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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 9
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    इ॒मे ये ते॒ सु वा॑यो बा॒ह्वो॑जसो॒ऽन्तर्न॒दी ते॑ प॒तय॑न्त्यु॒क्षणो॒ महि॒ व्राध॑न्त उ॒क्षण॑:। धन्व॑ञ्चि॒द्ये अ॑ना॒शवो॑ जी॒राश्चि॒दगि॑रौकसः। सूर्य॑स्येव र॒श्मयो॑ दुर्नि॒यन्त॑वो॒ हस्त॑योर्दुर्नि॒यन्त॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । ये । ते॒ । सु । वा॒यो॒ इति॑ । बा॒हुऽओ॑जसः । अ॒न्तः । न॒दी इति॑ । ते॒ । प॒तय॑न्ति । उ॒क्षणः॑ । महि॑ । व्राध॑न्तः । उ॒क्षणः॑ । धन्व॑न् । चि॒त् । ये । अ॒ना॒शवः॑ । जी॒राः । चि॒त् । अगि॑राऽओकसः । सूर्य॑स्यऽइव । र॒श्मयः॑ । दुः॒ऽनि॒यन्त॑वः । हस्त॑योः । दुः॒ऽनि॒यन्त॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे ये ते सु वायो बाह्वोजसोऽन्तर्नदी ते पतयन्त्युक्षणो महि व्राधन्त उक्षण:। धन्वञ्चिद्ये अनाशवो जीराश्चिदगिरौकसः। सूर्यस्येव रश्मयो दुर्नियन्तवो हस्तयोर्दुर्नियन्तवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। ये। ते। सु। वायो इति। बाहुऽओजसः। अन्तः। नदी इति। ते। पतयन्ति। उक्षणः। महि। व्राधन्तः। उक्षणः। धन्वन्। चित्। ये। अनाशवः। जीराः। चित्। अगिराऽओकसः। सूर्यस्यऽइव। रश्मयः। दुःऽनियन्तवः। हस्तयोः। दुःऽनियन्तवः ॥ १.१३५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञा युद्धाय के प्रेषणीया इत्याह ।

    अन्वयः

    हे वायो य इमे ते तव सहायेन बाह्वोजसोऽन्तः सुपतयन्ति तानुक्षणः संपादय य इमे ते तवोपदेशेन महि व्राधन्तः सुपतयन्ति तानुक्षणः कुरु। ये धन्वन्नदी चिदिवानाशवो जीरा अगिरौकसो दुर्नियन्तवो रश्मयः सूर्यस्येव चिद्धस्तयोः प्रतापेन शत्रुभिर्दुर्नियन्तवः सुपतयन्ति तान् सततं सत्कुरु ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (इमे) (ये) (ते) तव (सु) (वायो) विद्वन् (बाह्वोजसः) भुजबलस्य (अन्तः) मध्ये (नदी) नदी इव वर्त्तमानौ (ते) तव (पतयन्ति) पतिरिवाचरन्ति (उक्षणः) सेचनसमर्थान् (महि) महतः (व्राधन्तः) वर्धमानाः। अत्र पृषोदरादिना पूर्वस्याऽऽकारादेशो व्यत्ययेन परस्मैपदं च। (उक्षणः) बलप्रदान् (धन्वन्) धन्वन्यन्तरिक्षे (चित्) (ये) (अनाशवः) अव्याप्ताः (जीराः) वेगवन्तः (चित्) (अगिरौकसः) अविद्यमानया गिरा सहौको गृहं येषां ते। अत्र तृतीयाया अलुक्। (सूर्यस्येव) यथा सवितुः (रश्मयः) किरणाः (दुर्नियन्तवः) दुःखेन नियन्तुं निग्रहीतुं योग्याः (हस्तयोः) भुजयोः (दुर्नियन्तवः) ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। राजपुरुषैर्बाहुबलयुक्ताः शत्रुभिरधृष्यमाणा वीराः पुरुषाः सेनायां सदैव रक्षणीया येन राजप्रतापः सदा वर्द्धेतेति ॥ ९ ॥अत्र मनुष्याणां परस्परवर्त्तमानोक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति पञ्चत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा को युद्ध के लिये कौन पठाने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वायो) विद्वन् ! (ये) जो (इमे) ये योद्धा लोग (ते) आपके सहाय से (बाह्वोजसः) भुजाओं के बल के (अन्तः) बीच (सु, पतयन्ति) पालनेवाले के समान आचरण करते, उनको (उक्षणः) सींचने में समर्थ कीजिये, (ये) जो (ते) आपके उपदेश से (मही) बहुत (व्राधन्तः) बढ़ते हुए अच्छे प्रकार पालनेवाले समान आचरण करते हैं उनको (उक्षणः) बल देनेवाले कीजिये, जो (धन्वन्) अन्तरिक्ष में (नदी) नदी के (चित्) समान वर्त्तमान (अनाशवः) किसी में व्याप्त नहीं (जीराः) वेगवान् (अगिरौकसः) जिनका अविद्यमान वाणी के साथ ठहरने का स्थान (दुर्नियन्तवः) जो दुःख से ग्रहण करने के योग्य वे (रश्मयः) किरण जैसे (सूर्यस्येव) सूर्य को वैसे (चित्) और (हस्तयोः) अपनी भुजाओं के प्रताप से शत्रुओं ने (दुर्नियन्तवः) दुःख से ग्रहण करने योग्य अच्छी पालना करनेवाले के समान आचरण करें, उन वीरों का निरन्तर सत्कार करो ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। राजपुरुषों को चाहिये कि बाहुबलयुक्त शत्रुओं से न डरनेवाले वीर पुरुषों को सेना में सदैव रक्खें, जिससे राज्य का प्रताप सदा बढ़े ॥ ९ ॥इस सूक्त में मनुष्यों का परस्पर वर्त्ताव कहने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥यह १३५ एकसौ पैंतीसवाँ सूक्त और पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सोमकणों का दुर्नियन्तृत्व

    पदार्थ

    १. हे (सु वायो) = शोभन गतिशील जीव ! (इमे ये) = ये जो (ते) = तेरे सोमकण हैं (ते) = वे ही (बाह्वोजसः) = तेरी भुजाओं की शक्ति हैं, इनके कारण ही तेरी भुजाएँ सबल बनती हैं। (ते अन्तर्नदी) = ये नाड़ियों के अन्दर (पतयन्ति) = गति करते हैं। रुधिर के साथ व्याप्त हुए हुए नाड़ियों में प्रवाहित होते हैं। (उक्षण:) = अङ्ग प्रत्यङ्ग में शक्ति का सेचन करनेवाले हैं, (महि व्राधन्तः) = अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होते हुए (उक्षण:) = ये सोमकण शक्ति से सिक्त करनेवाले हैं। २. (धन्वन् चित्) = आकाशमार्ग में भी (ये) = जो सोमकण हैं वे (अनाशवः) = न क्षीण होनेवाले हैं। शरीर में मस्तिष्क ही आकाश है। सोमकण इस मस्तिष्क को भी अपनी व्याप्ति से उज्वल बनाते हैं। (जीराः चित्) = ये शीघ्र गतिवाले हैं, शरीर में स्फूर्ति लानेवाले हैं, (अ-गिरौकसः) = वस्तुतः वाणी इनका (ओकस्) = निवास स्थान नहीं बनती। वाणी से इनकी महिमा का वर्णन सम्भव नहीं। ये (सूर्यस्य) = सूर्य की (रश्मयः इव) = रश्मियों के समान (दुर्नियन्तवः) = बड़ी कठिनता से वश में करने योग्य हैं। सूर्य की रश्मियों का नियमन कौन कर सकता है? इसी प्रकार इन सोमकणों के नियमन की बात है। (हस्तयोः दुर्नियन्तवः) = हाथों से ये वश में नहीं किये जा सकते। ये कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं कि इन्हें हाथों से पकड़ लेंगे। इनका नियमन तो चित्तवृत्ति के निरोध से ही सम्भव है । चित्तवृत्ति के निरोध के लिए की गई प्राणसाधना ही इनकी ऊर्ध्वगति का कारण बनती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमकण शरीर में व्याप्त होकर भुजाओं को शक्ति देते हैं और मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाते हैं। बस, इनका काबू करना ही कठिन है।

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    विषय

    मेघवत् पराक्रमी, ऐश्वर्यवान् पुरुषों को प्रजापालन का उपदेश

    भावार्थ

    हे ( वायो ) वायु के समान बलवान् सेनापते ! ( ये ) जो ( इमे ) ये ( बाह्वोजसः ) बाहु के पराक्रम से युक्त होकर ( नदी अन्तः ) अति समृद्ध प्रजा के बीच ( उक्षणः ) सेचन करने वाले मेघ के समान दानशील और वृषभों के समान बलवान् हैं ( ते ) वे ( सुपतयन्ति ) उत्तम पति होने योग्य हैं। अर्थात् वे प्रजा को भार्या के समान पालन करने में समर्थ होते हैं । जिस प्रकार ( उक्षणः ) मेघ (अन्तः नदी, धन्वन् चित् ) जलमयस्थान और रेगिस्तान दोनों पर स्थिर होकर वर्षा करते हैं उसी प्रकार ( ये ) जो वीर और वे ही ( रक्षणः ) बड़े मेघों और वृषभों के समान ( महि ) बड़े बलशाली होकर ( व्राधन्तः ) बढ़ते हुए, ( नदी अन्तः धन्वन् चित् ) जल स्थल और अन्तरिक्ष में ( अनाशवः ) स्थिर होकर शत्रुओं पर शर वर्षण करने में समर्थ होते हैं वे ही ( अनाशवः ) कभी नाश न होने वाले या अति शीघ्रकारी, चंचल और अस्थिर वृत्ति न होकर, गम्भीर स्थिर, अविचल कूटस्थभाव से रह कर ( अन्तः नदी धन्वन् चित् ) समृद्धि के अवसर और संग्राम में धनुष के कार्य में ( जीराः ) विजय शील होते हैं। और (ते) वे ( अगिरौकसः ) वाणी में भी स्थान नहीं पाते अर्थात् उनका बल पराक्रम भी अवर्णनीय होता है । और वे ( सूर्यस्य रश्मयः इव ) सूर्य की किरणों के समान ( दुर्नियन्तत्रः ) बड़ी कठिनता से वश में आने वाले होकर भी ( हस्तयोः ) हाथों के बल में ( दुर्नियन्तवः ) दुष्ट पुरुषों को भी नियन्त्रण करने में समर्थ हों । वे आप शत्रुओं के वश में न आकर दुष्टों के निग्रह करने में समर्थ हों ।

    टिप्पणी

    उक्त सूक्तों में वायु और इन्द्र का जो वर्णन किया गया है उसका स्वरूप यजुर्वेद के वचनों में स्पष्ट है। ‘इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणः सहस्रभृष्टिः शततेजाः वायुरसि तिग्मतेजाः द्विषतो वधः । ( अ० १। २४ ) इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. राजपुरुषांनी बलवान शत्रूंना न घाबरणाऱ्या वीर पुरुषांना सदैव सेनेत बाळगावे. ज्यामुळे राज्याचा पराक्रम वाढेल. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These warriors of yours, strong of arm and virile they are. Generous and creative, they sanctify the earth. They fly in space between earth and heaven, and, themselves rising in glory, they add to the glory of earth and heaven. Rising to the stars like the winds they are steady and self-restrained. Impetuous as they are like the winds, their rest and home is beyond words. Untamable they are like the sunbeams, and awful to handle by the hands.

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