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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अश्वि॑ना॒ पुरु॑दंससा॒ नरा॒ शवी॑रया धि॒या। धिष्ण्या॒ वन॑तं॒ गिरः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । पुरु॑ऽदंससा । नरा॑ । शवी॑रया । धि॒या । धिष्ण्या॑ । वन॑तम् । गिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया। धिष्ण्या वनतं गिरः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। पुरुऽदंससा। नरा। शवीरया। धिया। धिष्ण्या। वनतम्। गिरः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्यावश्विनौ शवीरया धिया गिरो वनतं वाणीसेविनौ स्तः, तौ बुद्ध्या सेवयत॥२॥

    पदार्थः

    (अश्विना) अग्निजले (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (नरा) शिल्पविद्याफलप्रापकौ (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां तीव्रतासंपादिनौ (शवीरया) वेगवत्या। शव गतावित्यस्माद्धातोरीरन्प्रत्यये टापि च शवीरेति सिद्धम्। (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा। धीरिति कर्मप्रज्ञयोर्नामसु वायविन्द्रश्चेत्यत्रोक्तम्। (वनतम्) यौ सम्यग्वाणीसेविनौ स्तः। अत्र व्यत्ययः। (गिरः) वाचः॥२॥

    भावार्थः

    अत्राप्यग्निजलयोर्गुणानां प्रत्यक्षकरणाय मध्यमपुरुषप्रयोगत्वात् सर्वैः शिल्पिभिस्तौ तीव्रवेगवत्या मेधया पुरुषार्थेन च शिल्पविद्यासिद्धये सम्यक् सेवनीयौ स्तः। ये शिल्पविद्यासिद्धिं चिकीर्षन्ति तैस्तद्विद्या हस्तक्रियाभ्यां सम्यक् प्रसिद्धीकृत्योक्ताभ्यामश्विभ्यामुपयोगः कर्त्तव्य इति। सायणाचार्य्यादिभिर्मध्यमपुरुषस्य निरुक्तोक्तं विशिष्टनियमाभिप्रायमविदित्वाऽस्य मन्त्रस्यार्थोऽन्यथा वर्णितः। तथैव यूरोपवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चेति॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे अश्वी किस प्रकार के हैं, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं, वे (गिरः) शिल्पविद्यागुणों की बतानेवाली वाणियों को (वनतम्) सेवन करनेवाले हैं, इसलिये इनसे अच्छी प्रकार उपकार लेते रहो॥२॥

    भावार्थ

    यहाँ भी अग्नि और जल के गुणों को प्रत्यक्ष दिखाने के लिये मध्यम पुरुष का प्रयोग है। इससे सब कारीगरों को चाहिये कि तीव्र वेग देनेवाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये उक्त अश्वियों की अच्छी प्रकार से योजना करें। जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, उन पुरुषों को चाहिये कि विद्या और हस्तक्रिया से उक्त अश्वियों को प्रसिद्ध कर के उन से उपयोग लेवें। सायणाचार्य्य आदि तथा विलसन आदि साहबों ने मध्यम पुरुष के विषय में निरुक्तकार के कहे हुए विशेष अभिप्राय को न जान कर इस मन्त्र के अर्थ का वर्णन अन्यथा किया है॥२॥

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    विषय

    पुरुदंससा नरा

    पदार्थ

    १. (अश्विना) - हे प्राणापानो ! (पुरुदंससा) - आप पालक व पूरक [पृ पालनपूरणयोः] कर्मों के करनेवाले होओ । गतमन्त्र की भावना के अनुसार हमारे प्राणापान क्रियाशील हैं  , ये क्रियाएँ बहुतों का पालन व पूरण करनेवाली हों । 
    २. इस प्रकार पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों में लगे हुए ये प्राणापान (नरा) - हमें आगे और आगे ले - चलनेवाले हों  , हमारी उन्नति का कारण बनें । 
    ३. ये प्राणापान (धिष्ण्या) - [बुद्धिमन्तौ - सा०] उत्तम बुद्धिवाले हों । इन प्राणापान की साधना से सोम की रक्षा होकर हमारी बुद्धि तीव्र बनती है । 
    ४. इस प्रकार तीन बुद्धिवाले (शवीरया) - [गतियुक्त्या अप्रतिहतप्रसरया] जो किसी भी विषय के ग्रहण में कुण्ठित नहीं होती ऐसी (धिया) - बुद्धि से (गिरः) - इन ज्ञान की वाणियों का (वनतम्) - सेवन करो  , अर्थात् हम प्राणसाधना से तीव्र बुद्धिवाले बनें और उस बुद्धि से ज्ञान की वाणियों का उपासन करें । हम बुद्धि को व्यर्थ के विचारों में प्रयुक्त करनेवाले न हो जाएँ । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान 'पुरुदंसस्' हैं  , ये हमें उत्तम बुद्धि - सम्पन्न बनाकर ज्ञान की वाणियों का सेवन करनेवाले बनाएँ । 

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    विषय

    फिर वे अश्वी किस प्रकार के हैं, सो उपदेश इस मन्त्र में किया है-

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्या अवश्विनौ शवीरया धिया गिरः वनतं वाणीसेविनौ स्तःतौ बुद्ध्या सेवयत॥२॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)= मनुष्यो ! (यूयम्)= तुम लोग (यौ)= जिनसे, (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ= जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (नरौ) शिल्पविद्याफलप्रापकौ= उस विद्या के फल को देनेवाले और (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां व्रतासंपादिनौ= जो कि सवारियों में वेग आदि की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल (अश्विनौ) अग्निजले= अग्नि और जल से (शवीरया) वेगवत्या= वेग देनेवाली (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा= क्रिया या जानकारी से (गिरः) वाचः=वाणियों को, (वनतम्) यौ सम्यग्वाणीसेविनौ स्तः=जो अच्छी प्रकार से सेवन करने वाली वाणी हैं, (तौ)=उनका, (बुद्ध्या)=बुद्धि से (सेवयत)=सेवन करो॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहाँ भी अग्नि और जल के गुणों को प्रत्यक्ष दिखाने के लिये मध्यम पुरुष का प्रयोग है। इससे सब कारीगरों को चाहिये कि तीव्र वेग देनेवाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये [उक्त जल और अग्नि का] का प्रयोग अच्छी प्रकार से करें। जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, उनको वह विद्या हाथों की क्रिया से अच्छी तरह से प्रसिद्ध कर के उन उक्त  [अश्विभ्याम्] अग्नि और जल का उपयोग करना चाहिए। ॥२॥ 

    विशेष

    महर्षि द्वारा की गई टिप्पणी-सायणाचार्य्य आदि तथा विलसन आदि साहबों ने मध्यम पुरुष के विषय में निरुक्तकार के कहे हुए विशेष अभिप्राय को न जान कर इस मन्त्र के अर्थ का वर्णन अन्यथा किया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यों ! (यूयम्)  तुम लोग, (यौ) जिनसे (पुरुदंससा) शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं । (नरौ) उस विद्या के फल को देनेवाले और (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल  (अश्विनौ) अग्नि और जल से (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया या जानकारी से (गिरः) वाणियों को, (वनतम्) जो अच्छी प्रकार से सेवन करने वाले हैं, (तौ) उनका (बुद्ध्या) बुद्धि से (सेवयत) सेवन करो॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अश्विना) अग्निजले (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (नरा) शिल्पविद्याफलप्रापकौ (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां तीव्रतासंपादिनौ (शवीरया) वेगवत्या। शव गतावित्यस्माद्धातोरीरन्प्रत्यये टापि च शवीरेति सिद्धम्। (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा। धीरिति कर्मप्रज्ञयोर्नामसु वायविन्द्रश्चेत्यत्रोक्तम्। (वनतम्) यौ सम्यग्वाणीसेविनौ स्तः। अत्र व्यत्ययः। (गिरः) वाचः॥२॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्यावश्विनौ शवीरया धिया गिरो वनतं वाणीसेविनौ स्तः, तौ बुद्ध्या सेवयत॥२॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्राप्यग्निजलयोर्गुणानां प्रत्यक्षकरणाय मध्यमपुरुषप्रयोगत्वात् सर्वैः शिल्पिभिस्तौ तीव्रवेगवत्या मेधया पुरुषार्थेन च शिल्पविद्यासिद्धये सम्यक् सेवनीयौ स्तः। ये शिल्पविद्यासिद्धिं चिकीर्षन्ति तैस्तद्विद्या हस्तक्रियाभ्यां सम्यक् प्रसिद्धीकृत्योक्ताभ्यामश्विभ्यामुपयोगः कर्त्तव्य इति। 

    महर्षिकृतःटिप्पणीः- सायणाचार्य्यादिभिर्मध्यमपुरुषस्य निरुक्तोक्तं विशिष्टनियमाभिप्रायमविदित्वाऽस्य मन्त्रस्यार्थोऽन्यथा वर्णितः। तथैव यूरोपवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चेति॥२॥

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    विषय

    आश्विनी नाम से रथी और अश्वारोही, जल और अग्नि, सूर्य चन्द्र, राजा सेनापति, दिन रात्रि, पृथिवी और अग्नि, का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) मुख्य २ अधिकार के भोगने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ! ( पुरुदंससा ) बहुत से कर्म करने में कुशल ( नरा ) सव प्रजाओं के नायक हो । आप दोनों ( धिष्ण्या ) शत्रु और प्रतिपक्षियों को दमन करने में समर्थ होकर ( शवीरया धिया ) ज्ञानयुक्त बुद्धि से ( गिरः वनतम् ) वाणियों का सेवन करो, प्रयोग करो, परस्पर वचन कहो और सुनो। और उत्तम वेदवाणियों का अभ्यास करो । अग्नि और जल पक्ष में – अग्नि और जल दोनों वेग उत्पन्न करनेवाली क्रिया से युक्त होकर बहुत से कर्म करते हैं । वे दृढ़ बल से युक्त होकर उपयोगी नाना ज्ञानों को प्रकट करते हैं । प्राण और अपान दोनों पुरु नाम इन्द्रियों के भीतर कर्म प्रवर्त्तक हों । वे दोनों अति तीव्र गति वाली ज्ञानशक्ति से नाना श्रोत्रादि स्थानों पर स्थिर होकर नाना वाणियों का पात्र होते हैं ।

    टिप्पणी

    ‘शवीरया धिया’ – शव गतौ । अतो रन् । गतिर्ज्ञानं प्राप्तिश्चेति तद्युक्तया । धीरिति कर्मप्रज्ञयोर्नाम ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथेही अग्नी व जलाच्या गुणांना प्रत्यक्ष दर्शविण्यासाठी मध्यम पुरुषाचा प्रयोग केलेला आहे. त्यासाठी सर्व कारागिरांनी अत्यंत कौशल्याने व आपल्या पुरुषार्थाने शिल्पविद्येची सिद्धी होण्यासाठी वरील अश्वींची (अग्नी व जलाची) चांगल्या प्रकारे योजना करावी. जे शिल्पविद्या सिद्ध करण्याची इच्छा बाळगतात त्या पुरुषांनी विद्या व हस्तक्रिया यांनी वरील ‘अश्विं’ना प्रसिद्ध करावे व त्यांचा उपयोग करून घ्यावा ॥

    टिप्पणी

    सायणाचार्य व विल्सन इत्यादी साहेबांनी मध्यम पुरुषाविषयीचा निरुक्तकाराने सांगितलेला विशेष अभिप्राय न जाणता या मंत्राचा वेगळाच अर्थ लावलेला आहे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Ashvins, divine powers of creative energy working through fire and water, are wondrous heroic achievers of mighty deeds with relentless acts of scientific study and research. Rich and generous, may they respond to our invocations and grant our voice of hope and prayer.

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    Translation

    These twin faculties, mental and vital, lead. to mighty acts, and guide our thoughts, expressions and actions, endowed with fortitude. May these faculties be always of service to us in our intellectual pursuits.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of those Ashvi (Aśvinau) are, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=men, (yūyam)=you people, (yau)=by whom, (purudaṃsasā)=many tasks are accomplished for craftsmanship, (narau) =those providing effects of that knowledge, [aura]=and, (dhiṣṇyā) =extremely powerful for generating speed in vehicles, (aśvinau)=with fire and water, (śavīrayā)=accelerating speed, (dhiyā)= by action or information, [ve]=those, (giraḥ)= to speech, (vanatam)=which are able to be used well, (tau)=them, (buddhyā)=wisely, (sevayata)=use.

    English Translation (K.K.V.)

    O human beings! You people from whom many deeds are accomplished for craftsmanship. Those who give the reward of that knowledge, are capable of producing the intensity of speed etc. in the riders. Use with fire and water, those which are well served by the action or knowledge that give speed. Enjoy them with intelligence.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Here too, the [madhyama puruṣa] middle person is used to directly show the qualities of fire and water. With this, all the artisans should use the above water and fire properly for the accomplishment of the craftsmanship with fast speed and their efforts. Those who wish to perfect the craftsmanship, they should make that knowledge well known by the action of hands and use those said [aśvibhyām] fire and water.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The comment of Maharshi Dayanand regarding the translation by Sayana and European scholars is given below- Sayanacharya, Wilson etc. and other European scholars have translated this mantra differently, not knowing the specific meaning of the word as per etymologist about the middle person [madhyama puruṣa].

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of these "Ashvinau” is explained further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    These Ashvinau (fire and water etc.) are abounding in mighty acts or rich in wondrous deeds, they help the rapid movement of various conveyances, are the conferrers of the fruits of the Science of Arts and Crafts. They should be properly. utilized, so that our tasks may be soon accomplished.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The use of the second person in the text is to show that they (fire and water etc.) should be visualized and utilized with intelligence and industriousness in order to accomplish technology. Those who desire to acquire proficiency in art and industry, should make experiments with hands utilizing the water and अग्नि ( fire, electricity etc. ) properly. धीरिति कर्मनाम (निघ० २.१) धोरितिप्रज्ञानाम (निघ० ३.९) Not understanding proper rule about the use of second person given for inanimate objects, Sayanacharya and Wilson etc. have interpreted this Mantra wrongly.

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