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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 150 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 150/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    व्य॑नि॒नस्य॑ ध॒निन॑: प्रहो॒षे चि॒दर॑रुषः। क॒दा च॒न प्र॒जिग॑तो॒ अदे॑वयोः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒नि॒नस्य॑ । ध॒निनः॑ । प्र॒ऽहो॒षे । चि॒त् । अर॑रुषः । क॒दा । च॒न । प्र॒ऽजिग॑तः । अदे॑वऽयोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यनिनस्य धनिन: प्रहोषे चिदररुषः। कदा चन प्रजिगतो अदेवयोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। अनिनस्य। धनिनः। प्रऽहोषे। चित्। अररुषः। कदा। चन। प्रऽजिगतः। अदेवऽयोः ॥ १.१५०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 150; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    अहमदेवयोः प्रजिगतो अररुषो व्यनिनस्य धनिनः प्रहोषे कदा चनाऽप्रियं न वोचे। एवं चिदपि त्वं मा वोचेः ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (वि) (अनिनस्य) यत्प्रशस्तं प्राणनिमित्तं तस्य (धनिनः) बहुधनयुक्तस्य (प्रहोषे) यो जुहोति तस्मै (चित्) अपि (अररुषः) अहिंसकस्य (कदा) (चन) (प्रजिगतः) प्रकर्षेण भृशं प्राप्नुतः। अत्र यङन्तात् परस्य लटः शतृ यङो लुक् वाच्छन्दसीति अभ्यासस्येत्वम्। (अदेवयोः) न देवौ अदेवौ तयोरदेवयोः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    योऽविदुषोरध्यापकोपदेशकयोः संगं त्यक्त्वा विदुषोः सङ्गं करोति स सुखाढ्यो जायते ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    मैं (अदेवयोः) जो नहीं विद्वान् हैं उनको (प्रजिगतः) जो उत्तमता से निरन्तर प्राप्त होता हुआ (अररुषः) अहिंसक (व्यनिनस्य) विशेषता से प्रशंसित प्राण का निमित्त (धनिनः) बहुत धनयुक्त जन है उसके (प्रहोषे) उसको अच्छे ग्रहण करनेवाले के लिये (कदा, चन) कभी अप्रिय वचन न कहूँ ऐसे (चित्) तू भी मत बोल ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जो अविद्वान् पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के सङ्ग को छोड़ विद्वानों का सङ्ग करता है, वह सुखों से युक्त होता है ॥ २ ॥

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    विषय

    चाबुक का प्रहार किन पर ?

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में प्रभु को 'तोद' = चाबुक का प्रहार करनेवाला कहा गया था। यह कष्टों के रूप में चाबुक का प्रहार प्रभु किन व्यक्तियों पर करते हैं - [क] (धनिनः) = धनी पुरुष के जो धनी (व्यनिनस्य) = उस धन का स्वामी नहीं है। जब हम धन के दास बन जाते हैं, धनार्जन ही हमारे जीवन का लक्ष्य हो जाता है, हम एक धन कमाने के साधन money-making-machine ही बन जाते हैं, तब हम धन के स्वामी नहीं रहते। उस समय धन हमारा स्वामी हो जाता है, और हम धन के वहन करनेवाले - बोझ ढोनेवाले ही हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में 'Death unloads thee'. मौत ही हमारे बोझ को उतारती है। प्रभु इन 'व्यनिन धनियों' को चाबुक लगानेवाले हैं। २. [ख] (प्रहोषे) = प्रकृष्ट आहुति देने के कार्यों में, अर्थात् यज्ञादि उत्तम कार्यों में (चित्) = भी (अररुषः) = दान न देनेवाले को चाबुक लगाते हैं । धनी होते हुए भी जो यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों में दान नहीं देता, वह प्रभु से दण्डनीय होता है। ३. [ग] (कदा च) = कभी भी (न प्रजिगतः) = प्रभु गुणगान न करनेवाले को आप दण्ड देनेवाले होते हैं। जो प्रभुविमुख होकर प्राकृतिक भोगों में फँसकर वैषयिक वृत्ति का बन जाता है, वह विविध रोगों के रूप में प्रभु से दण्डनीय होता है । ४ [घ] (अदेवयोः) = आप अदेवयु पुरुष के चाबुक लगानेवाले हो । जो दिव्य गुणों के विकसित करने की कामनावाला नहीं होता, जिनके हृदयक्षेत्र में आसुरभावरूपी घास-फूस ही प्रचुरता से उग आती है, उस व्यक्ति को भी आप दण्ड देते हो। इन कष्टरूप दण्डों से प्रेरित करके आप उन्हें सुमार्ग पर लौटने की प्रेरणा देते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम चार पापों से बचने का प्रयत्न करें - (१) धन होते हुए धन का स्वामी न बनकर दास बन जाना, (२) यज्ञादि उत्कृष्ट कार्यों में दान न देना, (३) प्रभुस्तवन से दूर रहना,और (४) दिव्यगुणों के विकास के लिए प्रयत्न न करना ।

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    विषय

    अल्हादक प्रभु की शरण ।

    भावार्थ

    ( अदेव-योः ) जो न विद्या का दान दे सके और न धन का दान दे सके वे दोनों दान न देने के कारण ‘अदेव’ हैं, उन दोनों में से जो ( धनिनः अनिनस्य ) धनवान् होकर भी उस धन के भोग और में समर्थ नहीं है उसके और ( प्रहोषे चित् अररुषः ) उत्तम रीति से दान और उपभोग में न लगाने हारे ( प्र जिगतः ) उत्तम पद पर प्राप्त या बात बहुत बनाने वाले के विषय में भी मैं ( कढ़ा च न ) कभी (विवोचे) विशेष स्तुति वचन नहीं कहता । अथवा ( अदेवयोः ) अदानशील पुरुषों में से ( अनिनः ) उत्तम प्राणों के स्वामी ( धनिनः ) धन के प्रभु ( प्रहोषे चित् अररुषः ) प्रदान के काल में भी रोष और क्रोध से रहित ( प्र जिगतः ) उत्तम पद को प्राप्त पुरुष के लिये मैं ( कदा च न विवोचे ) कभी विपरीत वचन न कहूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३ भुरिग्गायत्री । २ निचृदुष्णिक् ॥ तृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अयोग्य शिकविणाऱ्यांची व उपदेश करणाऱ्यांची संगत सोडून जो विद्वानांची संगत करतो, तो सुखी होतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And I would not care to join the company of the admirer of the rich not dedicated to the divinities and to the lord of light, Agni, even though he be otherwise non-violent.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the glory of God.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let you condemn a man who imparts education to an undeserving person. A right man is always nonviolent and he leads a good and powerful life and possesses much wealth (of wisdom) performing Yajnas etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man becomes full of joys, who gives up the association of the teacher and preacher who are not highly learned and keeps association with great scholars.

    Foot Notes

    (व्यनिनः ) यत् प्रशस्तं प्राणनिमित्तं तस्य = Of a man leading good life. (अररुष:) = Of the non-violent.

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