ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 188/ मन्त्र 4
प्रा॒चीनं॑ ब॒र्हिरोज॑सा स॒हस्र॑वीरमस्तृणन्। यत्रा॑दित्या वि॒राज॑थ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒चीन॑म् । ब॒र्हिः । ओज॑सा । स॒हस्र॑ऽवीरम् । अ॒स्तृ॒ण॒न् । यत्र॑ । आ॒दि॒त्याः॒ । वि॒ऽराज॑थ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राचीनं बर्हिरोजसा सहस्रवीरमस्तृणन्। यत्रादित्या विराजथ ॥
स्वर रहित पद पाठप्राचीनम्। बर्हिः। ओजसा। सहस्रऽवीरम्। अस्तृणन्। यत्र। आदित्याः। विऽराजथ ॥ १.१८८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 188; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यत्राऽऽदित्या ओजसा सहस्रवीरं प्राचीनं बर्हिरस्तृणन् तत्र यूयं विराजथ ॥ ४ ॥
पदार्थः
(प्राचीनम्) प्राक्तनम् (बर्हिः) संवर्द्धितं तेज इव विज्ञानम् (ओजसा) पराक्रमेण (सहस्रवीरम्) सहस्राणि वीरा यस्मिँस्तम् (अस्तृणन्) आच्छादयन्ति (यत्र) यस्मिन् (आदित्याः) सूर्य्याः (विराजथ) विशेषेण प्रकाशध्वम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
यत्र सनातने कारणे सूर्यादयो लोकाः प्रकाशन्ते तत्र यूयं वयं च प्रकाशामहे ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्र) जिस सनातन कारण में (आदित्याः) सूर्य्यादि लोक (ओजसा) पराक्रम वा प्रताप से (सहस्रवीरम्) सहस्रों जिसमें वीर उस (प्राचीनम्) पुरातन (बर्हिः) अच्छे प्रकार बढ़े हुए विज्ञान को (अस्तृणन्) ढाँपते हैं वहाँ तुम लोग (विराजथ) विशेषता से प्रकाशित होओ ॥ ४ ॥
भावार्थ
जिस सनातन कारण में सूर्य्यादि लोक-लोकान्तर प्रकाशित होते हैं, वहाँ तुम हम प्रकाशित होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
अग्रगति, वीरता- ओजस्विता
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अनुसार प्रभु कृपा से देवसम्पर्क को प्राप्त करके (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (सहस्रवीरम्) = सहस्रशः वीर भावनाओं से युक्त (प्राचीनम्) = [प्र अञ्च] अग्रगति की भावनावाले (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदयरूप आसन को (अस्तृणन्) = बिछाते हैं [आच्छादयन्], अर्थात् अपने हृदय को अग्रगति की भावनावाला [प्राचीनम्], वीर भावनाओं से युक्त [सहस्रवीरम्] व ओजस्वी बनाते हैं । २. यह (बर्हि) = वह है (यत्र) = जहाँ (आदित्या:) = हे आदित्यो ! (विराजथ) = आप शोभायमान होते हो। आपमें सब गुणों का आधान करनेवाले ये आदित्य हैं। आदित्य गुणों का आधान करते हुए अपने हृदय को वासनाशून्य बनाते हैं। इसी हृदयासन पर तो इन्होंने प्रभु को आसीन कर है।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा हृदय अग्रगति की भावनावाला, वीरतापूर्ण व ओजस्वी हो ।
विषय
तेजस्वी राजा।
भावार्थ
(यत्र) जहां (ओजसा) बल से, पराक्रम से (प्राचीनं) आगे की ओर बढ़ने वाले (सहस्र-वीरम्) सहस्रों, बलवान् वीरों से युक्त (बर्हिः) वृद्धि शील राष्ट्र वा प्रजाजन को (आदित्याः) तेजस्वी पराक्रमी पृथिवी के स्वामी नरपति जन (अस्तृणन्) विस्तृत करते, उस पर शासन करते हैं, हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग वहां (विराजथ) अच्छी प्रकार रहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । आप्रियो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६, ७, १० निचृद्गायत्री। २, ४, ८, ९, ११ गायत्री ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या सनातन कारणात सूर्य इत्यादी लोकलोकांतर प्रकाशित होतात, तेथे तुम्ही आम्हीही प्रकाशित होतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That ancient and eternal seat of existence and knowledge wherein abide a thousand brave and mysterious divinities and where the suns with their blazing refulgence cover as well as reveal the face of Divinity, there, all ye men and women of the world, arise, reach and dwell.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Like sun, we all seek lights from Him.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men you should always dwell in that Eternal Cause (God). The enlightened persons shine in Him like the rays of the sun. Let us cover the vast scientific knowledge like the ancient splendor in which thousands of heroes dwell.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
We and you shine in that Eternal Cause-God in Whom the sun and other worlds shine or from whom-they seek their splendor.
Foot Notes
(वर्हि:) संवर्धितं तेज इव विज्ञानम् | पद –गतौ । गतेस्त्रिष्वर्येष्वत्र ज्ञानार्थग्रहणम् = Developed scientific knowledge which is like splendor.
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