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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रयज्ञसोमाः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्र॒ द्वावि॑व ज॒घना॑धिषव॒ण्या॑ कृ॒ता। उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । द्वौऽइ॑व । ज॒घना॑ । अ॒धि॒ऽस॒व॒न्या॑ । कृ॒ता । उ॒लूख॑लऽसुतानाम् । अव॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ । ज॒ल्गु॒लः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र द्वाविव जघनाधिषवण्या कृता। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। द्वौऽइव। जघना। अधिऽसवन्या। कृता। उलूखलऽसुतानाम्। अव। इत्। ऊँ इति। इन्द्र। जल्गुलः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! विद्वंस्त्वं यत्र द्वे जङ्घे इव अधिषवण्ये फलके कृते भवतस्ते सम्यक् कृत्वोलूखलसुतानां पदार्थानां सकाशात् सारमव प्राप्नुहि उ वितर्के इत् तदेव जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय॥२॥

    पदार्थः

    (यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (द्वाविव) उभे यथा (जघना) उरुणी। जघनं जङ्घन्यतेः। (निरु०९.२०) अत्र हन्तेः शरीरावयवे द्वे च। (उणा०५.३२) अनेनाच् प्रत्ययो द्वित्वं सुपां सुलुग्० इति त्रिषु विभक्तेराकारादेशश्च। (अधिषवण्या) अधिगतं सुन्वन्ति याभ्यां ते अधिषवणी तयोर्भवे। अत्र भवे छन्दसि (अष्टा०४.४.११०) इति यत् (कृता) कृते (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन शोधितानाम् (अव) प्राप्नुहि (इत्) एव (उ) वितर्के (इन्द्र) अन्तःकरणबहिष्करणशरीरादिसाधनैश्वर्य्यवन् मनुष्य (जल्गुलः) अतिशयेन शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा द्वाभ्यामुरुभ्यां गमनादिका क्रिया निष्पाद्यते, तथैव पाषाणस्याध एका स्थूला शिला स्थापनार्था द्वितीया हस्तेनोपरि पेषणार्था कार्ये ताभ्यामोषधीनां पेषणं कृत्वा यथावद्भक्षणादि संसाध्य भक्षणीयमिदमपि मुसलोलूखलवद् द्वितीयं साधनं रचनीयमिति॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) भीतर बाहर के शरीर साधनों से ऐश्वर्यवाले विद्वान् मनुष्य ! तुम (द्वाविव) (जघना) दो जङ्घाओं के समान (यत्र) जिस व्यवहार में (अधिषवण्या) अच्छे प्रकार वा असार अलग-अलग करने के पात्र अर्थात् शिलबट्टे होते हैं, उनको (कृता) अच्छे प्रकार सिद्ध करके (उलूखलसुतानाम्) शिलबट्टे से शुद्ध किये हुए पदार्थों के सकाश से सार को (अव) प्राप्त हो (उ) और उत्तम विचार से (इत्) उसी को (जल्गुलः) बार-बार पदार्थों पर चला॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे दोनों जांघों के सहाय से मार्ग का चलना-चलाना सिद्ध होता है, वैसे ही एक तो पत्थर की शिला नीचे रक्खें और दूसरा ऊपर से पीसने के लिये बट्टा जिसको हाथ में लेकर पदार्थ पीसे जायें, इनसे औषधि आदि पदार्थों को पीसकर यथावत् भक्ष्य आदि पदार्थों को सिद्ध करके खावें। यह भी दूसरा साधन उखली मुसल के समान बनाना चाहिये॥२॥

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    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! विद्वन् त्वं यत्र द्वे जङ्घे इव अधिषवण्ये फलके कृते भवतः ते सम्यक् कृत्वा उलूखलसुतानां पदार्थानां सकाशात् सारम् अव प्राप्नुहि उ वितर्के इत् तदेव जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय॥२॥ 

    पदार्थ

    (इन्द्र) अन्तःकरणबहिष्करणशरीरादिसाधनैश्वर्य्यवन् मनुष्य=भीतर और बाहर के शरीर साधनों से ऐश्वर्यवाले (विद्वन्)=विद्वान् मनुष्य ! (त्वम्)=आप, (यत्र) यस्मिन् व्यवहारे=जिस व्यवहार में, (द्वे)=दोनों, (जङ्घे)=जङ्घओं में, (इव)=जैसे, (अधिषवण्या) अधिगतं सुन्वन्ति याभ्यां ते अधिषवणी तयोर्भवे=अच्छे प्रकार या असार अलग-अलग करने के पात्र अर्थात् शिलबट्टे होते हैं, उनको, (फलके)=शिला पर, (कृते)=करके, (भवतः)=आप सब, (सम्यक्)=अच्छी तरह से, (कृत्वा)=करके, (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन शोधितानाम् = शिलबट्टे से शुद्ध किये हुए, (पदार्थानाम्)=पदार्थों के, (सकाशात्)=निकट  से, (सारम्)=सार को, (अव) प्राप्नुहि= प्राप्त करो, (एव)=ऐसे ही, (तदेव)=उससे ही, (जल्गुलः)=पुनः पुनः  (शब्दय)=शब्द करते हो॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य जैसे दोनों जांघों की सहायता से जाने-आने की क्रिया करता है, वैसे ही पाषाण या एक स्थूल शिला की स्थापना के लिए दूसरे हाथ के द्वारा  ऊपर से पीसने के कार्य के लिये उस पर ओषधियों को पीसकर यथावत् भक्ष्य आदि को अर्जित करके खाने के लिए भी ओखली और मूसल के समान दूसरे साधनों को बनाना चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (इन्द्र) भीतर और बाहर के शरीर साधनों से ऐश्वर्यवाले (विद्वन्) विद्वान् मनुष्य ! (त्वम्) आप (यत्र) जिस व्यवहार में (द्वे) दोनों (जङ्घे) जङ्घाओं में (इव) जैसे (अधिषवण्या) अच्छे प्रकार वा असार अलग-अलग करने के पात्र अर्थात् शिलबट्टे होते हैं, उनको  (फलके) शिला पर (कृते) रख करके (भवतः) आप सब, (सम्यक्) अच्छी तरह से (कृत्वा) करते हुए (उलूखलसुतानाम्) शिलबट्टे से शुद्ध किये हुए (पदार्थानाम्) पदार्थों के (सकाशात्) निकटता से (सारम्) सार को (अव) प्राप्त करो। (एव) ऐसे ही  (तदेव) उसके ही शब्द (जल्गुलः) पुनः पुनः (शब्दय) शब्द करते हो अर्थात् चक्की चलाते हो॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (द्वाविव) उभे यथा (जघना) उरुणी। जघनं जङ्घन्यतेः। (निरु०९.२०) अत्र हन्तेः शरीरावयवे द्वे च। (उणा०५.३२) अनेनाच् प्रत्ययो द्वित्वं सुपां सुलुग्० इति त्रिषु विभक्तेराकारादेशश्च। (अधिषवण्या) अधिगतं सुन्वन्ति याभ्यां ते अधिषवणी तयोर्भवे। अत्र भवे छन्दसि (अष्टा०४.४.११०) इति यत् (कृता) कृते (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन शोधितानाम् (अव) प्राप्नुहि (इत्) एव (उ) वितर्के (इन्द्र) अन्तःकरणबहिष्करणशरीरादिसाधनैश्वर्य्यवन् मनुष्य (जल्गुलः) अतिशयेन शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥२॥
    विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे इन्द्र ! विद्वंस्त्वं यत्र द्वे जङ्घे इव अधिषवण्ये फलके कृते भवतस्ते सम्यक् कृत्वोलूखलसुतानां पदार्थानां सकाशात् सारमव प्राप्नुहि उ वितर्के इत् तदेव जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा द्वाभ्यामुरुभ्यां गमनादिका क्रिया निष्पाद्यते, तथैव पाषाणस्याध एका स्थूला शिला स्थापनार्था द्वितीया हस्तेनोपरि पेषणार्था कार्ये ताभ्यामोषधीनां पेषणं कृत्वा यथावद्भक्षणादि संसाध्य भक्षणीयमिदमपि मुसलोलूखलवद् द्वितीयं साधनं रचनीयमिति ॥२॥

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    विषय

    दो अधिषवण फलक

    पदार्थ

    १. (यत्र) - जहाँ - जिस शरीर में (द्वौ जघनौ इव) - दो जाँघों की भांति (अधिषवण्या कृता) - मस्तिष्क और हृदय सोम के उत्पादन के योग्य किये गये हैं । वस्तुतः 'मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करना तथा हृदय में प्रभुभक्ति की भावना को जगाना' - ये दो मुख्य साधन हैं सोम के शरीर में पान के , इसीलिए मस्तिष्क व हृदय को 'अधिषवण्या' कहा है ।

    २. यहाँ 'दो जाँघों की भाँति' यह उपमा इसलिए दी गई है कि जैसे चलते समय दोनो टाँगें चलती हैं और दोनों ही समान रूप से पुष्ट होती हैं , इसी प्रकार शरीर में मस्तिष्क व हृदय दोनों को ही समानरूप से पुष्ट करने की आवश्यकता है । भुजाओं में भी दायीं व बायीं में अन्तर है , पर टाँगें सामान्यतया समानरूप से कार्य करती हैं और समानरूप से पुष्ट होती हैं , इसी प्रकार मस्तिष्क व हृदय की स्थिति होनी चाहिए । ज्ञान व भक्ति दोनों का समान महत्त्व होना चाहिए । ये दोनों मानो अधिषवण फलकों की भाँति हैं । 

    ३. इनसे शरीर में सोम का उत्पादन व रक्षण होता है । (उलूखलसुतानाम्) - हृदयान्तरिक्ष में उत्पन्न इन सोमकणों को (अव इत् उ) - अपना जानकर निश्चय से (इन्द्र) - हे जितेन्द्रिय पुरुष (जल्गुलः) - तू भक्षण कर । सोमकणों को शरीर में सुरक्षित रखने से मस्तिष्क व हृदय दोनों का उत्तमता से पोषण होगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सोम के सम्पादन व व्यापन के लिए स्वाध्याय द्वारा मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का प्रज्वलन तथा हृदय में श्रद्धापूर्वक प्रभुभजन आवश्यक है ।

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    विषय

    गृहस्थ स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यत्र ) जिस में ( द्वौ ) दो ( अधिषवण्या ) सोम को कूटने के लिये शिल और बट्टा ( इव ) दोनों के समान ( जघना ) शरीर में गति करने वाली दो जंघाएं ( कृता ) बनी हैं, अथवा शरीर में दो जंघाओं के समान यज्ञ में सोम सवन के लिये अन्न करने के लिये दो अधिसवन फलक और गृहस्थ यज्ञ में पुत्रोत्पादक दो स्त्री पुरुष बने हैं और ज्ञान में ज्ञानोत्पादक गुरु शिष्य हैं वहां ( उलूखल-सुतानाम् ) अति अधिक अन्न, ज्ञान और ऐश्वर्य के कर्त्ता पुरुषों से उत्पादित अन्न, पुत्र और शिष्यों की, हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! स्वामिन् ! आत्मन् ! गृहपते ! आचार्य ! तू ( अव ) रक्षा कर ( जल्गुलः ) उपदेश कर और नियुक्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ इन्द्रयज्ञसोमा देवताः ॥ छन्दः—१–६ अनुष्टुप् । ७–९ गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांना जसे जांघांच्या साह्याने मार्ग चालणे - चालविणे शक्य असते, तसेच एका दगडाचा पाटा खाली ठेवावा. दुसरा वरून वाटण्यासाठी वरवंटा असावा. ज्यामुळे पदार्थ वाटले जावेत. त्यातून औषधी इत्यादी पदार्थ वाटून खावेत. हेही दुसरे साधन उखळ मुसळाप्रमाणे बनवावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, where the two stones of the soma press are intensely juxtaposed like the two gear meshes, there take the materials fine ground in the mortar for straining and refinement for the special purpose, take out for testing and say whether it is of the right quality.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of they are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=opulent by the inner and outer body resources, (vidvan)=scholarly person, (tvam)=you, (yatra)=in which conduct, (dve)=in both, (jaṅghe)=thighs, (iva)=as, (adhiṣavaṇyā) =in proper way or the utensil separating substances which are not usable, in other words, pestle and mortar, to them, (phalake)=on the rock, (kṛte)=placed, (bhavataḥ)=all of you, (samyak)=properly, (kṛtvā)=doing, (ulūkhalasutānām)=purified by pestle and pounder, (padārthānām)=of the substances, (sakāśāt)=from proximity, (sāram)=essence, (ava)=obtain, (eva)=in the same way, (tadeva)=in his own words only, (jalgulaḥ)=again and again, (śabdaya)=make sound, in other words, runs the mill.

    English Translation (K.K.V.)

    O opulent by the inner and outer body resources, scholarly person! You in which conduct get properly purified substances by the pestle and pounder in both thighs as in proper way or the utensil separating substances which are not usable, in other words, pestle and pounder, placed on the rock; all of you obtain, making properly, essence of the substances from proximity. In the same way, in his own words only, again and again, runs the mill.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as a man does the movement with the help of both the thighs, in the same way, for the purpose of grinding from above with the other hand, for the establishment of a stone or a rough rock, by grinding herbal medicines on it and eating it after acquiring the same food et cetera. For this also other means like pounds and pestles should be made.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, in the Yajna or kitchen in which there are two platters for containing the juice etc. like the thighs, making them properly, from the substances ground in the mortar, take out their essence and make the mortar sound again and again.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जघना) ऊरुणी । जघनं जंघन्यते: (निरु० ९.२०) अत्रहन्तेः शरीरावयवे द्वे च ( उणादि ५.३२ ) अनेनाच् प्रत्यये द्वित्वं सुपां सुलुक् इति त्रिषु विभक्तेराकारादेशश्च (अव) प्राप्नुहि || = Things. (अव) प्राप्नुहि = Get. ( इन्द्र ) अन्तः करणबहिष्करणशरीरादि साधनैश्वर्यवन् विद्वन् ॥ = Man possessing outer and inner senses as wealth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As men go about with the help of the things, in the same way, people should place one rock over the stone and the other over it for grinding. With their help, they should grind herbs and should eat them as prescribed. This should be the second means like the mortar and the pestle.

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