस्यति तम् (आवतम्) रक्षतम्। ताभिरिति पूर्ववत् ॥ १४ ॥

    भावार्थः

    प्रजासेनाजनैः सकलविद्यं धार्मिकं पुरुषं सभापतिं कृत्वा संरक्ष्य सर्वस्मै दुष्टं तस्करं हत्वा सुखानि प्राप्तव्यानि प्रापयितव्यानि च ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजा सेनाजन और सभाध्यक्ष को परस्पर क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) राजा और प्रजा में शूरवीर पुरुषो ! तुम दोनों (शम्बरहत्ये) सेना वा दूसरे के बल पराक्रम का मारना जिसमें हो उस युद्धादि व्यवहार में (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (महाम्) बड़े प्रशंसनीय (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त होने, (कशोजुवम्) जलों को चलाने और (दिवोदासम्) दिव्य विद्यारूप क्रियाओं के देनेवाले सेनापति की (आवतम्) रक्षा करो, वा जिन रक्षाओं से (पूर्भिद्ये) शत्रुओं के नगर विदीर्ण हों जिससे उस संग्राम में (त्रसदस्युम्) डाकुओं से डरे हुए श्रेष्ठ जन की (आवतम्) रक्षा करो, (ताभिः) उन्हीं रक्षाओं से हमारी रक्षा के लिये (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार आइये ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    प्रजा और सेना के मनुष्यों को योग्य है कि सब विद्या में निपुण धार्मिक पुरुष को सभापति कर उसकी सब प्रकार रक्षा करके सबको भय देनेवाले दुष्ट डांकू को मारके आप सुखों को प्राप्त हों और सबको सुखी करें ॥ १४ ॥

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    विषय

    शम्बर - हत्या

    पदार्थ

    हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः) = उन (ऊतिभिः) = रक्षणों से (उ) = निश्चयपूक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (महाम्) = [मह पूजायाम्] प्रभु का पूजन करनेवाले को (अतिथिग्वम्) = पूजन के द्वारा उस सतत क्रियाशील [अत सातत्यगमने] प्रभु की ओर जानेवाले को (कशोजुवम्) = [कशांसि उदकानि जवयति - नि० १/१२ द०] प्रभु की ओर चलने के लिए रेतः कणों के रूप में शरीरस्थ जलों की ऊर्ध्वगति करनेवाले को (दिवोदासम्) = शक्ति की ऊर्ध्वगति से प्राप्त ज्ञान के द्वारा सब बुराइयों का संहार करनेवाले को (शंबरहत्ये) = [शम् - शान्ति , वर - पर्दा डालनेवाला] शान्ति पर पर्दा डाल देनेवाले ईर्ष्यारूप असुर [आसुरवृत्ति] के विनाश में (आवतम्) = समर्थ करते हो । यह प्राणसाधना हमें प्रभुपूजक बनाती है । हम प्रभु की ओर चलनेवाले होते हैं । शक्ति की ऊर्ध्वगति के द्वारा प्राप्त ज्ञान से हम आसुरवृत्तियों को नष्ट करते हैं । ईर्ष्या को नष्ट करके हम मानस शान्ति प्राप्त करते हैं । 

    २. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (पूर्भिद्ये) = काम - क्रोध - लोभरूप असुरों से बनायी गई पुरियों का विदारण करने में (त्रसदस्युम्) = जिससे भयभीत होते हैं , उस त्रसदस्यु को आप (आवतम्) = समर्थ करते हैं । प्राणसाधना से ही हम त्रसदस्यु बनते हैं और यह साधना ही हमें असुर पुरियों का विदारण करने में समर्थ करती है । काम की नगरी के विध्वंस से इन्द्रियों की शक्ति जीर्ण नहीं होती , क्रोधनगरी के विध्वंस से मन शान्त होता है और लोभनगरी का विध्वंस बुद्धि को स्वस्थ रखता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से ईर्ष्या नष्ट होती है । इससे काम , क्रोध , लोभ दूर होते हैं । 
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( याभिः ऊतिभिः ) जिन रक्षा साधनों और उपायों से आप दोनों (शम्बरहत्ये) मेघ को आघात कर छिन्न भिन्न कर देने वाले सूर्य और वायु के समान ( शम्बर-हत्ये ) प्रजा के शान्ति सुख के नाशक दुष्ट पुरुषों के नाश करने के कार्य में (महाम्) बड़े भारी (अतिथिग्वम्) अतिथि जनों के आश्रय और उनके प्रेम और सत्कार से प्राप्त होने वाले, (कशोजुवं) उनको अर्धपाद्य, आचमनीय आदि जलों द्वारा तृप्त करने वाले और प्रजा को भी कूप, नहर आदि द्वारा वर्षा धाराओं से मेघों के समान तृप्त करने वाले ( दिवोदासं ) सूर्य के समान तेज, ज्ञान प्रकाश के देने और धारण करने वाले पुरुष को (आ अवतम् ) प्राप्त होते हो । ( पूर्मिद्ये ) शत्रुओं के नगरों को तोड़ने आदि युद्ध कार्य में ( याभिः ) जिन साधनों से ( त्रसद्-दस्युम् ) दुष्टों के हराने वाले वीर पुरुषों को ( आ अवतं ) प्राप्त होते हो (ताभिः) इन ही साधनों सहित हमें मी प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजा व सेनेतील लोकांनी सर्व विद्येत निपुण धार्मिक पुरुषाला सभापती बनवून, त्याचे सर्व प्रकारे रक्षण करून सर्वांना भयभीत करणाऱ्या दुष्ट दुर्जनांना मारून सुखी व्हावे व सर्वांना सुखी करावे. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, promoters and leaders of humanity, come with those protections and generosities by which in the most challenging battle of life you protect the great man of liberality, the manager of water resources and the promoter of sunlight and the light of Dharma, and by which you defend and advance the terror-warrior against the strongholds of the evil and the wicked in the struggle of life for light and knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the presidents of the Assembly and the Army etc. do towards one another is taught in the fourteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (Brave persons representing the King and public) come to us willingly with those protective powers by which you protect in the battle a respectable person who is hospitable to his guests, who arranges for the proper flow of waters or uses them for the honor of venerable people and who is giver of the light of Vidya and Dharma (Wisdom and righteousness), by which you protect in war where the forts or cities of enemies are destroyed a man who is afraid of the strong robbers, thieves and other wicked persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अतिथिग्वम्) अतिथीन् प्राप्नुवन्तम् = Going to receive venerable guests. (कशोजुवम्) कशांसि उदकानि जवयति गमयति तम् कश इत्युदकमाम (निघ० १.१२ ) (दिवोदासम्) दिवो विद्याधर्मप्रकाशस्य दातारम् । दिवश्चदास उपसंख्यानम अष्टा० ६. ३. २१ इति षष्ठ्या अलुक् || = Giver of the light of Vidya and Dharma (Wisdom and righteousness).

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The people belonging to the public and army should elect and guard a very learned and righteous person as President of the Assembly and then should enjoy all happiness themselves and help others to do so by slaying a wicked thief who is fierce to all.

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