ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 21
यवं॒ वृके॑णाश्विना॒ वप॒न्तेषं॑ दु॒हन्ता॒ मनु॑षाय दस्रा। अ॒भि दस्युं॒ बकु॑रेणा॒ धम॑न्तो॒रु ज्योति॑श्चक्रथु॒रार्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठयव॑म् । वृके॑ण । अ॒श्वि॒न॒ । वप॑न्ता । इष॑म् । दु॒हन्ता॑ । मनु॑षाय । द॒स्रा॒ । अ॒भि । दस्यु॑म् । बकु॑रेण । धम॑न्ता । उ॒रु । ज्योतिः॑ । च॒क्र॒थुः॒ । आर्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
यवं वृकेणाश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा। अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ॥
स्वर रहित पद पाठयवम्। वृकेण। अश्विना। वपन्ता। इषम्। दुहन्ता। मनुषाय। दस्रा। अभि। दस्युम्। बकुरेण। धमन्ता। उरु। ज्योतिः। चक्रथुः। आर्याय ॥ १.११७.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 21
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजधर्ममाह ।
अन्वयः
हे दस्राश्विना युवां मनुषाय वृकेण यवमिव वपन्तेषं दहन्ताऽर्य्याय बकुरेण ज्योतिस्तमइव दस्युमभिधमन्तोरु राज्यं चक्रथुः कुरुतम् ॥ २१ ॥
पदार्थः
(यवम्) यवादिकमिव (वृकेण) छेदकेन शस्त्रास्त्रादिना (अश्विना) सुखव्यापिनौ (वपन्ता) (इषम्) अन्नम् (दुहन्ता) प्रपूरयन्तौ (मनुषाय) मननशीलाय जनाय (दस्रा) दुःखविनाशकौ (अभि) (दस्युम्) (बकुरेण) भासमानेन सूर्य्येण तम इव। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (धमन्ता) अग्निं संयुञ्जानौ (उरु) ज्योतिः विद्याविनयप्रकाशम् (चक्रथुः) (आर्य्याय) अर्य्यस्येश्वरस्य पुत्रवद्वर्त्तमानाय ।यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे−बकुरो भास्करो भयंकरो भासमानो द्रवतीति वा ॥ २५ ॥ यवमिव वृकेणाश्विनौ निवपन्तौ। वृको लाङ्गलं भवति विकर्त्तनात्। लाङ्गलं लङ्गतेर्लाङ्गूलवद्वा। लाङ्गूलं लगतेर्लङ्गतेर्लम्बतेर्वा। अन्नं दुहन्तौ मनुष्याय दर्शनीयावभिधमन्तौ दस्युं बकुरेण ज्योतिषा वोदकेन वार्य्य ईश्वरपुत्रः। निरु० ६। २६। ॥ २१ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः प्रजाकण्टकान् लम्पटचोरानृतपरुषवादिनो दुष्टान् निरुध्य कृष्यादिकर्मयुक्तान् प्रजास्थान् वैश्यान् संरक्ष्य कृष्यादिकर्माण्युन्नीय विस्तीर्णं राज्यं सेवनीयम् ॥ २१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे (अश्विना) सुख में रमे हुए सभासेनाधीशो ! तुम दोनों (मनुषाय) विचारवान् मनुष्य के लिये (वृकेण) छिन्न-भिन्न करनेवाले हल आदि शस्त्र-अस्त्र से (यवम्) यव आदि अन्न के समान (वपन्ता) बोते और (इषम्) अन्न को (दुहन्ता) पूर्ण करते हुए तथा (आर्य्याय) ईश्वर के पुत्र के तुल्य वर्त्तमान धार्मिक मनुष्य के लिये (बकुरेण) प्रकाशमान सूर्य्य ने किया (ज्योतिः) प्रकाश जैसे अन्धकार को वैसे (दस्युम्) डाकू, दुष्ट प्राणी को (अभि, धमन्ता) अग्नि से जलाते हुए (उरु) अत्यन्त बड़े राज्य को (चक्रथुः) करो ॥ २१ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि प्रजाजनों में जो कण्टक, लम्पट, चोर, झूठा और खारे बोलनेवाले दुष्ट मनुष्य हैं उनको रोक, खेती आदि कामों से युक्त वैश्य प्रजाजनों की रक्षा और खेती आदि कामों की उन्नति कर अत्यन्त विस्तीर्ण राज्य का सेवन करें ॥ २१ ॥
विषय
प्राणसाधक का अन्न ‘यव’
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (वृकेण) = [लांगलेन - सा०] हल के द्वारा (यवम्) = जौ का (वपन्ता) = वपन करते हो । प्राणसाधना के अनुकूल यव का ही मुख्यरूप से प्रयोग करता है । ‘यवे ह प्राण आहिता’ । २. हे (दत्रा) = वासनाओं का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! आप (मानुषाय) = विचारशील पुरुष के लिए (इषम्) = प्रेरणा का (दुहन्ता) = दोहन करनेवाले होते हो । प्राणसाधना से हृदय की पवित्रता होकर हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा सुन पड़ती है । ३. इस प्रेरणा के अनुसार कर्म करनेवाले के लिए (दस्युम्) = दास्यव वृत्तियों को (बकुरेण) = भास्कर वज्र से (अभिधमन्ता) = आप नष्ट करते हो । प्रभु की प्रेरणा का प्रकाश ही वह वन बनता है , जो दास्यव वृत्तियों का नाशक होता है । ४. इस प्रकार दास्यव वृत्तियों का नाश करते हुए प्राणापान (आर्याय) = आर्यपुरुष के लिए (उरु ज्योतिः चक्रथुः) = विशाल ज्योति करनेवाले होते हैं । प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता व हृदय की निर्मलता होकर प्रकाश का विस्तार होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक यवादि सात्त्विक अन्नों का प्रयोग करता है , पवित्र हृदय में प्रभु - प्रेरणा को सुनता है और दास्यव वृत्तियों का नाश करता हुआ विशाल ज्योति को प्राप्त करता है ।
विषय
सौ मेषों का रहस्य ऋज्राश्व की कथा का रहस्य।
भावार्थ
पूर्वोक्त रूप से फल न देने वाली राष्ट्रभूमि को समृद्ध करने का उपाय बतलाते हैं—हे ( अश्विना ) विद्वान् स्त्री पुरुषो, एवं प्रमुख अधिकारियो ! आप दोनों जन ( वृकेण ) भूमि को विशेष रूप से खोदने वाले हल यन्त्र से भूमि को खन कर ( यवं ) यव आदि धान्य ( वपन्ता ) बोते हुए (मनुषाय) मनुष्य वर्ग के खाने पीने के लिये (इषं) इच्छानुरूप अन्न और वृष्टि जल को प्रदान करते हुए और ( बकुरेण ) तेजोमय आग्नेयास्त्र से ( दस्युं ) प्रजा के नाश करने वाले, दुष्ट डाकू वर्ग को ( अभिधमन्ता ) सब प्रकार से संताप देते हुए, ( आर्याय ) श्रेष्ठ प्रजा वर्ग के हित के लिये ( ज्योतिः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष को शासक ( चक्रथुः ) बनावो । ( २ ) अथवा—( वृकेण ) शत्रुओं को काट गिरा देने वाले शस्त्र से (यवं) जौ के समान ( यवम् ) दूर करने योग्य शत्रु पक्ष को ( वपन्ता ) छेदन करते हुए और मनुष्य वर्ग के हितार्थ ( इषं ) सेना बल को ( दुहन्ता ) पूर्ण करते हुए ( बकुरेण दस्युं धमन्ता ) चमचमाते आग्नेयास्त्र से दुष्टों को भस्म करते हुए ( आर्याय ) श्रेष्ठ राजा के पुत्र के समान प्रजाजन की वृद्धि के लिये ( ज्योतिः चक्रथुः ) तेज और न्याय का प्रकाश करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी कंटक, चोर, लंपट, दुष्ट माणसे यांना रोखावे. शेती वगैरे कामातील शेतकरी व वैश्य लोकांचे रक्षण करून शेतीसंबंधीच्या कामाची वाढ करून अत्यंत विस्तीर्ण राज्य बनवावे. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, brave heroes and destroyers of evil, want and suffering, sowing barley with the plough and uprooting the weeds, creating and drawing energy from nature and food, warding and blowing off the evil and wicked by warning and punishment all round, expanding and radiating the light of knowledge and justice for the good and progressive people, you build a grand social order of freedom and happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a King are told again in the 21st Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and Chief Commander of the Army, O destroyers of all miseries. you can rule over a vast State, making proper arrangements for causing the barley etc. to be sown in the fields that have been prepared by the thoughtful persons, as the bright sun dispels darkness by his ray, so dispelling the darkness of ignorance by spreading the light of knowledge and humility and by destroying thieves and robbers etc. by the shining thunderbolt, bestowing brilliant light of wisdom upon the Aryas-righteous or noble persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृकेण) छेदकेन शस्त्रास्त्रादिना = By the cutting plough. वृको लांगलं भवतिविकर्तनात् (निरुक्ते ६. २६. २१ ) (वकुरेण) भासमानेन सूर्येण = By the bright sun. वकुरो भास्करी भासमानो द्रवतीति (निरुक्ते ६. २६. २१) (मनुषाय) मननशोलाय जनाय = For a thoughtful person.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the officers of the State to restrain all wicked persons who are like thorns in the eyes of the public and all voluptuous thieves and speakers of false and piercing words, to give protection to all Vaishyas (engaged in agriculture and trade) and to develop agriculture particularly. They should pay special attention to the discharge of these duties.
Translator's Notes
It is wrong on the part of Sayanacharya to interpret मनुषाय as मनवे मनोरर्थम् = for the sake of Manu. Even Prof. Wilson rightly found fault with this interpretation remarking in the Notes:– “It may also be observed that the text has मनुष Manusha which the scholiast (Sayancharya) says is here a Synonym of Manu, but which more usually designates men." (Prof. Wilson's Notes on Vol. 1 P. 332). Even the word Manu is used for all thoughtful persons as clearly stated in the Shatpath Brahmana 8. 6. 3. 18. ये विद्वांसस्ते मनव: (शतपथ ८ ६.३.१८) . This clearly corroborates Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation as given above. मनुषे-मननशीलाय जनाय = The word आर्याय has been rightly interpreted by Sayanacharya as विदुषे = Learned.
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