ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 121/ मन्त्र 7
ऋषिः - औशिजो दैर्घतमसः कक्षीवान्
देवता - विश्वे देवा इन्द्रश्च
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स्वि॒ध्मा यद्व॒नधि॑तिरप॒स्यात्सूरो॑ अध्व॒रे परि॒ रोध॑ना॒ गोः। यद्ध॑ प्र॒भासि॒ कृत्व्याँ॒ अनु॒ द्यूनन॑र्विशे प॒श्विषे॑ तु॒राय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽइ॒ध्मा । यत् । व॒नऽधि॑तिः । अ॒प॒स्यात् । सूरः॑ । अ॒ध्व॒रे । परि॑ । रोध॑ना । गोः । यत् । ह॒ । प्र॒ऽभासि॑ । कृत्व्या॑न् । अनु॑ । द्यून् । अन॑र्विशे । प॒शु॒ऽइषे॑ । तु॒राय॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्विध्मा यद्वनधितिरपस्यात्सूरो अध्वरे परि रोधना गोः। यद्ध प्रभासि कृत्व्याँ अनु द्यूननर्विशे पश्विषे तुराय ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽइध्मा। यत्। वनऽधितिः। अपस्यात्। सूरः। अध्वरे। परि। रोधना। गोः। यत्। ह। प्रऽभासि। कृत्व्यान्। अनु। द्यून्। अनर्विशे। पशुऽइषे। तुराय ॥ १.१२१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 121; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे सज्जन त्वया यद्या स्विध्मा वनधितिः कृता यानि गोरोधना कृतानि तैस्त्वमध्वरे कृत्व्याननुद्यून् सूर इवानर्विशे पश्विषे तुराय यद्ध प्रभासि तद्भवान् पर्यपस्यात् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(स्विध्मा) सुष्ठु इध्मा सुखप्रदीप्तिर्यया सा (यत्) या (वनधितिः) वनानां धृतिः (अपस्यात्) आत्मगोऽपांसि कर्माणीच्छेच् (सूरः) प्रेरकः सविता (अध्वरे) अविद्यमानोध्वरो हिंसनं यस्मिन् रक्षणे (परि) सर्वतः (रोधना) रक्षणार्थानि (गोः) धेनोः (यत्) यानि (ह) किल (प्रभासि) प्रदीप्यसे (कृत्व्यान्) कर्मसु साधून्। कृत्वीति कर्मना०। निघं० २। १। (अनु) (द्यून्) दिवसान् (अनर्विशे) अनस्सु शकटेषु विट् प्रवेशस्तस्मै। अत्र वा छन्दसीत्युत्त्वाभावः। (पश्विषे) पशूनामिषे वृद्धीच्छायै (तुराय) सद्यो गमनाय ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पशुपालनवर्द्धनाद्याय वनानि रक्षित्वा तत्रैताञ्चारयित्वा दुग्धादीनि सेवित्वा कृष्यादीनि कर्माणि यथावत् कुर्युस्ते राज्यैश्वर्येण सूर्यइव प्रकाशमाना भवन्ति नेतरे गवादिहिंसकाः ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सज्जन मनुष्य ! तूने (यत्) जो ऐसी उत्तम क्रिया कि (स्विध्मा) जिससे सुन्दर सुख का प्रकाश होता वह (वनधितिः) वनों की धारणा अर्थात् रक्षा किई और जो (गोः) गौ की (रोधना) रक्षा होने के अर्थ काम किये हैं उनसे तू (अध्वरे) जिसमें हिंसा आदि दुःख नहीं हैं उस रक्षा के निमित्त (कृत्व्यान्) उत्तम कामों का (अनु, द्यून्) प्रतिदिन (सूरः) प्रेरणा देनेवाले सूर्यलोक के समान (अनर्विशे) लढ़ा आदि गाड़ियों में जो बैठना होता उसके लिये और (पश्विषे) पशुओं के बढ़ने की इच्छा के लिये और (तुराय) शीघ्र जाने के लिये (यत्) जो (ह) निश्चय से (प्रभासि) प्रकाशित होता है सो आप (पर्यपस्यात्) अपने को उत्तम-उत्तम कामों की इच्छा करो ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य पशुओं की रक्षा और बढ़ने आदि के लिये वनों को राख, उन्हीं में उन पशुओं को चरा, दूध आदि का सेवन कर खेती आदि कामों को यथावत् करें, वे राज्य के ऐश्वर्य से सूर्य के समान प्रकाशमान होते हैं और गौ आदि पशुओं के मारनेवाले नहीं ॥ ७ ॥
विषय
स्विध्मा - वनथिति
पदार्थ
१. (स्विध्मा) = [सु इध्मा] यह व्यक्ति उत्तम ज्ञान - दीप्तिवाला होता है । आचार्य इसकी ज्ञानाग्नि में "पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक' की समिधाएँ डालता है । इन लोकों के पदार्थों के ज्ञान द्वारा इसकी ज्ञानदीप्ति बढ़ती है (यत्) = जब कि यह (वनधितिः) = उस उपासनीय प्रभु में अपने को धारण करता है [वन - उपासनीय] । इस प्रभु में अपने - आपको धारण करता, अर्थात् प्रभु का उपासक बनता हुआ (सूरः) यह ज्ञानी पुरुष (गौः) इन्द्रियों के (रोधना) = निरोध का परिलक्ष्य करके (अध्वरे) = हिंसारहित यज्ञों में (अपस्यात्) = कर्मशील बनता है । कर्मों में लगे रहना ही इन्द्रियों के निरोध का साधन बनता है । अकर्मण्य पुरुष को ही वासनाएँ सताती हैं, इसी की इन्द्रियाँ विषयों में भटकती हैं । २. प्रभु कहते हैं कि (यत्) = जब तू (अनुद्युन्) = प्रतिदिन (ह) = निश्चय से (कृत्व्यान्) = अपने कर्तव्यों को (प्रभासि) = दीप्ति करता है, अर्थात् अपने कर्तव्यकर्मों को करनेवाला बनता है तो (अनर्विशे) = [अनसा विशति] इस शरीररूप शकट के द्वारा अपने लक्ष्यस्थान में प्रवेश के लिए होता है । प्रभु ही हमारा लक्ष्यस्थान है । प्रभु का सर्वोत्तम स्थान हमारा हृदय ही है । यहीं जीव को प्रभु का दर्शन होता है । हम शरीर - शकट के द्वारा हृदय की यात्रा करते हैं, यही अन्तर्मुख यात्रा है । इस अन्तर्मुख यात्रा में आत्मालोचन करते हुए हम (पश्विषे) = पशुओं को ढूंढने के लिए होते हैं । 'कामः पशुः, क्रोधः पशुः' - काम - क्रोधरूप पशुओं को ढूंढनेवाले बनते हैं और (तुराय) = [तुर्वी हिंसायाम्] इन कामादि शत्रुओं के संहार के लिए प्रवृत्त होते हैं । कर्ममय जीवनवाला व्यक्ति आत्मालोचन करता है, अपने दोनों को ढूंढता है और उनका नाश करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - क्रियाशीलता ही जितेन्द्रियता व पवित्रता का साधन है ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
( यद् ) जिस प्रकार ( सूरः ) सूर्य ( स्विध्मा ) उत्तम दीप्ति वाला ( वन-धितिः ) सेवन करने योग्य वृष्टि-जलों को धारण करने में समर्थ होकर (अध्वरे) अन्तरिक्ष में ( परि ) सब ओर ( गोः ) रश्मिसमूह का ( रोधना ) निरोधन अथवा (गोः) पृथ्वी के स्तम्भन आदि ( अपस्यात् ) कार्य करता है और जिस प्रकार ( सूरः ) विद्वान् पुरुष ( स्विध्मा ) उत्तम तेजस्वी होकर ( वनधितिः ) भजन या सेवन करने योग्य एकमात्र प्रभु को ही अपने हृदय में धारण करता हुआ (गोः) इन्द्रियगण के ( रोधना ) नाना प्रकार के निरोध अर्थात् संयम के कार्यों को ( परि अपस्यात् ) अच्छी प्रकार करता है। उसी प्रकार ( सूरः ) सूर्य समान तेजस्वी राजा भी ( स्विध्मा ) उत्तम दीप्ति युक्त अग्नि के समान सुतीक्ष्ण और ( वनधितिः ) वन अर्थात् सेवन करने योग्य भोग्य ऐश्वर्यों को धारण करने वाला होकर ( गोः ) भूमि के ( अध्वरे ) हिंसा रहित धर्म कार्य और प्रजा पालन के कार्य में ( रोधना ) संयम करने के उपायों को ( परि अपस्यात् ) अच्छी प्रकार अनुष्ठान करे। और जिस प्रकार (सूरः) सूर्य ( अनु द्यून् ) दिन प्रतिदिन, निरन्तर ( कृत्व्यान् अनु ) उत्तम अन्धकारों दूर करने वाले प्रकाश के किरणों से ( प्रभासि ) चमकता है उसी प्रकार हे विद्वान् पुरुष ! प्रतिदिन ( कृत्व्यान् अनु ) अपने कर्तव्य कर्मों के अनुरूप ही (प्रभासि) अच्छी प्रकार प्रकाशित हो और (अनर्विशे) शकट से नगर में प्रवेश करने वाले, ( पश्चिषे ) पशुओं को चाहने वाले और ( तुराय ) वेग से यानादि से जाने वाले के लिये ( प्रभासि ) अच्छी प्रकार प्रकाशित हो । अर्थात् इनकी वृद्धि कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ओषिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवता॥ छन्दः– १, ७, १३ भुरिक् पंक्तिः॥ २, ८, १० त्रिष्टुप् ।। ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे पशूंचे रक्षण व वाढ इत्यादींसाठी वनांचे रक्षण करतात व त्यात पशूंना चारतात आणि दूध वगैरेचे सेवन करून शेतीचे काम करतात ते राज्यात सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान व ऐश्वर्यवान होतात. ते गाय इत्यादी पशूंचे हनन करणारे नसतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Noble soul, brave and shining, whatever famous you have done, whatever preservation of forests or cow protection you have achieved, you shine thereby. Now whatever further you wish to do for the sake of transport, animal husbandary or superfast travel try to do for the value of love, non-violence and yajna day in and day out.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good man, thou should always desire to do good deeds, protection of the forests (which act creates the light of happiness) doing all works to preserve and guard the cattle, shine thou like the sun in the non-violent acts and on all days in which noble actions are performed, for the growth of all animals, for yoking the chariots and for rapid locomotion.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्विध्मा) सुष्ठु इध्मा सुखदीप्तिर्यया सा = By which is there the splendour of happiness. (इन्धी-दीप्तौ) Tr. (अध्वरे) अविद्यमान: ध्वरः हिंसनं यस्मिन् रक्षणे = In the act of protection in which there is violence. (पश्विषे) पशूनाम् इषे वृद्धीच्छायै = For the desire of the growth of animals. (इष -इच्छायाम् ) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only those men shine like the sun, with the prosperity of the State who protect the forest for the growth of the cattle and other animals, who make them graze there, who take milk and other nourishing substances and cultivate the land properly and not others who kill the cows and other animals.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal