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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - देव्योद्वारः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    वि श्र॑यन्तामृता॒वृध॑: प्र॒यै दे॒वेभ्यो॑ म॒हीः। पा॒व॒कास॑: पुरु॒स्पृहो॒ द्वारो॑ दे॒वीर॑स॒श्चत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । श्र॒य॒न्ता॒म् । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । प्र॒ऽयै । दे॒वेऽभ्यः॑ । म॒हीः । पा॒व॒कासः॑ । पु॒रु॒ऽस्पृहः॑ । द्वारः॑ । दे॒वीः । अ॒स॒श्चतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि श्रयन्तामृतावृध: प्रयै देवेभ्यो महीः। पावकास: पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। श्रयन्ताम्। ऋतऽवृधः। प्रऽयै। देवेऽभ्यः। महीः। पावकासः। पुरुऽस्पृहः। द्वारः। देवीः। असश्चतः ॥ १.१४२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या देवेभ्यो याः पावकास ऋतावृधः पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चतो महीः प्रयै विद्वांसः कामयन्ते ता भवन्तो विश्रयन्ताम् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (वि) (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (ऋतावृधः) ऋतेन सत्येनाचरणेन विज्ञानेन च वृद्धाः (प्रयै) प्रयितुम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (महीः) पूज्यतमा वाचः पृथिवी वा। महीति पृथिवीना०। निघं० १। १। महीति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (पावकासः) पवित्रकारिकाः (पुरुस्पृहः) याः पुरुभिः स्पृह्यन्त ईप्स्यन्ते ताः (द्वारः) द्वार इव सुशोभिताः (देवीः) कमनीयाः (असश्चतः) परस्परं विलक्षणाः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वेषामुपकाराय विद्यासुशिक्षिता वाचो रत्नकर्यो भूमयश्च कमितव्याः। तदाश्रयेण पवित्रता संपादनीया ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये जो (पावकासः) पवित्र करनेवाली (ऋतावृधः) सत्य आचरण और उत्तम ज्ञान से बढ़ाई हुई (पुरुस्पृहः) बहुतों से चाहीं जातीं (द्वारः) द्वारों के समान (देवीः) मनोहर (असश्चतः) परस्पर एक दूसरे से विलक्षण (महीः) प्रशंसनीय वाणी वा पृथिवी जिनकी (प्रयै) प्रीति के लिये विद्वान् जन कामना करते उनका आप लोग (विश्रयन्ताम्) विशेषता से आश्रय करें ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को सबके उपकार के लिये विद्या और अच्छी शिक्षायुक्त वाणी और रत्नों को प्रसिद्ध करनेवाली भूमियों की कामना करनी चाहिये और उनके आश्रय से पवित्रता संपादन करनी चाहिये ॥ ६ ॥

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    विषय

    इन्द्रिय-द्वार

    पदार्थ

    १. हमारे इस शरीर मन्दिर में (देवी: द्वार:) = दिव्यगुणोंवाले व सब व्यवहारों को सिद्ध करनेवाले इन्द्रिय द्वार (विश्रयन्ताम्) = विशेषरूप से आश्रय करनेवाले हों। ये द्वार (देवेभ्यः प्रयै) = देवों के प्रकृष्ट प्रापण के लिए हों। इन द्वारों से हममें देवों का प्रवेश हो, दिव्यगुणों की वृद्धि हो । (ऋतावृधः) = ये द्वार हमारे जीवन में ऋत का वर्धन करनेवाले हों। इनसे हम यज्ञादि [ऋत यज्ञ] उत्तम कर्मों को सिद्ध करें। (मही:) = [मह पूजायाम्] ये प्रभु का पूजन करनेवाले हों। ये द्वार (पावकासः) = हमारे जीवनों की पवित्रता का कारण बनें, (पुरुस्पृहः) = अपने सौन्दर्य के कारण अत्यन्त स्पृहणीय हों, असश्चतः [not defeated or overcome] ये विषयों से पराभूत न हों । हमारी इन्द्रियाँ विषयों से अनाक्रान्त बनी रहें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे इन्द्रिय-द्वार 'ऋत', दिव्यता व प्रभुपूजा को हममें प्रविष्ट करानेवाले हों।

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    विषय

    द्वारों के समान, स्त्रियों, प्रजाओं और सेनाओं का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( महीः द्वारः ) जिस प्रकार बड़े बड़े द्वार ( देवेभ्यः प्रयै ) विद्वानों और व्यवहारवान् पुरुषों के आने जाने के लिये विविध प्रकार से खड़े किये जाते हैं उसी प्रकार ( द्वारः ) शत्रुओं का और बुरे कर्मों का वारण करने वाली ( ऋतावृधः देवीः महीः ) सत्याचरण को बढ़ाने वाली, पूज्य स्त्रियें, नलादि अर्थात् अन्न और धन से प्रजा को समृद्ध करनेवाली उत्तम उपजाऊ और रसमयी भूमियें, और विजयशालिनी ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली बड़ी बड़ी सेनाएं ( देवेभ्यः ) विद्वानों को पाने और व्यवहारज्ञों के योग और विजयेच्छुओं के प्रयोग के लिये ( वि श्रयन्ताम् ) विशेष रूप से प्राप्त हों, सेवन की जायें, और वे ( पावकासः ) स्वयं पवित्र और अन्यों को पवित्र करने वाली, और ( असश्चतः ) अनासक्त, विलक्षण, और अन्यों से उपयुक्त या अन्यों के अधीन न हो । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सर्वांच्या उपकारासाठी विद्या व सुशिक्षणयुक्त वाणी तसेच रत्न देणाऱ्या भूमीची कामना केली पाहिजे व त्यांच्या आश्रयाने पवित्रता प्राप्त केली पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In order to rise to the brilliance of the sages and towards the heights of divinity, take recource to the veteran pioneers of Truth, pure purifiers of the spirit, and the great and distinctive voices of the sages universally loved and wanted, and join their paths of action like entering the doors of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    One should acquire learning, land, and wealth, and should intensify purity.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should acquire purifying language and lands. Indeed, you are great on account of truthful conduct and special knowledge. Good people and donors love people like you, who are charming and varying but respectable. The masses like and adore such personalities for their own good and desire for satisfaction.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should seek for a refined and cultured speech and good lands, gems and jewels but should cultivate purity with their aid.

    Foot Notes

    (मही) पूज्यतमा वाचः पृथिवी वा = Adorable speech or earth. (देवी:) कमनीयाः – Desirable or charming (असश्चतः ) परस्परं विलक्षणाः = Different from one another.

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