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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 19
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    याभि॒: पत्नी॑र्विम॒दाय॑ न्यू॒हथु॒रा घ॑ वा॒ याभि॑ररु॒णीरशि॑क्षतम्। याभि॑: सु॒दास॑ ऊ॒हथु॑: सुदे॒व्यं१॒॑ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभिः॑ । पत्नीः॑ । वि॒ऽम॒दाय॑ । नि॒ऽऊ॒हथुः॑ । आ । घ॒ । वा॒ । याभिः॑ । अ॒रु॒णीः । अशि॑क्षतम् । याभिः॑ । सु॒ऽदासे॑ । ऊ॒हथुः॑ । सु॒ऽदे॒व्य॑म् । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभि: पत्नीर्विमदाय न्यूहथुरा घ वा याभिररुणीरशिक्षतम्। याभि: सुदास ऊहथु: सुदेव्यं१ ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभिः। पत्नीः। विऽमदाय। निऽऊहथुः। आ। घ। वा। याभिः। अरुणीः। अशिक्षतम्। याभिः। सुऽदासे। ऊहथुः। सुऽदेव्यम्। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 19
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्त्रीपुंसाभ्यां कथं कदा विवाहः कार्य इत्याह ।

    अन्वयः

    हे अश्विनाध्यापकाध्येतारौ युवां याभिरूतिभिर्विमदाय पत्नीर्न्यूहथुः। याभिरूतिभिररुणीर्घैवाशिक्षतम्। याभिः सुदासे सुदेव्यमूहथुश्च ताभिर्विद्या उ विनयं स्वागतम् ॥ १९ ॥

    पदार्थः

    (याभिः) (पत्नीः) पत्युर्यज्ञसंबन्धिनीर्विदुषीः (विमदाय) विविधानन्दाय (न्यूहथुः) नितरां वहतम् (आ) (घ) एव (वा) पक्षान्तरे (याभिः) (अरुणीः) ब्रह्मचारिणीः कन्याः (अशिक्षतम्) पाठयतम् (याभिः) (सुदासे) सुष्ठुदाने (ऊहथुः) प्राप्नुतम् (सुदेव्यम्) सुष्ठु देवेषु विद्वत्सु भवं विज्ञानम् (ताभिः०) इति पूर्ववत् ॥ १९ ॥

    भावार्थः

    सुखं जिगमिषुभिः पुरुषैः स्त्रीभिश्च धर्मसेवितेन ब्रह्मचर्य्येण च पूर्णां विद्यां युवावस्थां च प्राप्य स्वतुल्यतयैव विवाहः कर्त्तव्योऽथवा ब्रह्मचर्य एव स्थित्वा सर्वदा स्त्रीपुरुषाणां सुशिक्षा कार्या नहि तुल्यगुणकर्मस्वभावैर्विना गृहाश्रमं धृत्वा केचित् किञ्चिदपि सुखं सुसंतानं प्राप्तुं शक्नुवन्त्यत एवमेव विवाहः कर्त्तव्यः ॥ १९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब स्त्री-पुरुष को कैसे और कब विवाह करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) पढ़ने-पढ़ानेहारे ब्रह्मचारी लोगो ! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (विमदाय) विविध आनन्द के लिये (पत्नीः) पति के साथ यज्ञसम्बन्ध करनेवाली विदुषी स्त्रियों को (न्यूहथुः) निश्चय से ग्रहण करो, (वा) वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अरुणीः) ब्रह्मचारिणी कन्याओं को (घ) ही (आ, अशिक्षतम्) अच्छे प्रकार शिक्षा करो और (याभिः) जिन रक्षादि क्रियाओं से (सुदासे) अच्छे प्रकार दान करने में (सुदेव्यम्) उत्तम विद्वानों में उत्पन्न हुए विज्ञान को (ऊहथुः) प्राप्त कराओ, (ताभिः) उन रक्षाओं से विद्या (उ) और विनय को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥ १९ ॥

    भावार्थ

    सुख पाने की इच्छा करनेवाले पुरुष और स्त्रियों को धर्म से सेवित ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या और युवावस्था को प्राप्त होकर अपनी तुल्यता से ही विवाह करना योग्य है अथवा ब्रह्मचर्य ही में ठहर के सर्वदा स्त्री-पुरुषों को अच्छी शिक्षा करना योग्य है क्योंकि तुल्य गुणकर्मस्वभाववाले स्त्री-पुरुषों के विना गृहाश्रम को धारण करके कोई किञ्चित् भी सुख वा उत्तम सन्तान को प्राप्त होने में समर्थ नहीं होते, इससे इसी प्रकार विवाह करना चाहिये ॥ १९ ॥

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    विषय

    विमद , सुदास

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे (विमदाय) = मदशून्य , विनीत पुरुष के लिए (पत्नीः) = यज्ञादि उत्तम कार्यों में हमारा संयोग करनेवाली वेदवाणीरूप पत्नियों को (न्यूहथुः) = निश्चय से प्रास कराते हो । वेदवाणी विमद की पत्नी बनती है । यह उसे यज्ञादि उत्तम कर्म के लिए प्रेरणा देती है और उसे पतन से बचाती है । 

    २. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (घ वा) = निश्चयपूर्वक (अरुणीः) = आरोचमान ज्ञान की किरणों को (अशिक्षतम्) = सब प्रकार से देते हो । प्राणसाधना से बुद्धि खुब तीव्र बनती है और साधक देदीप्यमान ज्ञान की किरणों को प्राप्त करनेवाला बनता है । 

    ३. हमें उन रक्षणों से प्राप्त होओ , (याभिः) = जिन रक्षणों से (सुदासे) = उत्तम दान देनेवाले के लिए (सुदेव्यम्) = व्यवहार - साधक उत्तम धन को [दिव् - व्यवहार] (ऊहथुः) = प्राप्त कराते हो । प्राणसाधना करनेवाला स्वस्थ व सबल बनकर जीवन - यात्रा के लिए आवश्यक धन को अवश्य ही प्राप्त कर लेता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से विमद बनकर हम वेदवाणीरूप पत्नी को प्राप्त करते हैं , तीव्रबुद्धि होकर आरोचमान ज्ञान की किरणों को प्राप्त करनेवाले होते हैं , कल्याणदान [सुदास] बनकर उत्तम व्यवहार - साधक धन को प्राप्त करते हैं । 
     

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो! आप लोग ( याभिः ) जिन ( ऊतिभिः ) उत्तम ज्ञानपूर्वक किये रक्षा-साधनों से ( वि-मदाय ) विविध प्रकार के आनन्द प्राप्ति के लिये ( पत्नीः ) पतियों के साथ यज्ञ द्वारा संयोग करने वाली पत्नी जनों को ( नि-ऊहथुः ) विवाहित करते या गृहस्थ में प्रवेश कराते हो और ( याभिः ) जिन उपायों से ( अरुणीः ) तेजस्विनी, ब्रह्मचारिणी कन्याओं को ( अशिक्षतम् ) शिक्षा प्रदान करते हो । और ( याभिः ) जिन उपायों से ( सुदासे ) उत्तम दानशील पुरुष को ( सुदेव्यम् ) उत्तम देने योग्य, ज्ञान और द्रव्य ( ऊहथुः ) प्राप्त कराते हो (ताभिः) उन उपायों सहित आप दोनों हमें ( आ गतम् ) प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सुख प्राप्त करण्याची इच्छा असणाऱ्या स्त्री-पुरुषांनी धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य पालन करून पूर्ण विद्या व युवावस्था प्राप्त करून आपल्यासारख्याशीच विवाह करणे योग्य आहे. ब्रह्मचर्यात राहून सदैव स्त्री-पुरुषांनी शिक्षणाचे कार्य करणे योग्य आहे. कारण समान गुणकर्म स्वभाव असणाऱ्या स्त्री पुरुषांशिवाय गृहस्थाश्रम धारण करून एखादी व्यक्ती किंचितही सुख प्राप्त करू शकत नाही व उत्तम संतान प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. त्यासाठी अशा प्रकारे विवाह केला पाहिजे. ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, generous powers of nature and humanity, teachers and celibates, come with the love and protection by which you bring generous and noble life-partners for young men. Come with the love and knowledge by which you teach bright girls and prepare them for life. Come with that bright and divine knowledge by which you enrich the man of charity and generosity. Come and bless us with all these modes of support and protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How and when men and women should marry is taught in the 19th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and students; Please come to us with those protective powers by which you arrange good brides to marry suitable bride-grooms in order to make them particularly happy, by which you teach Brahmacharini girls (girls observing continence) and by which you acquire good knowledge in order to give it freely and liberally to others.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विभदाय) विविधानन्दाय = For various delight. (अरुणी:) ब्रह्मचारिणी: कन्याः = Brahamcharini girls (observing continence and full of splendor) (सुदेवम्) देवेषु विद्वत्सु भवं विज्ञानम् ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men and women who desire to get happiness should marry each other suitably only after observing Brahamcharya with Dharma and attaining youth or if they do not desire to marry, they should remain in Brahmacharya (perfect continence) through out their lives. No one can attain happiness and good progeny without suitable and agreeable marriage, therefore marriage should always be performed after taking into consideration the merits, actions and temperaments of the parties concerned.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take विमद as the name of a particular Rishi instead of taking it as denoting the purpose of marriage as विविधानन्दाय = For various delight मदी-हर्षे । अरुणी :- उषसोऽरण्यो दीप्तय इव ( ऋ० १.१२१.३ भाष्यै दयानन्द: अरुण आरोचनः इति निरुक्ते ५.२० ।

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