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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 186 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 186/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्रेष्ठं॑ वो॒ अति॑थिं गृणीषे॒ऽग्निं श॒स्तिभि॑स्तु॒र्वणि॑: स॒जोषा॑:। अस॒द्यथा॑ नो॒ वरु॑णः सुकी॒र्तिरिष॑श्च पर्षदरिगू॒र्तः सू॒रिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रेष्ठ॑म् । वः॒ । अति॑थिम् । गृ॒णी॒षे॒ । अ॒ग्निम् । श॒स्तिऽभिः॑ । तु॒र्वणिः॑ । स॒ऽजोषाः॑ । अस॑त् । यथा॑ । नः॒ । वरु॑णः । सु॒ऽकी॒र्तिः । इषः॑ । च॒ । प॒र्ष॒त् । अ॒रि॒ऽगू॒र्तः । सू॒रिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेष्ठं वो अतिथिं गृणीषेऽग्निं शस्तिभिस्तुर्वणि: सजोषा:। असद्यथा नो वरुणः सुकीर्तिरिषश्च पर्षदरिगूर्तः सूरिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रेष्ठम्। वः। अतिथिम्। गृणीषे। अग्निम्। शस्तिऽभिः। तुर्वणिः। सऽजोषाः। असत्। यथा। नः। वरुणः। सुऽकीर्तिः। इषः। च। पर्षत्। अरिऽगूर्तः। सूरिः ॥ १.१८६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 186; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथा तुर्वणिः सजोषाः सँस्त्वं शस्तिभिरग्निं प्रेष्ठमतिथिं गृणीषे यथाऽरिगूर्त्तः सुकीर्त्तिर्वरुणो नोऽस्मानिषश्च पर्षत् सूरिरसत्तथा वो युष्मान् प्रति वर्त्तेत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (प्रेष्ठम्) अतिशयेन प्रियम् (वः) युष्मान् (अतिथिम्) अतिथिवद्वर्त्तमानम् (गृणीषे) प्रशंससि (अग्निम्) वह्निवद्वर्त्तमानं विद्याप्रकाशितं विद्वांसम् (शस्तिभिः) प्रशंसाभिः (तुर्वणिः) सद्योगामी (सजोषाः) समानप्रीतिः (असत्) भवेत् (यथा) (नः) अस्माकम् (वरुणः) वरो विद्वान् (सुकीर्त्तिः) पुण्यप्रशंसः (इषः) अन्नानि (च) इच्छाः (पर्षत्) सिञ्चेत् (अरिगूर्त्तः) अरिषु शत्रुषु गूर्त्त उद्यमी (सूरिः) अतिप्रवीणो विद्वान् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये गृहस्थाः प्रीत्याऽऽप्तानतिथिं च सेवन्ते धर्म्ये व्यवहार उद्योगिनो भवन्ति ते याथातथ्यं विज्ञानं प्राप्यं श्रीमन्तो भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जैसे (तुर्वणिः) शीघ्र जाने और (सजोषाः) समान प्रीति रखनेवाले आप (शस्तिभिः) प्रशंसाओं से (अग्निम्) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्या से प्रकाशित (प्रेष्ठम्) अतिप्रिय (अतिथिम्) अतिथिवद्वर्त्तमान विद्वान की (गृणीषे) प्रशंसा करते हो वा (यथा) जैसे (अरिगूर्त्तः) शत्रुओं में उद्यम करने और (सुकीर्त्तिः) पुण्य प्रशंसावाला (वरुणः) उत्तम विद्वान् (नः) हम लोगों को (इषः) अन्नादि पदार्थ (च) और इच्छाओं को (पर्षत्) सीचें वा (सूरिः) अतीव प्रवीण विद्वान् (असत्) हों वैसे (वः) तुम लोगों के प्रति वर्त्ते ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो गृहस्थजन प्रीति के साथ श्रेष्ठ, उत्तम शास्त्रज्ञ विद्वानों और अतिथि की सेवा करते हैं, धर्मयुक्त व्यवहार में उद्योगवान् होते वे यथार्थ विज्ञान को पाकर श्रीमान् होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    सुकीर्ति

    पदार्थ

    १. हे देवो! मैं (तुर्वणिः) = [तूर्णवनि:] शीघ्रता से शत्रुओं का पराभव करनेवाला (सजोषा:) = प्रीतिपूर्वक प्रभु सेवन की वृत्तिवाला (वः) = तुममें (प्रेष्ठम्) = प्रियतम (अतिथिम्) = सतत क्रियाशील (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (शस्तिभिः) = शंसनों के द्वारा (गृणीषे) = स्तुत करता हूँ। मैं अग्नि का स्तवन करनेवाला बनता हूँ। यह अग्नि देवों में प्रियतम है। सब देवों का हमारे साथ स्नेह है । प्रभु का स्नेह अनन्त है। प्रभु अपने न माननेवाले को भी खान-पान प्राप्त कराते ही हैं—'अमन्तवो मां न उपक्षियन्ति'। ये प्रभु हमारे कल्याण के लिए निरन्तर क्रियाशील हैं । २. हम इस अग्नि का स्तवन इसलिए करते हैं (यथा) = जिससे यह (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाला होता हुआ (नः) = हमारे लिए (सुकीर्तिः) = उत्तम कीर्ति को प्राप्त करानेवाला असत् हो । द्वेष से ऊपर उठनेवाला व्यक्ति ही यशस्वी होता है (च) = और वह (अरिगूर्त:) = काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के पराजय में (सूरि:) = ज्ञानी प्रभु (इषः पर्षत्) = हमारे लिए सात्त्विक अन्नों का पूरण करे [पूरयेत्] । इन सात्त्विक अन्नों से शुद्ध-हृदय बनकर हम प्रभु - प्रेरणाओं को सुननेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने प्रियतम-मित्र- प्रभु का स्तवन करें। वे हमें द्वेषों से ऊपर उठाकर यशस्वी बनाते हैं और हमें सात्त्विक अन्न प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    उत्तम विद्वान् अधिकारियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! उत्तम जन ! तुम लोग (तुर्वणिः) शीघ्र सन्मार्ग पर जाने हारे, या चारों पुरुषार्थों का स्वयं सेवन और अन्यों को ऐश्वर्यादि का अविलम्ब से विभाग करने हारे (सजोषाः) प्रेम से युक्त होकर (वः) आप लोगों में से (प्रेष्ठं) सबसे अधिक प्रिय (अग्निं) अग्रणी, अग्नि या दीपक के समान सबके आगे चलने और मार्ग दिखाने वाले, सर्व प्रकाशक, (अतिथि) अतिथि के समान पूज्य, या सबसे से बढ़कर उच्च पद पर स्थित विद्वान् एवं प्रभु की भी (गृणीषे) स्तुति करो। (यथा) जिससे (वरुणः) वह सर्वश्रेष्ठ (नः) हममें रहकर (सुकीर्त्तिः) उत्तम कीर्त्तिमान् (असत्) हो । वह (नः ) हमारी (इषः च) अन्नादि समृद्धियों, और हमारी इच्छाओं को (पर्षत) पूर्ण करें और मेघ के समान वर्षावे । (अरिगूर्त्तः) शत्रुओं पर उद्यत होकर (सूरिः) सूर्य के समान सर्वप्रेरक, सञ्चालक होकर ( इषः पर्षत् ) आयुधों और सेनाओं को भी प्रेरित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत त्रिष्टुप्। ११ भुरिक त्रिष्टुप्। ३, ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ६ पङ्क्तिः। १० स्वराट् पङ्क्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे गृहस्थ लोक प्रेमाने श्रेष्ठ, उत्तम शास्त्रज्ञ विद्वानांची व अतिथीची सेवा करतात, धर्मयुक्त व्यवहारात उद्योगी असतात ते यथार्थ विज्ञान प्राप्त करून श्रीमंत होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With songs of adoration I invoke and celebrate Agni, universal and dynamic lord of power, heat, light and knowledge, dearest of all, loving and friendly, honourably welcome like a distinguished visitor and guest, so that Varuna, lord supreme of universal choice, bright and brave, destroyer of hate and enmity, be celebrated in action with honour and glory and bring us showers of wealth and food and energy for our body, mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The spirit of service brings richness.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! you are active, equally loving to all, Parise a great knowledgeable scholar like the fire with laudations. You are most beloved and venerable like a guest. An industrious noble learned person attempts to subdue his enemies, possesses good reputation and gives us good food and fulfils our noble desires. So let him work for us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those married couple who lovingly serve the guests and absolutely truthful persons, and are industrious in the righteous dealings, and are active in returning knowledge to others and become prosperous.

    Foot Notes

    ( तुर्वणिः) सद्योगामी | तुर्वणिः इति पदनाम (N. G. 4.3.) = Going. quickly, active. (अरिगूर्त:) अरिषु शत्रुषु, गूर्त: उद्यमी = Industrious in. subduing the foes.

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