ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 155/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसी॒नस्य॑ त्रा॒तुर॑वृ॒कस्य॑ मी॒ळ्हुष॑:। यः पार्थि॑वानि त्रि॒भिरिद्विगा॑मभिरु॒रु क्रमि॑ष्टोरुगा॒याय॑ जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत्ऽत॑त् । इत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् । गृ॒णी॒म॒सि॒ । इ॒नस्य॑ । त्रा॒तुः । अ॒वृ॒कस्य॑ । मी॒ळ्हुषः॑ । यः । पार्थि॑वानि । त्रि॒ऽभिः । इत् । विगा॑मऽभिः । उ॒रु । क्रमि॑ष्ट । उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुष:। यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठतत्ऽतत्। इत्। अस्य। पौंस्यम्। गृणीमसि। इनस्य। त्रातुः। अवृकस्य। मीळ्हुषः। यः। पार्थिवानि। त्रिऽभिः। इत्। विगामऽभिः। उरु। क्रमिष्ट। उरुऽगायाय जीवसे ॥ १.१५५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 155; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो विगामभिस्त्रिभिरुरुगायाय जीवसे यद्यत् पार्थिवानीदुरु क्रमिष्ट तत्तत् त्रातुरिनस्येवास्यावृकस्य मीढुषः पौंस्यमिद्वयं गृणीमसि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(तत्तत्) (इत्) एव (अस्य) कृतब्रह्मचर्यस्य जितेन्द्रियस्य (पौंस्यम्) पुरुषार्थस्य भावम् (गृणीमसि) स्तुमः (इनस्य) समर्थस्येश्वरस्य (त्रातुः) रक्षकस्य (अवृकस्य) चौर्यादिदोषरहितस्य (मीढुषः) वीर्यसेचकस्य (यः) (पार्थिवानि) पृथिवीविकारजातानि (त्रिभिः) सत्वादिगुणैः (इत्) एव (विगामभिः) विविधप्रशंसायुक्तैः (उरु) बहु (क्रमिष्ट) क्रमते (उरुगायाय) बहुप्रशंसिताय (जीवसे) जीवनाय प्राणधारणाय ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सुखेन चिरंजीवनाय दीर्घं ब्रह्मचर्यं संसेव्यारोग्येण धातुसाम्यवर्द्धनेन शरीरबलं विद्याधर्मयोगाभ्यासवर्द्धनेनाऽऽत्मबलमुन्नीय सदैव सुखे स्थातव्यम्। य इमामीश्वराज्ञां पालयन्ति ते बाल्यावस्थायां स्वयंवरविवाहं कदाचिन्न कुर्वन्ति नैतेन विना पूर्णा पुरुषार्थवृद्धिः संभवति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो (विगामभिः) विविध प्रशंसायुक्त (त्रिभिः) तीन सत्व, रजस्, तमोगुणों के साथ (उरुगायाय) बहुत प्रशंसित (जीवसे) जीवन के लिये (पार्थिवानि) पृथिवी के विकारों से उत्पन्न हुए (इत्) ही पदार्थों को (उरु, क्रमिष्ट) क्रम से अत्यन्त प्राप्त होता है (तत्तत्) उस उस (त्रातुः) रक्षा करनेवाले (इनस्य) समर्थ ईश्वर के समान (अस्य) किये हुए ब्रह्मचर्य जितेन्द्रिय इस (अवृकस्य) चोरी आदि दोषरहित (मीढुषः) वीर्य सेचन समर्थ पुरुष के (पौंस्यम्) पुरुषार्थ की (इत्) ही हम लोग (गृणीमसि) प्रशंसा करते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सुख से चिरकाल तक जीवने के लिये दीर्घ ब्रह्मचर्य को अच्छे प्रकार सेवन कर आरोग्य और धातुओं की समता बढ़ाने से शरीर के बल और विद्या, धर्म तथा योगाभ्यास के बढ़ाने से आत्मबल की उन्नति कर सदैव सुख में रहें। जो लोग इस ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे बाल्यावस्था में स्वयंवर विवाह कभी नहीं करते, इसके विना पूर्ण पुरुषार्थ की वृद्धि की संभावना नहीं है ॥ ४ ॥
विषय
इन, त्राता, अवृक मीढ्द्वान्
पदार्थ
१. (अस्य) = इस सर्वव्यापक विष्णु के (इत्) = निश्चय से (तत् तत्) = उस उस प्रसिद्ध (पौंस्यम्) = पराक्रम को (गृणीमसि) = हम स्तुत करते हैं, जो प्रभु (इनस्य) = सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, (त्रातुः) = सारे ब्रह्माण्ड का रक्षण करनेवाले हैं, (अवृकस्य) = [वृक आदाने] हमसे कुछ लेनेवाले नहीं - किसी प्रकार के स्वार्थ के बिना हमारा हित करनेवाले हैं, (मीळ्हुष:) = सबपर सुखों का सेचन करनेवाले हैं। प्रभु की प्रत्येक क्रिया जनहित के लिए ही है। २. प्रभु वे हैं जो कि (इत्) = निश्चय से (त्रिभिः) = तीन (विगामभिः) - विशिष्ट गमनों के द्वारा (पार्थिवानि) = इन पार्थिव लोकों को (उरु क्रमिष्ठ) = खूब ही [क्रम् = to pervade, to fill] व्याप्त किये हुए हैं, उस (उरुगायाय) = विशाल गमनोंवाले प्रभु के लिए हम स्तवन करते हैं ताकि (जीवसे) = हम प्रकृष्ट जीवन बिता सकें, अथवा दीर्घजीवन प्राप्त करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का उपासक भी उपास्य प्रभु की भाँति 'इन, त्राता, अवृक व मीढ्वान्' बनता है।
विषय
सूर्यवत् प्रबल पुरुष और ब्रह्मचारी के अपूर्व वीर्य-बल का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य अपने अग्नि, विद्युत् और सूर्य इन तीन विशेष रूपों से समस्त लोकों में व्याप जाता है उसी प्रकार ( यः ) जो पुरुष ( त्रिभिः ) तीन ( विगामभिः ) विशेष गमन या उपायों से ( उरुगायाय ) अति प्रशंसित ( जीवसे ) जीवन की रक्षा और धारण करने के लिये ( पार्थिवानि ) पृथिवी के समस्त पदार्थों और लोकों और प्राणियों को ( उरु ) अति उत्तम रूप से ( क्रमिष्ट ) क्रमण कर जाता है ( तत् तत् ) वह नाना प्रकार का सब ( पौस्यं ) बल पराक्रम, पौरुष हम लोग ( इनस्य ) स्वामी, सूर्य के समान तेजस्वी, ( त्रातुः ) रक्षक, ( अवृकस्य ) भेडिये के समान वञ्चक वा प्रजाभक्षक न रहने वाले ( मीढुषः ) मेघ के समान ऐश्वर्यो के वर्षक प्रजापालक स्वामी का ही ( गृणीमसि ) बतलाते हैं । ( २ ) यह वीर्य सेचन में समर्थ ब्रह्मचारी पुरुष का ही पुरुषत्व है कि वह पृथिवी अर्थात् स्त्री से उत्पन्न सब सन्तानों को उत्तम दीर्घ जीवन धारण कराने के लिये ( त्रिभिः विगामभिः उरु क्रमिष्ट ) पिता पुत्र और पौत्र तीनों रूपों से व्यापता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषि॥ विष्णुर्देवता इन्द्रश्च ॥ छन्दः- १, ३, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सुखाने दीर्घकाळ जगण्यासाठी चांगल्या प्रकारे ब्रह्मचर्याचे सेवन करावे. आरोग्य व धातूची समता वाढवून शरीराचे बल व विद्या, धर्म आणि योगाभ्यासाने आत्मबल उन्नत करून सुखात राहावे. जे लोक ईश्वराच्या या आज्ञेचे पालन करतात ते बाल्यावस्थेत स्वयंवर विवाह कधी करीत नाहीत. याशिवाय पूर्ण पुरुषार्थाची वृद्धी होणे शक्य नाही. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That procreative virility of this lord Vishnu at every step of it, we celebrate in songs of joy, that creativity of the lord saviour and protector, generous and not rapacious who takes away nothing for himself, creator supreme and lord of cosmic fertility, who completes the creation of the natural universe in three steps of sattva, rajas and tamas — thought, energy and matter — for the delightful life of the soul, and then transcends the work of his own creation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Glory of observing Brahmacharya explained.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Verily we praise the manhood of the honest, virile, self- controlled and vigorous person. He tries to follow God. In fact, He is the protector and Lord of the world. With admirable qualities. He makes and shapes the material substances by apportioning into basic three qualities of SATVA, RAJAS and TAMAS. It enables a person to lead a noble life glorified by many wisemen.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should increase his physical and mental power by the observance of Brahmacharya, rules of health and proper and proportionate development of all essential ingredients in the body. Coupled with their spiritual power by the acquisition of knowledge, righteousness and practice of Yoga, such people could establish themselves in perpetual joy.
Foot Notes
( इनस्य ) समर्थस्यैश्वरस्य = Of God, the Lord. ( विगामभि:) विविध प्रशंसायुक्तैः = Admirable.
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