ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 16
शश्व॒दिन्द्रः॒ पोप्रु॑थद्भिर्जिगाय॒ नान॑दद्भिः॒ शाश्व॑सद्भि॒र्धना॑नि। स नो॑ हिरण्यर॒थं दं॒सना॑वा॒न्त्स नः॑ सनि॒ता स॒नये॒ स नो॑ऽदात्॥
स्वर सहित पद पाठशश्व॑त् । इन्द्रः॑ । पोप्रु॑थत्ऽभिः । ज॒गा॒य॒ । नान॑दत्ऽभिः । शाश्व॑सत्ऽभिः । धना॑नि । सः । नः॒ । हि॒र॒ण्य॒ऽर॒थम् । दं॒सना॑ऽ वान् । सः । नः॒ । स॒नि॒ता । स॒नये॑ । सः । नः॒ । अ॒दा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शश्वदिन्द्रः पोप्रुथद्भिर्जिगाय नानदद्भिः शाश्वसद्भिर्धनानि। स नो हिरण्यरथं दंसनावान्त्स नः सनिता सनये स नोऽदात्॥
स्वर रहित पद पाठशश्वत्। इन्द्रः। पोप्रुथत्ऽभिः। जिगाय। नानदत्ऽभिः। शाश्वसत्ऽभिः। धनानि। सः। नः। हिरण्यऽरथम्। दंसनाऽ वान्। सः। नः। सनिता। सनये। सः। नः। अदात्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स सभाध्यक्षः कीदृशः किं करोतीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
इन्द्रो जगदीश्वरः शश्वत् शश्वतोऽनादेः कारणात् नानदद्भिः शाश्वसद्भिः पोप्रुथद्भिः कार्यैर्द्रव्यैर्जिगाय जयति स दंसनावानीश्वरो नोऽस्मभ्यं हिरण्यरथमदाद् ददाति दास्यति स नोऽस्माकं सनये सुखानां सनिता सर्वाणि सुखान्यदादिव सभासेनापतिर्वर्त्तेत॥१६॥
पदार्थः
(शश्वत्) अनादिस्वरूपाज्जगत्कारणात् (इन्द्रः) सृष्टिकर्त्तेश्वरः राज्यशास्ता (पोप्रुथद्भिः) अतिशयेन स्थूलैरचरैः कार्यैः। अत्र प्रोथृ पर्याप्तावित्यस्माद् यङ्लुगन्ताच्छतृप्रत्यय उपधाया उत्वं च वर्णव्यत्ययेन (जिगाय) जयति प्रकर्षतां प्रापयति। अत्र लडर्थे लिट्। (नानदद्भिः) अतिशयेनाव्यक्तशब्दं कुर्वद्भिर्जीवैर्विद्युदादिभिर्वा (शाश्वसद्भिः) अतिशयेन प्राणवद्भिश्चरैः (धनानि) पृथिवीसुवर्णविद्यादीनि (सः) उक्तार्थः (नः) अस्मभ्यम् (हिरण्यरथम्) हिरण्यानां ज्योतिर्मयानां सूर्यादीनां लोकानां सुवर्णादीनां वा रथो देशान्तरप्रापणो यानसमूहः। अत्र रथ इति रमु क्रीडायामित्यस्य रूपं रमधातो रूपं वा। (दंसनावान्) दंसः कर्म आचष्टेऽनया सा दंसना। सा बह्वी विद्यते यस्य सः। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) अस्मात् तत्करोति तदाचष्टे इति णिच् ततो ण्यासश्रन्थो युच् इति युच् ततो भूम्न्यर्थे मतुप्। (सः) सर्वेषां जीवानां पापपुण्यफलानां विभागदाता (नः) अस्माकम् (सनिता) विद्याकर्मोपदेशेन सम्भाजिता (सनये) सुखानां सम्भोगाय (सः) उक्तार्थः (नः) अस्मभ्यम् (अदात्) दत्तवान्। ददाति दास्यति वा। अत्र छन्दसि लुङ्लङ्लिटः इति सामान्यकाले लुङ्॥१६॥
भावार्थः
यथा जगदीश्वरः सनातनाज्जगत्कारणाच्चराचराणि कार्याण्युत्पाद्यैतैः सर्वेभ्यो जीवेभ्यस्सर्वाणि सुखानि ददाति तथा सभासेनापतिर्न्यायाधीशाः सर्वाणि सभासेनान्यायाङ्गानि निष्पाद्य सर्वाः प्रजा निरन्तरमानन्दयेयुः यथा नैतस्माद्भिन्नः कश्चिज्जगत्स्रष्टा कर्मफलप्रदाता राज्यप्रशास्ता च भवितुमर्हति तथैव सर्वमेतदनुतिष्ठेरन्॥१६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा और क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(इन्द्रः) जगत् का रचनेवाला ईश्वर (शश्वत्) अनादि सनातन कारण से (नानदद्भिः) तड़फ और गर्जना आदि शब्दों को करती हुई बिजली और नदी अचेतन और जीव तथा (शाश्वसद्भिः) अति प्रशंसनीय प्राणवाले चर वा (पोप्रुथद्भिः) स्थूल जो कि अचर हैं, उन कार्य्यरूपी पदार्थों से (धनानि) पृथिवी सुवर्ण और विद्या आदि धनों को (जिगाय) प्रकर्षता अर्थात् उन्नति को प्राप्त करता है (सः) वह (दंसनावान्) कर्मों का फल देने हारा और साधनों से संयुक्त ईश्वर (नः) हमारे लिये (हिरण्यरथम्) ज्योतिवाले सूर्य आदि लोक वा सुवर्ण आदि पदार्थों के प्राप्त करानेवाले पदार्थों को और विमान आदि रथों को (अदात्) प्रत्यक्ष करता है (सः) (नः) हम को सुखों के (सनये) भोग के लिये (सनिता) विद्या, कर्म और उपदेश से विभाग करनेवाला होकर सब सुखों को (अदात्) देता है, वैसा सभा, सेनापति और न्यायाधीश भी वर्तें॥१६॥
भावार्थ
जैसे जगदीश्वर सनातन कारण से चर और अचर कार्यों को उत्पन्न करके इन्हीं से सब जीवों को सुख देता है, वैसे सभा, सेनापति, न्यायाधीश लोग सब सभा, सेना और न्याय के अङ्गों को सिद्ध कर सब प्रजा को निरन्तर आनन्दयुक्त करते हैं, जैसे इससे और कोई संसार का रचने वा कर्म फल का देने और ठीक न्याय से राज्य का पालन करनेवाला नहीं हो सकता, वैसे वे भी सब कार्य्य करें॥१६॥
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा और क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
इन्द्रः जगदीश्वरः शश्वत् शश्वतः अनादिकारणात् नानदद्भिः शाश्वसद्भिः पोप्रुथद्भिः कार्यैः द्रव्यैः जिगाय जयति स दंसनावाना ईश्वरः नः अस्मभ्यं हिरण्यरथम् अदात् ददाति दास्यति स नः अस्माकं सनये सुखानां सनिता सर्वाणि सुखानि आदादिव सभासेनापतिः वर्त्तेत॥१६॥
पदार्थ
(इन्द्रः) सृष्टिकर्त्तेश्वरः राज्यशास्ता=जगत् का रचनेवाला या राज्य का शासनकर्त्ता (जगदीश्वरः)= ईश्वर, (शश्वत्) अनादिस्वरूपाज्जगत्कारणात्=अनादि सनातन कारण से, (नानदद्भिः) अतिशयेनाव्यक्तशब्दं कुर्वद्भिर्जीवैर्विद्युदादिभिर्वा= अतिशय अव्यक्त शब्दों को करते हुए जीवों से और गर्जना आदि और बिजली की कड़क से, (शाश्वसद्भिः) अतिशयेन प्राणवद्भिश्चरैः= अति प्रशंसनीय प्राणवाले चर वा, (पोप्रुथद्भिः) अतिशयेन स्थूलैरचरैः कार्यैः=जो अतिशय स्थूल अचर हैं, उन कार्य्यरूपी पदार्थों से, (जिगाय) जयति प्रकर्षतां प्रापयति=प्रकर्षता अर्थात् उन्नति को प्राप्त करता है (सः) वह, (दंसनावान्) कर्मों का फल देने हारा और साधनों से संयुक्त, (सः) उक्तार्थः=पूर्वोक्त ईश्वर, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (हिरण्यरथम्) हिरण्यानां ज्योतिर्मयानां सूर्यादीनां लोकानां सुवर्णादीनां वा रथो देशान्तरप्रापणो यानसमूहः=ज्योतिवाले सूर्य आदि लोक वा सुवर्ण आदि पदार्थों के प्राप्त करानेवाले पदार्थों को और विमान आदि रथों को, (अदात्) दत्तवान्। ददाति दास्यति वा=देता है, (सः) उक्तार्थः=ऐसा, (नः) अस्माकम्=हमारे, (सनये) सुखानां सम्भोगाय=सुख के भोग के लिये (सनिता) विद्याकर्मोपदेशेन सम्भाजिता विद्या=विद्या और के कर्म के उपदेश से उचित रूप से बंटा हुआ, (सर्वाणि)=सब, (सुखानि)=सुखों को, (आ)=सब प्रकार से, (अदात्) देता है, (इव)=इसके जैसा, (सभासेनापतिः)=सभा का सेनापति, (वर्त्तेत)=व्यवहार करे॥१६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे जगदीश्वर सनातन कारण से चर और अचर कार्यों को उत्पन्न करके इन्हीं से सब जीवों को सुख देता है, वैसे सभा, सेनापति, न्यायाधीश लोग सब सभा, सेना और न्याय के अङ्गों को प्रभावी करके समस्त प्रजा को निरन्तर आनन्दयुक्त करते हैं। जैसे इससे भिन्न कोई संसार का रचने वाला, कर्म फल का देनेवाला और राज्य का प्रशासन करनेवाला होने योग्य नहीं है, वैसे ही सबको यह कार्य सिद्ध करना चाहिए॥१६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(इन्द्रः) जगत् का रचनेवाला (जगदीश्वरः) ईश्वर (शश्वत्) अनादि सनातन कारण से (नानदद्भिः) अतिशय अव्यक्त शब्दों करते हुए जीवों से और गर्जना आदि और बिजली की कड़क से, (शाश्वसद्भिः) अति प्रशंसनीय प्राणवाले चर या, (पोप्रुथद्भिः) जो अतिशय स्थूल अचर हैं, उन कार्यरूपी पदार्थों से, (जिगाय) प्रकर्षता अर्थात् उन्नति को प्राप्त करता है (सः) वह, (दंसनावान्) कर्मों का फल देने हारा और साधनों से संयुक्त, (सः) पूर्वोक्त (दंसनावाना) कर्मों का फल देनेवाला और साधनों से संयुक्त (ईश्वरः) ईश्वर (नः) हमारे लिये (हिरण्यरथम्) ज्योतिवाले सूर्य आदि लोक वा सुवर्ण आदि पदार्थों के प्राप्त करानेवाले पदार्थों को और विमान आदि रथों को (अदात्) देता है, (सः) ऐसा पूर्वोक्त ईश्वर (नः) हमारे (सनये) सुख के भोग के लिये (सनिता) विद्या और के कर्म के उपदेश से उचित रूप से बंटा हुआ (सर्वाणि) सब (सुखानि) सुखों को (आ) सब प्रकार से (अदात्) देता है। (इव) इसके जैसा (सभासेनापतिः) सभा का सेनापति (वर्त्तेत) व्यवहार करे॥१६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (शश्वत्) अनादिस्वरूपाज्जगत्कारणात् (इन्द्रः) सृष्टिकर्त्तेश्वरः राज्यशास्ता (पोप्रुथद्भिः) अतिशयेन स्थूलैरचरैः कार्यैः। अत्र प्रोथृ पर्याप्तावित्यस्माद् यङ्लुगन्ताच्छतृप्रत्यय उपधाया उत्वं च वर्णव्यत्ययेन (जिगाय) जयति प्रकर्षतां प्रापयति। अत्र लडर्थे लिट्। (नानदद्भिः) अतिशयेनाव्यक्तशब्दं कुर्वद्भिर्जीवैर्विद्युदादिभिर्वा (शाश्वसद्भिः) अतिशयेन प्राणवद्भिश्चरैः (धनानि) पृथिवीसुवर्णविद्यादीनि (सः) उक्तार्थः (नः) अस्मभ्यम् (हिरण्यरथम्) हिरण्यानां ज्योतिर्मयानां सूर्यादीनां लोकानां सुवर्णादीनां वा रथो देशान्तरप्रापणो यानसमूहः। अत्र रथ इति रमु क्रीडायामित्यस्य रूपं रमधातो रूपं वा। (दंसनावान्) दंसः कर्म आचष्टेऽनया सा दंसना। सा बह्वी विद्यते यस्य सः। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) अस्मात् तत्करोति तदाचष्टे इति णिच् ततो ण्यासश्रन्थो युच् इति युच् ततो भूम्न्यर्थे मतुप्। (सः) सर्वेषां जीवानां पापपुण्यफलानां विभागदाता (नः) अस्माकम् (सनिता) विद्याकर्मोपदेशेन सम्भाजिता (सनये) सुखानां सम्भोगाय (सः) उक्तार्थः (नः) अस्मभ्यम् (अदात्) दत्तवान्। ददाति दास्यति वा। अत्र छन्दसि लुङ्लङ्लिटः इति सामान्यकाले लुङ्॥१६॥
विषयः- पुनः स सभाध्यक्षः कीदृशः किं करोतीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- इन्द्रो जगदीश्वरः शश्वत् शश्वतोऽनादेः कारणात् नानदद्भिः शाश्वसद्भिः पोप्रुथद्भिः कार्यैर्द्रव्यैर्जिगाय जयति स दंसनावानीश्वरो नोऽस्मभ्यं हिरण्यरथमदाद् ददाति दास्यति स नोऽस्माकं सनये सुखानां सनिता सर्वाणि सुखान्यदादिव सभासेनापतिर्वर्त्तेत॥१६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा जगदीश्वरः सनातनाज्जगत्कारणाच्चराचराणि कार्याण्युत्पाद्यैतैः सर्वेभ्यो जीवेभ्यस्सर्वाणि सुखानि ददाति तथा सभासेनापतिर्न्यायाधीशाः सर्वाणि सभासेनान्यायाङ्गानि निष्पाद्य सर्वाः प्रजा निरन्तरमानन्दयेयुः यथा नैतस्माद्भिन्नः कश्चिज्जगत्स्रष्टा कर्मफलप्रदाता राज्यप्रशास्ता च भवितुमर्हति तथैव सर्वमेतदनुतिष्ठेरन्॥१६॥
विषय
धन - विजय व धनदान
पदार्थ
१. (इन्द्रः) - जितेन्द्रिय पुरुष अपने इन्द्रियरूप अश्वों से , जो अश्व (पोप्रुथद्भिः) - [to withstand] जो सब विघ्न - बाधाओं का मुकाबिला करके आगे बढ़ते हैं , [to be able] जो अपना कार्य करने में समर्थ हैं , [to subdue , overcome] जो सर्दी - गर्मी आदि को जीत लेनेवाले हैं तथा (नानद्भिः) - निरन्तर प्रभुस्तवन में लगे हैं , (शश्वरिः) - जिनसे प्राण - साधना ठीक रूप से चल रही है , ऐसे इन्द्रियाश्वों से (धनानि) - धनों को (शश्वत) - सदा (जिगाय) - जीतता है ।
२. वस्तुतः जीव क्या जीतता है (सः) - वह प्रभु ही (वः) - हमें (दंसनावान्) - सब उत्तम कर्मों को करनेवाले होते हुए (हिरण्यरथे) - ज्योतिर्मय शरीररूप रथ को (अदात्) - देते हैं । प्रभुकृपा से ही हमें जीवन - यात्रा को पूर्ण करने के लिए यह शरीररूप रथ मिला है जो कि पाँच ज्ञानेन्द्रियरूप दीपकों से तथा बुद्धिरूप महान् दीपक से ज्योतिर्मय हो रहा है ।
३. (सः) - वे प्रभु ही (नः) - हमें (सनिता) - सब - कुछ देनेवाले हैं । (सः) - वह (सनये) - दान के लिए (नः) - हमें (अदात्) - देते हैं । प्रभु इसलिए देते हैं कि हम दान करनेवाले बनें ।
४. देते तो प्रभु ही हैं , परन्तु तभी जबकि हम जितेन्द्रिय बनते हैं [इन्द्रः] । जब हम अपनी इन्द्रियों को कार्य - समर्थ बनाते हैं [पोप्रुथद्भिः] , जब हम प्रभु - स्तवन की वृत्तिवाले होते हैं [नानद्भिः] , तथा जब हम प्राण - साधन करते हैं [शश्वसद्भिः] ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - कृपा से हमें धन प्राप्त होते हैं । ये धन इसलिए प्राप्त होते हैं कि हम इन्हें दान करनेवाले बनें ।
विषय
अक्ष के दृष्टान्त से सेनापति का वर्णन । पक्षान्तर में परमेश्वर (
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता, भूमि और राष्ट्र का पालक राजा (पोप्रुथद्भिः) नथुने फुनफुनाते हुए, अतिपर्याप्त बलशाली, व्यायामशील (नानदद्भिः) मेघनाद करते हुए (शाश्वसद्भिः) निरन्तर श्वास लेनेवाले घोड़ों से (धनानि) नाना ऐश्वर्यों का (शश्वत्) निरन्तर (जिगाय) विजय करे। और (सः) वह (दंसनावान्) कर्म शक्ति से सम्पन्न होकर (नः) हमे (हिरण्यरथम्) सुवर्ण और लोहादि धातु के बने रथ (अदात्) दान करे। और (सः) वह (सनिता) सब ऐश्वर्यों का दाता दानशील (नः) हमें (सनये) दान देने या ऐश्वर्य विभाग करने के लिये ही (नः अदात्) हमें दान दे। परमेश्वर के पक्ष में—(इन्द्रः) परमेश्वर (शश्वत्) अनादिकारण से ही उत्पन्न कर के अनादिकाल से ही और (पोप्रुथद्भिः) अति परिमित, स्थल परिमाण में रहने वाले (नानदद्भिः) नाना अत्यन्त शब्द करने वाले विद्युत् आदि पदार्थों और नाना जीवों से और (शाश्वसद्भिः) निरन्तर श्वास लेने वाले प्राणियों द्वारा (धनानि) नाना ऐश्वर्य (जिगाय) उत्पन्न करता और उनको अपने वश करता है वह ही (सनिता) दानी, ( दंसनावान्) सर्वशक्तिमान्, (नः) हमारे (सनये) भोगके लिये (नः) हमे (हिरण्यरथं) सुवर्णादि रथ अथवा हितकारी रमण योग्य आत्मा के देह रूप रथ को प्रदान करता है। अध्यात्म में—(इन्द्र) आत्मा (पोप्रुथद्भिः) नाक के नथुनों को कंपाने वाले, (नानदद्भिः) नाद करने बाले (शाश्वसद्भिः) श्वास लेने वाले प्राणों से (धनानि जिगाय) प्रिय लगने वाले, भोग्य पदार्थों को प्राप्त करता है। वही (दंसनावान्) कर्म चेष्टाओं का स्वामी होकर (नः सनिता) हमारा भोक्ता आत्मा (सनये) सुख प्राप्त करने के लिये (हिरण्यरथं) आत्मा के परम तेजोमय रस को हमें प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे जगदीश्वर सनातन कारणाने चर व अचर कार्यांना उत्पन्न करून त्यांच्याद्वारे सर्व जीवांना सुख देतो तसे सभा सेनापती न्यायाधीश लोक सर्व सभा सेना व न्यायाच्या अंगांना सिद्ध करून सर्व प्रजेला निरंतर आनंदी करतात. जसे त्याच्याखेरीज (परमेश्वराखेरीज) दुसरा कुणी जगाचा निर्माता किंवा फलदाता, न्यायाने राज्यपालनकर्ता होऊ शकत नाही, तसेच त्यांनीही (सभा, सेनापती व न्यायाधीश) सर्व कार्य करावे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, the eternal creator, with roaring, moving, non-moving and animate things and materials, creates the wealth of existence such as earth, gold and knowledge and rises in glory. May He, lord of generosity and dispensation of justice, give us golden chariots and bless us with wealth of the world for happiness and well being.
Subject of the mantra
Then, how is that chairperson and what does he do? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(indraḥ)=creator of the world, (jagadīśvaraḥ)=God, (śaśvat)=for primordial cause, (nānadadbhiḥ)= excessive roaring etc. and doing words with the sound of lightning, (śāśvasadbhiḥ) highly commendable life moving or, (popruthadbhiḥ)=from those substances of action which are very voluminous and immovable, (jigāya)=achieves excellence or prosperity, (saḥ)=that, (daṃsanāvān)=the one who gives the rewards of the actions and is combined with the means, (saḥ)=aforesaid God, (daṃsanāvānā)=the one who gives the rewards of the actions and is combined with the means. (īśvaraḥ)=God, (naḥ)=for us, (hiraṇyaratham)= those who receive the luminous sun, etc.world or gold etc., and the chariots of the aircraft etc. (adāt)=provides, (saḥ)=such aforesaid God, (naḥ)=our, (sanaye)=for pleasure, (sanitā)=appropriately divided by the teachings of Vidya. and that, (sarvāṇi)=all, (sukhāni)=to delights, (ā)=by all means, (adāt)=provides, (iva)=like this (sabhāsenāpatiḥ)=General of the Assembly (vartteta)= should behave.
English Translation (K.K.V.)
The God, creator of the world, roars and utters words with the sound of lightning, because of the primordial cause, attains effulgence, that is, progress from the objects of action, which are extremely gross and immovable. He is the provider of the rewards of the actions and is associated with the means. Such aforesaid God gives for us the luminous Sun, et cetera and the chariots, etc. This is aptly divided by the teachings of Vidya (knowledge) for the enjoyment of our happiness. And He gives all the pleasures in every way. Like this, the general of the assembly should behave.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as God, by creating movable and immovable works from the eternal cause, gives happiness to all living beings, so the assembly, commanders, judges, by giving effect to all the assembly, army and the sections of the justice, make all the descendants continuously happy. Just as no one other than this God is worthy to be the creator of the world, provider of the rewards of the actions and the administration of the kingdom, so should everyone accomplish this task.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is that Indra (President of the Assembly and what does he do is taught in the 16th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Indra (God) conquers all wealth and causes all to prosper having created all things from the eternal Primordial Matter with gross and inanimate articles, souls or electricity etc. making indistinct sound and living vital beings. He the Doer of all noble deeds gives and will give to us vehicles, cars and aero planes etc. to go round the world, shining substances like the sun and gold etc. He is the Giver of the fruit of our actions for our happiness. A President of the Assembly or commander of the army should also behave like Him, trying to follow Him in justice and benevolence.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( शश्वत् ) अनादिस्वरूपात् जगत्कारणात् = From the eternal cause of the Universe i. e. Primordial Matter. ( इन्द्रः ) सृष्टिकर्ता ईश्वरः राज्यशास्ता । = God the Creator and Lord of the world. ( पोप्रथद्भिः) अतिशयेन स्थूलै: अचरैः कार्यैः । अत्र प्रोथृ पर्याप्तौ इत्यस्मात् यड्-युगन्तात् शतृप्रत्यय उपधाया उत्वं च वर्णव्यत्ययेन । = By the souls or lightning or electricity etc. making indistinct sound. ( धनानि ) पृथिवी सुवर्णविद्यादीनि- Wealth consisting of the earth, gold or knowledge etc. ( हिरण्यरथम्) हिरण्यानां ज्योतिर्मयानां सूर्यादीनां लोकानां सुवर्णादीनां यूथो वा रथः-देशान्तर प्रापणोयान समूहः । अत्र रंथ इति रमु क्रीडायाम् इत्यस्य रूपम् । = Vehicles of various kinds. (दंसनावान्) दंस: कर्म आचष्टे इत्यनया सा दंसना | सा बहूवी विद्यते यस्य सः । दंस इति कर्मनामसु पठितम् ( निघ० २.१ ) अस्मात् तत् करोति तदाचष्ट इतिणिच् ततो ण्यासश्रन्धो युच् इति युच् ततो भूम्न्यर्थे मतुप् । = Doer of noble deeds. ( सनिता) विद्या कर्मोपदेशेन संभाजिता । = Distributor or Giver of the fruit according to the knowledge and works of the people.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As God creates all animate and inanimate things and beings (moving and stationary) and gives happiness to all through them, in the same way, the president of the Assembly or the Commander of an army, dispensers of justice like the magistrates or judges having completed assemblies, armies and means of justice should constantly gladden all subjects. All should believe that there is none else the Creator of the world, the Giver of the fruit of our actions and our Sovereign than one God and they should act accordingly.
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