ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 3
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
यु॒वां स्तोमे॑भिर्देव॒यन्तो॑ अश्विनाऽऽश्रा॒वय॑न्त इव॒ श्लोक॑मा॒यवो॑ यु॒वां ह॒व्याभ्या॒३॒॑यव॑:। यु॒वोर्विश्वा॒ अधि॒ श्रिय॒: पृक्ष॑श्च विश्ववेदसा। प्रु॒षा॒यन्ते॑ वां प॒वयो॑ हिर॒ण्यये॒ रथे॑ दस्रा हिर॒ण्यये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वाम् । सोमे॑भिः । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ॒श्रा॒वय॑न्तःऽइव । श्लोक॑म् । आ॒यवः॑ । यु॒वाम् । ह॒व्या । अ॒भि । आ॒यवः॑ । यु॒वोः । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । पृक्षः॑ । च॒ । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सा॒ । प्रु॒षा॒यन्ते॑ । वा॒म् । प॒वयः॑ । हि॒र॒ण्यये॑ । रथे॑ । द॒स्रा॒ । हि॒र॒ण्यये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवां स्तोमेभिर्देवयन्तो अश्विनाऽऽश्रावयन्त इव श्लोकमायवो युवां हव्याभ्या३यव:। युवोर्विश्वा अधि श्रिय: पृक्षश्च विश्ववेदसा। प्रुषायन्ते वां पवयो हिरण्यये रथे दस्रा हिरण्यये ॥
स्वर रहित पद पाठयुवाम्। सोमेभिः। देवऽयन्तः। अश्विना। आश्रावयन्तःऽइव। श्लोकम्। आयवः। युवाम्। हव्या। अभि। आयवः। युवोः। विश्वाः। अधि। श्रियः। पृक्षः। च। विश्वऽवेदसा। प्रुषायन्ते। वाम्। पवयः। हिरण्यये। रथे। दस्रा। हिरण्यये ॥ १.१३९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना श्लोकमाश्रावयन्त इव स्तोमेभिर्युवां देवयन्तो जना युवामभि हव्यायवो न केवलमेतदेवापि तु हे दस्रा विश्ववेदसा यथा वां हिरण्यये रथे पवयः प्रुषायन्ते तथा युवोः सहायेन हिरण्यये रथे विश्वा अधिश्रियः पृक्षश्चायवोऽभूवन् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(युवाम्) (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (देवयन्तः) कामयमानाः (अश्विना) विद्यान्यायप्रकाशकौ (आश्रावयन्त इव) समन्तात् श्रवणं कारयन्त इव (श्लोकम्) युवयोर्यशः (आयवः) प्राप्नुवन्तः (युवाम्) (हव्या) आदातुमर्हाणि होमद्रव्याणि (अभि) (आयवः) (युवोः) युवयोः (विश्वाः) अखिलाः (अधि) अधिकाः (श्रियः) लक्ष्म्यः (पृक्षः) अन्नम् (च) (विश्ववेदसा) विश्वं वेदो ज्ञानं ययोस्तौ (प्रुषायन्ते) मधूनि स्रवन्ति (वाम्) युवयोः (पवयः) चक्राणि (हिरण्यये) सुवर्णमये (रथे) रमणसाधने याने (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (हिरण्यये) सुवर्णमये ॥ ३ ॥
भावार्थः
ये पूर्णविद्यावाप्तौ विद्वांसावाश्रयन्ति ते धनधान्यैश्वर्य्यैः पूर्णा जायन्ते ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों के विषय में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) विद्या और न्याय का प्रकाश करनेवाले विद्वानो ! (श्लोकम्) तुम्हारे यश का (आश्रावयन्त इव) सब ओर से श्रवण करते हुए से (स्तोमेभिः) स्तुतियों से (युवाम्) तुम्हारी (देवयन्तः) कामना करते हुए जन (युवाम्) तुम्हारे (अभि) सम्मुख (हव्या) लेने योग्य होम के पदार्थों को (आयवः) प्राप्त हुए, फिर केवल इतना ही नहीं किन्तु हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे (विश्ववेदसा) समग्र ज्ञानयुक्त उक्त विद्वानो ! जैसे (वाम्) तुम्हारे (हिरण्यये) सुवर्णमय (रथे) विहार की सिद्धि करनेवाले रथ में (पवयः) चाक वा पहिये के समान (प्रुषायन्ते) मधुरपने आदि को भरते हैं वैसे (युवोः) तुम्हारे सहाय से (हिरण्यये) सुवर्णमय रथ में (विश्वाः) समग्र (अधि) अधिक (श्रियः) सम्पत्तियों को (च) और (पृक्षः) अन्नादि पदार्थों को (आयवः) प्राप्त हुए हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो पूर्ण विद्या की प्राप्ति निमित्त विद्वानों का आश्रय करते हैं, वे धन-धान्य और ऐश्वर्य आदि पदार्थों से पूर्ण होते हैं ॥ ३ ॥
विषय
सब श्रियों के आधारभूत 'प्राणापान'
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (देवयन्तः) = दिव्य गुणों को अपनाने की इच्छा करते हुए (आयवः) = मनुष्य [एतीति आयुः] (युवाम्) = आप दोनों को (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (श्लोकं श्रावयन्तः इव) = आपके यश को सर्वत्र सुनाते हुए से होते हैं। प्राणापान के यश का गायन इसी उद्देश्य से है कि हम इनके महत्त्व को समझकर इनकी साधना में प्रवृत्त हों। (आयवः) = ये क्रियाशील मनुष्य (युवाम्) = आप दोनों को हव्या हवि के द्वारा-यज्ञिय पवित्र पदार्थों के यज्ञशेष के रूप में सेवन के द्वारा (अभ्यायवः) = आभिमुख्येन प्राप्त होनेवाले होते हैं। यज्ञिय-सात्त्विक पदार्थों का सेवन प्राणापान की शक्ति को बढ़ाने का प्रमुख साधन है। २. हे विश्ववेदसा सम्पूर्ण धनों को प्राप्त करानेवाले प्राणापानो! (युवोः अधि) = आपमें ही (विश्वाः श्रियः) = सब (श्री च पृक्षः) = और अन्न निवास करते हैं। प्राणापान की शक्ति प्रवृद्ध होने पर ही सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग श्रीसम्पन्न बनते हैं तथा ये प्राणापान ही अन्न-पाचन में सहायक होते हैं। ३. हे (दस्त्रा) = सब दोषों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो! वाम् आपकी ही (पवय:) = [the tire of a wheel] नेमियाँ इस (हिरण्यये) = ज्ञान-ज्योति से दीप्त (रथे) = शरीररूप रथ में सचमुच (हिरण्यये) ज्योतिर्मय होने से मानो स्वर्ण-निर्मित रथ में (प्रुषायन्ते) = पूरित होती हैं ( प्रुष पूरणे)। शरीर रथ है तो प्राणापान इस रथ की चक्रनेमियाँ हैं। इन नेमियों की दृढ़ता पर ही-चक्रों की दृढ़ता निर्भर है और इन चक्रों की ठीक होने पर ही रथ की अग्रगति सम्भव है। एवं, ये प्राणापान ही हमें, शरीर रथ को ठीक रखकर, लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान की साधना शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग को शोभायुक्त बनाती है और शरीररथ को ठीक रखकर इसे लक्ष्यस्थान पर पहुँचाती है।
विषय
उत्तम स्त्री पुरुषों के प्रति अन्य जनों के सद्व्यवहार का उपदेश ।
भावार्थ
हे (अश्विना) राष्ट्र का भोग करने वाले, विद्याओं में व्यापक उत्तम स्त्री पुरुषो ! ( युवां ) तुम दोनों ( स्तोमेभिः ) स्तुतियों से ( देवयन्तः ) चाहते हुए ( अभि आयवः ) सन्मुख आने वाले ( आयवः) विद्वान् पुरुष (श्लोकं) वेदवाणी को ( आश्रावयन्तः ) श्रवण कराते वा उपदेश करते हुए ( इव ) मानो ( युवां ) तुम दोनों को ( हव्य-अभि आयवः ) ग्रहण करने योग्य ज्ञान प्राप्त कराते हैं और ( पवयः ) वे पवित्र करने हारे मानो ( वां ) तुम दोनों के ( हिरण्यये रथे ) सुन्दर सुवर्ण लोहादि के बने रथके समान या (हिरण्यये रथे) हित और रमणीय देह पर मानो (प्रुषायन्ते) मधुर या जल मधु वर्षण करते हैं । हे (दस्त्रा) दर्शनीय एवं दुःखों के नाश करने वालो ! हे ( विश्ववेदसा ) समस्त प्रकार के ऐश्वर्य और ज्ञानों के स्वामियो ! ( विश्वाः श्रियः ) सब प्रकार की लक्ष्मियें और ( पृक्षः च ) अन्न आदि योग्य सम्पत्ति और सबके साथ स्नेह ( युवोः अधि ) तुम दोनों का ही अधिक, सर्वोपरि रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे पूर्ण विद्येच्या प्राप्तीसाठी विद्वानांचा आश्रय घेतात त्यांना धनधान्य व ऐश्वर्य इत्यादी पदार्थ पूर्णपणे प्राप्त होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, lords and harbingers of light and the light of wealth and knowledge, mortal men loving and dedicated to you, celebrating your divinity with words of praise and singing songs to you in your honour, do homage to you with holy offerings. Lords of universal knowledge, yours are the wealth and beauty and all resources of the world you rule over. Generous lords and protectors, graceful in your chariot, the golden wheels of the chariot shower and sanctify you with the golden beams of radiance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of learned persons are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men ! you are the harbingers of knowledge and justice. Persons who possess an urge to glorify you with their praises and want to have your company, they come to you with their oblations in the Yajna. We seek your help in it. You ward off all miseries and are endowed with complete knowledge. Like honey, you speak sweet and purposeful. With your help, a man can get all sorts of wealth during his life journey.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Persons taking cue from enlightened men get all kinds of wealth and prosperity along with ideal food.
Foot Notes
(श्लोकम्) यश:- Glory or Reputation. (दश्रा) दुःखोपेक्षेनारः - Destroyers of all miseries. (पृक्ष:) अन्नम् = Food. (पवय:)
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