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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - उलूखलः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उच्छि॒ष्टं च॒म्वो॑र्भर॒ सोमं॑ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज। नि धे॑हि॒ गोरधि॑ त्व॒चि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । शि॒ष्टम् । च॒म्वोः॑ । भ॒र॒ । सोम॑म् । प॒वित्रे॑ । आ । सृ॒ज॒ । नि । धे॒हि॒ । गोः । अधि॑ । त्व॒चि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। शिष्टम्। चम्वोः। भर। सोमम्। पवित्रे। आ। सृज। नि। धेहि। गोः। अधि। त्वचि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ताभ्यां किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं चम्वोरिव शिष्टं सोममुद्भर तेनोभे सेने पवित्रे आसृज गोः पृथिव्या अधि त्वचि ते निधेहि नितरां संस्थापय॥९॥

    पदार्थः

    (उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे (शिष्टम्) शिष्यते यस्तम् (चम्वोः) पदातिहस्त्यश्वादिरूढयोः सेनयोरिव (भर) धर (सोमम्) सर्वरोगनाशकबलपुष्टिबुद्धिवर्द्धकमुत्तमौषध्यभिषवम् (पवित्रे) शुद्धे सेविते (आ) समन्तात् (सृज) निष्पादय (नि) नितराम् (धेहि) संस्थापय (गोः) पृथिव्याः। गौरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अधि) उपरि (त्वचि) पृष्ठे॥९॥

    भावार्थः

    राजपुरुषादिभिर्द्विविधे सेने सम्पादनीये एका यानारूढा द्वितीया पदातिरूपा तदर्थमुत्तमा रसाः शस्त्रादिसामग्र्यश्च सम्पादनीयाः सुशिक्षयौषधादिदानेन च शुद्धबले सर्वरोगरहिते सङ्गृह्य पृथिव्या उपरि चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवनीयमिति॥९॥सप्तविंशेन सूक्तेनाग्निर्विद्वाँसश्चोक्तास्तैर्मुसलोलूखलादीनि साधनानि गृहीत्वौषध्यादिभ्यो जगत्स्थपदार्थेभ्यो बहुविधा उत्तमाः पदार्थाः सम्पादनीया इत्यस्मिन्सूक्ते प्रतिपादनात् सप्तविंशसूक्तोक्तार्थेन सहास्याष्टाविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥९॥सप्तविंशेन सूक्तेनाग्निर्विद्वाँसश्चोक्तास्तैर्मुसलोलूखलादीनि साधनानि गृहीत्वौषध्यादिभ्यो जगत्स्थपदार्थेभ्यो बहुविधा उत्तमाः पदार्थाः सम्पादनीया इत्यस्मिन्सूक्ते प्रतिपादनात् सप्तविंशसूक्तोक्तार्थेन सहास्याष्टाविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उन से क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् तुम (चम्वोः) पैदल और सवारों की सेनाओं के समान (शिष्टम्) शिक्षा करने योग्य (सोमम्) सर्वरोगविनाशक बलपुष्टि और बुद्धि को बढ़ानेवाले उत्तम ओषधि के रस को (उद्भर) उत्कृष्टता से धारण कर उस से दो सेनाओं को (पवित्रे) उत्तम (आसृज) कीजिये (गोः) पृथिवी के (अधि) ऊपर अर्थात् (त्वचि) उस की पीठ पर सेनाओं को (निधेहि) स्थापन करो॥९॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को चाहिये कि दो प्रकार की सेना रक्खें अर्थात् एक तो सवारों की दूसरी पैदलों की, उनके लिये उत्तम रस और शस्त्र आदि सामग्री इकट्ठी करें, अच्छी शिक्षा और औषधि देकर शुद्ध बलयुक्त और नीरोग कर पृथिवी पर एक चक्रराज्य नित्य करें॥९॥सत्ताईसवें सूक्त से अग्नि और विद्वान् जिस-जिस गुण को कहे हैं, वे मूसल और ऊखली आदि साधनों को ग्रहण कर औषध्यादि पदार्थों से संसार के पदार्थों से अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उत्पन्न करें, इस अर्थ का इस सूक्त में सम्पादन करने से सत्ताईसवें सूक्त के कहे हुए अर्थ के साथ अट्ठाईसवें सूक्त की सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥९॥सत्ताईसवें सूक्त से अग्नि और विद्वान् जिस-जिस गुण को कहे हैं, वे मूसल और ऊखली आदि साधनों को ग्रहण कर औषध्यादि पदार्थों से संसार के पदार्थों से अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उत्पन्न करें, इस अर्थ का इस सूक्त में सम्पादन करने से सत्ताईसवें सूक्त के कहे हुए अर्थ के साथ अट्ठाईसवें सूक्त की सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥९॥

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    विषय

    फिर उन से क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् त्व चम्वोः इव शिष्टं सोमम् उत् भर तेन उभे सेने पवित्रे आसृज गोः पृथिव्या अधि त्वचि ते नि धेहि नितरां संस्थापय॥९॥

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)=विद्वान्, (त्वम्)=तुम,  (चम्वोः) पदातिहस्त्यश्वादिरूढयोः सेनयोरिव=पैदल और सवारों की सेनाओं के समान, (इव)=जैसे, (शिष्टम्) शिष्यते यस्तम्= शिक्षा करने योग्य, (सोमम्) सर्वरोगनाशकबलपुष्टिबुद्धिवर्द्धकमुत्तमौषध्यभिषवम्=सर्वरोगविनाशक बलपुष्टि और बुद्धि को बढ़ानेवाले उत्तम ओषधि के रस को, (उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे=उत्कृष्टता से, (भर) धर=धारण कर (तेन)=उस से, (उभे)=दोनों, (सेने)=सेनाओं में, (पवित्रे) शुद्धे सेविते=शुद्धता से प्रयोग किये गये,  (आ) समन्तात्=अच्छे प्रकार से, (सृज) निष्पादय= बनाइये (गोः) पृथिव्याः=पृथिवी के, (अधि) उपरि=ऊपर अर्थात् (त्वचि) पृष्ठे=उस की पीठ पर, (ते)=आप,  (नि) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (धेहि) संस्थापय=स्थापित करो॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    राजपुरुषों को चाहिये कि दो प्रकार की सेना रखें, एक तो सवारों की दूसरी पैदलों की, उनके लिये उत्तम रस और शस्त्र आदि सामग्री इकट्ठी करें, अच्छी शिक्षा और औषधि देकर शुद्ध बलयुक्त और नीरोग कर पृथिवी पर एक चक्रवर्त्ती राज्य का नित्य संचालन करें॥९॥ 

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद- सत्ताईसवें सूक्त से अग्नि और विद्वान् जिस-जिस गुण को कहे हैं, वे मूसल और ऊखली आदि साधनों को ग्रहण कर औषध्यादि पदार्थों से संसार के पदार्थों से अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उत्पन्न करें, इस अर्थ का इस सूक्त में सम्पादन करने से सत्ताईसवें सूक्त के कहे हुए अर्थ के साथ अट्ठाईसवें सूक्त की सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥९॥
    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम  (चम्वोः) पैदल और सवारों की सेनाओं के समान (इव) जैसे (शिष्टम्)  शिक्षा करने योग्य (सोमम्)  सर्व रोग विनाशक बलपुष्टि और बुद्धि को बढ़ाने वाले उत्तम ओषधि के रस को (उत्)  उत्कृष्टता से (भर) धारण कर (तेन) उस से (उभे) दोनों (सेने) सेनाओं में (पवित्रे)  शुद्धता से प्रयोग किये गये  (आ)  अच्छे प्रकार से (सृज) बनाइये (गोः)  पृथिवी के, (अधि) ऊपर अर्थात् (त्वचि) उस की पीठ पर (ते) आप  (नि) अच्छे प्रकार से (धेहि) स्थापित करो॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे (शिष्टम्) शिष्यते यस्तम् (चम्वोः) पदातिहस्त्यश्वादिरूढयोः सेनयोरिव (भर) धर (सोमम्) सर्वरोगनाशकबलपुष्टिबुद्धिवर्द्धकमुत्तमौषध्यभिषवम् (पवित्रे) शुद्धे सेविते (आ) समन्तात् (सृज) निष्पादय (नि) नितराम् (धेहि) संस्थापय (गोः) पृथिव्याः। गौरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अधि) उपरि (त्वचि) पृष्ठे॥९॥
    विषयः- पुनस्ताभ्यां किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे विद्वँस्त्वं चम्वोरिव शिष्टं सोममुद्भर तेनोभे सेने पवित्रे आसृज गोः पृथिव्या अधि त्वचि ते निधेहि नितरां संस्थापय॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजपुरुषादिभिर्द्विविधे सेने सम्पादनीये एका यानारूढा द्वितीया पदातिरूपा तदर्थमुत्तमा रसाः शस्त्रादिसामग्र्यश्च सम्पादनीयाः सुशिक्षयौषधादिदानेन च शुद्धबले सर्वरोगरहिते सङ्गृह्य पृथिव्या उपरि चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवनीयमिति॥९॥
    महर्षिकृतः सूक्तस्य (भावार्थः)- सप्तविंशेन सूक्तेनाग्निर्विद्वाँसश्चोक्तास्तैर्मुसलोलूखलादीनि साधनानि गृहीत्वौषध्यादिभ्यो जगत्स्थपदार्थेभ्यो बहुविधा उत्तमाः पदार्थाः सम्पादनीया इत्यस्मिन्सूक्ते प्रतिपादनात् सप्तविंशसूक्तोक्तार्थेन सहास्याष्टाविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥९॥

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    विषय

    चमुओं में सोम का भरण

    पदार्थ

    १. हमें चाहिए कि सोम को नष्ट न होने दें । यह शरीर का सर्वोत्तम रत्न है । शरीर की टूट - फूट को ठीक करने में जितना इसका विनियोग हो जाए उससे उच्छिष्टम् - बचे हुए सोम को चम्बोः - [चम्वो द्यावापृथिव्योर्नाम , नि० ३/३०] द्यावापृथिवी के निमित्त , अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के निमित्त [मूर्ध्नो द्यौः , पृथिवी शरीरम्] (भर) - शरीर में ही तू संभृत कर । यह सुरक्षित सोम तेरा वह कोश होगा जिसके द्वारा तू अपनी ज्ञानाग्नि में सदा समिधा डालता हुआ ज्ञानाग्नि को चमका सकेगा और रोगनाश द्वारा शरीर को पुष्ट बना सकेगा । 

    २. (सोमम्) - सोम को (पवित्रे) - मन की पवित्रता के निमित्त तू (आसज) - शरीर में चारों ओर व्याप्त करनेवाला बन । सोमरक्षण से शक्ति की वृद्धि होती है और मन में भी द्वेष - ईर्ष्यादि की हीन भावनाएँ नहीं उत्पन्न होतीं । 

    ३. तू इस सोम को (गोः) - ज्ञानरश्मि के (अधि) - आधिक्येन (त्वचि) - सम्पर्क के [touch - त्वच्] निमित्त (निधेहि) - निश्चित रूप से सुरक्षित रख । 

    भावार्थ

    भावार्थ - सोम को नष्ट न होने देकर शरीर में ही धारण करना चाहिए , जिससे हमारा मस्तिष्क व शरीर सुन्दर बने , मन पवित्र हो और हम ज्ञान - किरणों के खूब सम्पर्क में हों । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - सारे सूक्त की मूलभावना यही है कि हम सोम का रक्षण करें । इससे हम प्रभु के स्तोता व व्यापक उन्नतिवाले बनेंगे [१] । हमारे ज्ञान व हमारी भक्ति दोनों का ही पोषण होगा [२] । हृदय में प्रभु के नाम का मन्थन हमारी ज्ञानरश्मियों को संयत करेगा [५] । हम यज्ञशील , शक्तिशाली व उच्च विहरणवाले बनेंगे [७] । इसके रक्षण से ही हमारा जीवन शंसनीय बनेगा -

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    विषय

    राजा नायक को उपदेश ।

    भावार्थ

    ( चाम्वोः ) ‘चमू’ नाम अधि सवन पलक, ऊखल मूसल दोनों में ( शिष्टम् ) कूटे गये ( सोमम् ) अन्न को ( उद्भर ) निकाल लो । और पुनः ( सोमम् ) उस कुटे पिसे अन्न को ( पवित्रे ) साफ करने वाले छाज पर ( आ सृज ) रक्खो और (गोः त्वचि अधि) शेष सोम के गोचर्म पर ( निधेहि ) रक्खो । इसी प्रकार ( चम्वोः ) राष्ट्र का उपभोग करने वाले राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों के बीच में ( शिष्टम् ) शिक्षित विद्वान् पुरुष को ( उद् भर ) उन्नत पद पर स्थापित करो और ( सोमं ) ज्ञान से पूर्ण उपदेश को ( पवित्रे आसृज ) परम पावन, ब्राह्मण आचार्य आदि पद पर नियुक्त कर। और उसको ( गोः त्वचि अधि निधेहि ) वाणी, वेदज्ञान के संवरण रक्षा के कार्य पर नियुक्त कर । सेनापति राजा के पक्ष में (चम्वोः) पदाति और यान अश्व रथ आदि पर चढ़ी दोनों प्रकार की सेनाओं के ऊपर अथवा निज दोनों सेनाओं के बीच ( शिष्टम् ) सुशिक्षित पुरुष को ( उत् भर=हर ) उत्तम पद पर स्थापित कर । ( पवित्रे सोम् आ सृज ) पवित्र करने वा कण्टकों के शोधक पदपर सर्वाज्ञापक पुरुष को लगा । ( गोः त्वचि अधि ) पृथ्वी पर शासन करने के लिये ऐश्वर्यवान् राजा को स्थापित कर । इति षड्विशों वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ इन्द्रयज्ञसोमा देवताः ॥ छन्दः—१–६ अनुष्टुप् । ७–९ गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी दोन प्रकारच्या सेना बाळगाव्या. एक वाहनस्वार व दुसरे पायदळ. त्यांच्यासाठी उत्तम रस व शस्त्रे इत्यादी साहित्य एकत्र करावे. त्यांना चांगले शिक्षण व औषधी देऊन शुद्ध बलयुक्त व निरोगी बनवावे आणि पृथ्वीवर चक्रवर्ती राज्य स्थापन करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    High-priest of soma-yajna, come and create the purest soma as prescribed by experts, hold it on in special containers for vitalisation and place it on the floor of the earth for Indra.

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    Subject of the mantra

    Then, what should be accomplished by those (pestle and pounder)? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan)=scholar, (tvam)=you, (camvoḥ)=infantry and cavalry, (iva)=like (śiṣṭam)=teachable, (somam)=the sap of the best herbal medicine, which destroys all diseases, nourishes strength and increases intellect, (ut)=with excellence, (bhara)=hold, (tena)=by that, (ubhe)=both, (sene)=in armies, (pavitre)=used with precision, (ā)=well, (sṛja)=make, (goḥ)=of earth, (adhi)=above, [arthāt]=in other words, (tvaci)=on his back, (te)=you, (ni)=well, (dhehi)=establish.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! You, like infantry and cavalry, teachable, holding the sap of the best herbal medicine, which destroys all diseases, nourishes strength and increases intellect with excellence; by that in both the armies used with purity in both the armies, make well, above the earth, i.e. on its back, you establish it properly.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- From the twenty-seventh hymn, the fire and the virtues that the scholars have said, by adopting the means like pestle and pound etc., they can produce many types of best substances from the substances of the world, in making this translation of the twenty-seventh hymn. It should be known that the translation of the hymn is consistent with that of the twenty-eighth hymn.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The royal servants should keep two types of army, one the cavalry and the other infantry, collect the best juices and weapons etc. for them, by giving good education and herbal medicines, make a pure, strong and healthy and run a chakravarti kingdom on the earth.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The Chakravarti state is explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What else can be accomplished with them is taught in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, like the two armies, prepare the extract of the herbs which destroys all diseases and makes people strong. By their proper and pure use, make the soldiers of the army healthy and strong. Establish your good government on the face of the earth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the state, should have two kinds of army, one mounted on cars and carriages and the other on foot. For them, they should keep ready good extract of nourishing herbs and arms and ammunitions. The armies should be trained well and made healthy and strong by proper use of the herbs and drugs (when necessary. By adopting such means good and vast Government on earth should be established.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the 27th hymn. In that hymn, there was mention of fire and learned people, In this the use of mortar and pestle etc. for various domestic purposes is stated. So they are inter-connected. Here ends the twenty-eighth hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.

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