ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ वां॒ रथो॒ऽवनि॒र्न प्र॒वत्वा॑न्त्सृ॒प्रव॑न्धुरः सुवि॒ताय॑ गम्याः। वृष्ण॑: स्थातारा॒ मन॑सो॒ जवी॑यानहम्पू॒र्वो य॑ज॒तो धि॑ष्ण्या॒ यः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । रथः॑ । अ॒वनिः॑ । न । प्र॒वत्वा॑न् । सृ॒प्रऽव॑न्धुरः । सु॒वि॒ताय॑ । ग॒म्याः॒ । वृष्णः॑ । स्था॒ता॒रा॒ । मन॑सः । जवी॑यान् । अ॒ह॒म्ऽपू॒र्वः । य॒ज॒तः । धि॒ष्ण्या॒ । यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां रथोऽवनिर्न प्रवत्वान्त्सृप्रवन्धुरः सुविताय गम्याः। वृष्ण: स्थातारा मनसो जवीयानहम्पूर्वो यजतो धिष्ण्या यः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वाम्। रथः। अवनिः। न। प्रवत्वान्। सृप्रऽवन्धुरः। सुविताय। गम्याः। वृष्णः। स्थातारा। मनसः। जवीयान्। अहम्ऽपूर्वः। यजतः। धिष्ण्या। यः ॥ १.१८१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्थातारा धिष्ण्या यो वामवनिर्न प्रवत्वान् सृप्रवन्धुरो मनसो जवीयान् अहंपूर्वो यजतो रथः सुविताय भवति यत्र वृष्ण आगम्याः प्रयुज्यन्ते तमहं साध्नुयाम ॥ ३ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (वाम्) युवयोः (रथः) यानम् (अवनिः) पृथिवी (न) इव (प्रवत्वान्) प्रशस्ता प्रवतो वेगादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् (सृप्रवन्धुरः) सृप्रैः सङ्गतैर्वन्धुरैर्बन्धनैर्युक्तः (सुविताय) ऐश्वर्याय (गम्याः) गमयितुं योग्याः (वृष्णाः) बलवतः (स्थातारा) स्थातारो (मनसः) (जवीयान्) अतिशयेन वेगवान् (अहंपूर्वः) अयमहमित्यात्मज्ञानेन पूर्णः (यजतः) सङ्गतः (धिष्ण्या) धिष्णौ प्रगल्भौ (यः) ॥ ३ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरैश्वर्य्योन्नतये पृथिवीवन्मनोवेगद्वेगवन्ति यानानि निर्मीयन्ते तेऽत्र दृढा स्थिरसुखा जायन्ते ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (स्थातारा) स्थिर होनेवाले (धिष्ण्या) धृष्टप्रगल्भ अध्यापक और उपदेशको ! (यः) जो (वाम्) तुम्हारा (अवनिः) पृथिवी के (न) समान (प्रवत्वान्) जिसमें प्रशस्त वेगादि गुण विद्यमान (सृप्रवन्धुरः) जो मिले हुए बन्धनों से युक्त (मनसः) मन से भी (जवीयान्) अत्यन्त वेगवान् (अहंपूर्वः) यह मैं हूँ इस प्रकार आत्मज्ञान से पूर्ण (यजतः) मिला हुआ (रथः) रथ (सुविताय) ऐश्वर्य्य के लिये होता है जिसमें (वृष्णः) बलवान् (आ, गम्याः) चलाने को योग्य अग्न्यादि पदार्थ अच्छे प्रकार जोड़े जाते हैं, उसको मैं सिद्ध करूँ ॥ ३ ॥
भावार्थ
मनुष्यों से जो ऐश्वर्य्य की उन्नति के लिये पृथिवी के तुल्य वा मन के वेग तुल्य वेगवान् यान बनाये जाते हैं, वे यहाँ स्थिर सुख देनेवाले होते हैं ॥ ३ ॥
विषय
महत्त्वपूर्ण शरीर-रथ
पदार्थ
१. हे (धिष्ण्या) = शरीर में उन्नत स्थान के योग्य (स्थातारा) = शरीर के अधिष्ठातृरूप प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (यः) = जो यह (रथः) = शरीररूप रथ है वह (सुविताय) = शोभन आचरण के लिए (आगम्या:) = हमें प्राप्त हो । इस शरीर में प्राणापान का स्थान सबसे उत्कृष्ट है । आँख आदि के चले जाने पर भी यह रथ चलता ही है, परन्तु प्राणापान के चले जाने पर इसके चलने का प्रश्न नहीं रहता। वस्तुत: प्राणापान इसके अधिष्ठाता हैं अर्थात् उनकी क्रिया के ठीक होने पर यह वशीभूत रहता है और विकृत नहीं होता। २. यह रथ (अवनिः न) = इस पृथिवी के समान (प्रवत्वान्) = [प्रवत्=Height, elevation= उत्कर्षवाला है, अर्थात् इसका महत्त्व उतना ही है जितना पृथिवी का । अथवा [प्रवत= गतिकर्मा - नि० २ । १४] जो पृथिवी की भाँति प्रशस्त वेगादि गुणवाला है, (सृप्रवन्धुरः) = [वन्धुर-beautiful] बड़ी सुन्दर गतिवाला है, गति से सुन्दर प्रतीत होता है। शरीर क्रियामय हो और सब क्रियाएँ सुन्दर हों। ३. यह शरीर-रथ (वृष्णः मनसः जवीयान्) = शक्तिशाली मन से भी अधिक वेगवान् है, अर्थात् खूब क्रियाशील है, (अहं पूर्वः) = अहं का इसमें मुख्य स्थान है। इसमें सबसे मधुर वस्तु यह 'अहं' ही है। प्राणसाधना के द्वारा इस 'अहं' को ही जीतना है। (यजतः) = यह शरीर-रथ प्रभु के साथ संगतिकरण का साधन है 'यज् संगतिकरणे', इसीलिए यह आदरणीय है 'यज् पूजायाम्' । शरीर को उचित आदर देते हुए इसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए और ठीक मार्ग पर चलते हुए हम इसके द्वारा लक्ष्यस्थान पर पहुँचें।
भावार्थ
भावार्थ - यह शरीर-रथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राणसाधना के द्वारा इसे वश में करके हम आगे बढ़ेंगे तो अवश्य लक्ष्यस्थान पर पहुँचेंगे।
विषय
उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( रथः ) रथ जिस प्रकार ( प्रवत्वान् ) नाना वेगों से युक्त, (सुविताय) सुख पूर्वक देशान्तर में गमन करने के लिये उपयोगी होता है उसी प्रकार हे (स्थातारा) एक स्थान पर स्थिर होकर रहने वाले वीर, विद्वान् स्त्री पुरुषो ! गृहस्थो ! हे (धिष्ण्या) उत्तम आधार वा धारण करने योग्य एवं बुद्धि और विवेक से कार्य करने हारो ! ( वां ) तुम दोनों में ( यः ) जो पुरुष रथ के समान रमण करने और अन्यों को रमण कराने या अपने आश्रय रखकर ले जाने हारा, (अवनिः) पृथ्वी के समान पालन करने हारा, ( प्रवत्वान् ) उत्तम वेगयुक्त साधनों का स्वामी, (सुप्रबन्धुरः) वेगवान् पदार्थों और वीर पुरुषों के बीच में व्यवस्थित, (वृष्णः) बलवान् (मनसः) मन से भी अधिक (जवीयान्) वेग और बल वाला, जितचित्त, (अहम्पूर्वः) अपने को ही सबसे प्रथम रखने हारा, ( यजतः ) सबसे अधिक पूज्य सत्संगयोग्य पुरुष है, वही ( सुविताय ) सुख से लोक यात्रा के लिये ( आ गम्याः ) हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसे ऐश्वर्याच्या वाढीसाठी पृथ्वी व मनाच्या वेगाप्रमाणे वेगवान जी याने तयार करतात ती येथे स्थिर सुख देणारी असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, benevolent powers of high standing, may your chariot firmly rushing on like the earth, strongly structured and beautifully adorned, faster than mind, fully programmed and self-directed, cooperative and inviolably un-interceptible reach us for our good.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvinau (2) ( teachers and preachers ) ! you are benevolent like the air, sun and the moon and are excellent and steady. May your car be speedy etc like the earth, well-jointed and fast like the human mind, emulative and properly manufactured. Come here for our benefit and prosperity, as you are possessive of the knowledge of the soul and are adorable.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The manufacturers of firm vehicles, which are firm like the earth and fast like the human mind, enjoy lasting and full happiness.
Foot Notes
(प्रवत्वान् ) प्रशस्ता: प्रवतः वेगादयो गुणाः विद्यन्ते यस्मिन् = Full of speed and other attributes. (धिष्ण्या) प्रगल्भो = Clever, excellent.
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