ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 142/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - दैव्यौ होतारौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
म॒न्द्रजि॑ह्वा जुगु॒र्वणी॒ होता॑रा॒ दैव्या॑ क॒वी। य॒ज्ञं नो॑ यक्षतामि॒मं सि॒ध्रम॒द्य दि॑वि॒स्पृश॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्द्रऽजि॑ह्वा । जु॒गु॒र्वणी॒ इति॑ । होता॑रा । दैव्या॑ । क॒वी । य॒ज्ञम् । नः॒ । य॒क्ष॒ता॒म् । इ॒मम् । सि॒ध्रम् । अ॒द्य । दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्द्रजिह्वा जुगुर्वणी होतारा दैव्या कवी। यज्ञं नो यक्षतामिमं सिध्रमद्य दिविस्पृशम् ॥
स्वर रहित पद पाठमन्द्रऽजिह्वा। जुगुर्वणी इति। होतारा। दैव्या। कवी। यज्ञम्। नः। यक्षताम्। इमम्। सिध्रम्। अद्य। दिविऽस्पृशम् ॥ १.१४२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 142; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथाऽद्य मन्द्रजिह्वा जुगुर्वणी होतारा दैव्या कवी मेधाविनावध्यापकोपदेशकौ न दिविस्पृशं सिध्रमिमं यज्ञं यक्षतां तथा यूयमपि सङ्गच्छध्वम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(मन्द्रजिह्वा) मन्द्रा प्रशंसिता जिह्वा ययोस्तौ (जुगुर्वणी) अत्यन्तमुद्यमिनौ (होतारा) आदातारौ (दैव्या) देवेषु दिव्येषु गुणेषु भवौ (कवी) विक्रान्तप्रज्ञौ (यज्ञम्) विद्यादिप्राप्तिसाधकं व्यवहारम् (नः) अस्मभ्यम् (यक्षताम्) संयच्छेते (इमम्) (सिध्रम्) मङ्गलकरम् (अद्य) अस्मिन् दिने (दिविस्पृशम्) प्रकाशे स्पर्शनिमित्तम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो धर्म्येण व्यवहारेण सह सङ्गता भवन्ति तथेतरैरपि भवितव्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अद्य) आज (मन्द्रजिह्वा) जिनकी प्रशंसित जिह्वा है वे (जुगुर्वणी) अत्यन्त उद्यमी (होतारा) ग्रहण करनेवाले (दैव्या) दिव्य गुणों में प्रसिद्ध (कवी) प्रबल प्रज्ञायुक्त अध्यापक और उपदेशक लोग (नः) हम लोगों के लिये (दिविस्पृशम्) प्रकाश में संलग्नता कराने तथा (सिध्रम्) मङ्गल करनेवाले (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्यादि की प्राप्ति के साधक व्यवहार का (यक्षताम्) सङ्ग करते हैं, वैसे तुम भी सङ्ग करो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन धर्मयुक्त व्यवहार के साथ परस्पर सङ्ग करते हैं, वैसे साधारण मनुष्यों को भी होना चाहिये ॥ ८ ॥
विषय
दैव्य होतारा [प्राणापान]
पदार्थ
१. इस शरीर में प्राणापान दैव्य होता है। आँख आदि इन्द्रियाँ होता है, परन्तु ये आँख आदि सब होता सो जाते हैं, किन्तु जीवनयज्ञ की रक्षा के लिए प्राणापान सदा जागते रहते हैं। ये प्राणापान ही अन्ततः प्रभु-उपासन का साधन बनते हैं। ये प्राणापान (मन्द्रजिह्वा) = आनन्दप्रद [pleasing] व प्रशंसनीय [praiseworthy] जिह्वावाले हों, अर्थात् प्राणापान की साधना से हम वाणी से सदा शुभ शब्दों को ही बोलनेवाले हों। (जुगुर्वणी) = ये प्राणापान प्रभु का गायन व उपासन करनेवाले हों [वन्-उपासन], (दैव्या होतारा) = इस जीवनयज्ञ के ये दिव्य होता हों— कभी न थकनेवाले तथा उस देव तक पहुँचानेवाले (कवी) = ये क्रान्तदर्शी हों। इनकी साधना हमें इस प्रकार तीव्र बुद्धिवाला बनाए कि हम तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकें। २. ये प्राणापान (अद्य) = आज (नः) = हमारे (इमम्) = इस (यज्ञम्) = जीवनयज्ञ को (यक्षताम्) = सिद्ध करें जोकि (सिध्रम्) = फल-साधनभूत हो, अर्थात् सफल हो, 'व्यर्थ ही रहा' - ऐसा प्रतीत न हो तथा (दिविस्पृशम्) = ज्योतिस्वरूप प्रभु में हमारा स्पर्श करानेवाला हो। प्राणापान के द्वारा हम इस जीवन को यज्ञात्मक बनाते हुए प्रभु को प्राप्त करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान इस जीवनयज्ञ के दिव्य होता हैं। ये इस जीवन को सफल करते हैं तथा हमें प्रभुप्राप्ति के योग्य बनाते हैं।
विषय
देव्य होता, विद्वानों का कर्त्तव्य । (
भावार्थ
( मन्द्रजिह्वा ) अति हर्ष उत्पन्न करने वाली, उत्तम वाणी वाले, ( जुगुर्वणी ) निरन्तर उद्यमशील, और अध्ययनशील ( होतारा ) ज्ञान के दान और ग्रहण करने वाले ( दैव्या ) विद्वानों में प्रसिद्ध और उत्तम गुणों के धारण करने वाले, ( कवी ) दूरदर्शी, विद्वान् ( नः ) हमारे ( इमं ) इस ( सिध्रम् ) सब कार्यों के साधक ( दितिस्पृशम् ) सब कामनाओं और ज्ञान को प्रदान करने वाले ( यज्ञं ) यज्ञ, श्रेष्ठकर्म और परस्पर सत्संग, मैत्री भाव ( यक्षताम् ) करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता—१, २, ३, ४ अग्निः । ५ बर्हिः । ६ देव्यो द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ दैव्यौ होतारौ । ६ सरस्वतीडाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतिः । १३ इन्द्रश्च ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ८,९ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडनुष्टुप् । ३, ७, १०, ११, १२ अनुष्टुप् । १३ भुरिगुष्णिक् ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक धर्मयुक्त व्यवहाराने परस्पर संगती करतात, तसे सामान्य माणसांनीही असावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the divine poets and visionaries, holy yajakas, soft and sweet of sacred speech and eloquence, come and join us today in this auspicious yajna of ours, the fragrance of which, with their chant, rises to the heavens.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A common man should emulate the learned one.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
An ideal teacher and a preacher are sweet tongued, industrious, acceptors of noble virtues and of divine qualities. They perform YAJNA in the form of the learning and dissemination of knowledge. It is an auspicious and rewarding act. We all should follow the same path.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Like learned persons, we should act rightly.
Foot Notes
(जुगुर्वणी) अत्यन्त मुद्यमिनौ = Very industrious (सिध्रम) मंगलकारकम् — Auspicious or beneficial. (यजम्) विद्या दिप्राप्तिसाधकं व्यवहारम् = Acquisition and propagation of knowledge.
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