ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 21
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - उषाः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
व॒यं हि ते॒ अम॑न्म॒ह्यान्ता॒दा प॑रा॒कात्। अश्वे॒ न चि॑त्रे अरुषि॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । हि । ते॒ । अम॑न्महि । आ । अन्ता॑त् । आ । प॒रा॒कात् । अश्वे॑ । न । चि॒त्रे॒ । अ॒रु॒षि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं हि ते अमन्मह्यान्तादा पराकात्। अश्वे न चित्रे अरुषि॥
स्वर रहित पद पाठवयम्। हि। ते। अमन्महि। आ। अन्तात्। आ। पराकात्। अश्वे। न। चित्रे। अरुषि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 21
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशी ज्ञातव्येत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथा वयं या चित्रेऽरुष्यद्भुतता रक्तगुणाढ्यास्ति तामन्तादाभिमुख्यात् समीपस्थाद् देशादापराकाद् दूरदेशाच्चाश्वेनामन्महि तथा त्वमपि विजानीहि॥२१॥
पदार्थः
(वयम्) कालमहिम्नो वेदितारः (हि) निश्चये (ते) तव (अमन्महि) विजानीयाम। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्यनोर्लुक्। (आ) मर्यादायाम् (पराकात्) दूरदेशात् (अश्वे) प्रतिक्षणं शिक्षिते तुरङ्गे (न) इव (चित्रे) आश्चर्य्यव्यवहारे (अरुषि) रक्तगुणप्रकाशयुक्ता॥२१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालान् यथावदुपयोजितुं जानन्ति, तेषां पुरुषार्थेन दूरस्थसमीपस्थानि सर्वाणि कार्याणि सिध्यन्ति। अतो नैव केनापि मनुष्येण क्षणमात्रोऽपि व्यर्थः कालः कदाचिन्नेय इति॥२१॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उस वेला को कैसी जाननी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे कालविद्यावित् जन ! जैसे (वयम्) समय के प्रभाव को जाननेवाले हम लोग जो (चित्रे) आश्चर्यरूप (अरुषि) कुछ एक लाल गुणयुक्त उषा है, उस को (आ अन्तात्) प्रत्यक्ष समीप वा (आपराकात्) एक नियम किये हुए दूर देश से (अश्वे) नित्य शिक्षा के योग्य घोड़े पर बैठ के जाने आनेवाले के (न) समान (अमन्महि) जानें, वैसे इस को तू भी जान॥२१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल का यथायोग्य उपयोग लेने को जानते हैं, उनके पुरुषार्थ से समीप वा दूर के सब कार्य सिद्ध होते हैं। इससे किसी मनुष्य को कभी क्षण भर भी व्यर्थ काल खोना न चाहिये॥२१॥
विषय
फिर उस वेला को कैसी जाननी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वन् ! यथा वयं या चित्रे अरुषि अद्भुतता रक्तगुणाढ्या अस्ति ताम् अन्तात् आभिमुख्यात् समीपस्थात् देशात् अपराकात् दूरदेशात् च अश्वे न अमन्महि तथा त्वम् अपि विजानीहि॥२१॥
पदार्थ
हे (विद्वन्)=विद्वानों ! (यथा)=जिस प्रकार, (वयम्) कालमहिम्नो वेदितारः=हम काल की महिमा जानने वाले, (या)=जो, (चित्रे) आश्चर्य्यव्यवहारे=आश्चर्यरूप व्यवहारवाले, (अरुषि) रक्तगुणप्रकाशयुक्ता=लाल रंग के गुणयुक्त उषा है, वह, (अद्भुतता)=अद्भुत, (अस्ति)=है। (ताम्)=उसको, (अन्तात्)=समीप से, (आभिमुख्यात्)=सामने वाली, (समीपस्थात्)=समीप स्थित, (देशात्)=स्थान से जो (अपराकात्) अदूरदेशात्=दूर के स्थान से नहीं है, (च)=और, (अश्वे) प्रतिक्षणं शिक्षिते तुरङ्गे=नित्य अनुशासन के योग्य घोड़े पर बैठ के जाने आनेवाले के (न) इव=समान, (अमन्महि) विजानीयाम=जानो, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=इस को तुम (अपि)=भी (विजानीहि)=जानो॥२१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल का यथायोग्य उपयोग लेने को जानते हैं, उनके पुरुषार्थ से समीप वा दूर के सब कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिए किसी मनुष्य के द्वारा क्षण मात्र के लिए भी समय नहीं गंवाना चाहिये॥२१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वन्) विद्वनों ! (यथा) जिस प्रकार (वयम्) हम काल की महिमा जानने वाले, (या) जो (चित्रे) आश्चर्यरूप व्यवहारवाली (अरुषि) लाल रंग के गुणयुक्त उषा है, वह (अद्भुतता) अद्भुत (अस्ति) है। (ताम्) उसको (समीपस्थात्) समीप स्थित (देशात्) स्थान से जो (अपराकात्) दूर का स्थान नहीं है (च) और (अश्वे) नित्य अनुशासन के योग्य घोड़े पर बैठ के जाने आनेवाले के (न) समान (अमन्महि) जानो। (तथा) वैसे ही (त्वम्) इस को तुम (अपि) भी (विजानीहि) जानो॥२१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वयम्) कालमहिम्नो वेदितारः (हि) निश्चये (ते) तव (अमन्महि) विजानीयाम। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्यनोर्लुक्। (आ) मर्यादायाम् (पराकात्) दूरदेशात् (अश्वे) प्रतिक्षणं शिक्षिते तुरङ्गे (न) इव (चित्रे) आश्चर्य्यव्यवहारे (अरुषि) रक्तगुणप्रकाशयुक्ता॥२१॥
विषयः- पुनः सा कीदृशी ज्ञातव्येत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे विद्वन् ! यथा वयं या चित्रेऽरुष्यद्भुतता रक्तगुणाढ्यास्ति तामन्तादाभिमुख्यात् समीपस्थाद् देशादापराकाद् दूरदेशाच्चाश्वेनामन्महि तथा त्वमपि विजानीहि॥२१॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालान् यथावदुपयोजितुं जानन्ति, तेषां पुरुषार्थेन दूरस्थसमीपस्था
विषय
यज्ञ - भजन - स्वाध्याय
पदार्थ
१. हे (अश्वे , न) - कर्मों में व्यापनशील होनेवाले की भाँति (चित्रे) - चायनीय [चायृ पूजानिशामनयोः] पूजा की वृत्तिवाले तथा (अरुषि) - आरोचमान - सर्वतः दीप्यमान उषः काल ! (वयम्) - हम (हि) - निश्चय से (ते) - तेरे (आ अन्तात् आ पराकात्) - एक सिरे से [End - अन्त] लेकर दूसरे [परले] सिरे तक , अर्थात् सारे - के - सारे उषः काल में (अमन्महि) - उस प्रभु का मनन करते हैं [तु तो गतमन्त्र के अनुसार 'क+ध+प्रिया' है ; प्रभु का धारण ही तो तुझे प्रिय है] ।
२. उषः के यहाँ तीन विशेषण हैं -
[क] अश्वे यह 'कर्मों में व्यापनशील' अर्थ को देता हुआ कर्मकाण्ड का संकेत कर रहा है । कर्मयोगी पुरुष इस समय को यज्ञादि उत्तम कर्मों में बिताते हैं;
[ख] 'चित्रे' का अर्थ है आरोचमान । यह शब्द ज्ञानकाण्ड का निर्देशक होकर ज्ञानी को यह कहता है कि तुझे अपने ज्ञान को सर्वतः दीप्त करना है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा उषः काल यज्ञादि उत्तम कर्मों , प्रभु - भजन व ज्ञानप्राप्ति में व्यतीत हो । हम इस काल में प्रभु का मनन करें , उसके गुणों को विचार करते हुए , उनका धारण करने के लिए यत्नशील हों ।
विषय
चित्रा, अश्वा और दिवो दुहिता का रहस्य ।
भावार्थ
हे (अश्वे) व्यापक, (चित्रे) आश्चर्य शक्तिशाली! एवं अति पूजनीय! ते (अरुषि) अतिदीप्तिमति ईश्वरीय शक्ते! (हि) निश्चय से (वयम्) हम (आ अन्तात्) अति समीप से लेकर (आपराकात्) दूर तक भी निवेचना करके (ते) तेरे स्वरूप को हम (नअमन्महि) नहीं जान सके।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे भूत, भविष्य, वर्तमानकाळाचा योग्य उपयोग करून घेतात. ती पुरुषार्थ करून जवळचे व दूरचे कार्य सिद्ध करतात. त्यासाठी कोणत्याही माणसाने कधी क्षणभरही वेळ व्यर्थ घालवू नये. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Golden lady of Light Divine, refulgent, riding as if on a wondrous flying horse, we pray we may know and attain to you wholly from within and from far off above.
Subject of the mantra
Then, how should we know that time? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) scholars, ! (yathā)=As (vayam)=we know the glory of time,, (yā)=those, (citre)=wonderfully practiced (aruṣi)=down having red color, that (adbhutatā)=phenomenal, (asti)=is, (tām)=to that, (samīpasthāt)=located near, (deśāt) from place, [jo]=that, (aparākāt)=not from far away, (ca)=and, (aśve)=of the one who comes on a horse worthy of continual discipline, (na)=like, (amanmahi)=learn (tathā)=in the same way, (tvam) =to this, you (api)=also, (vijānīhi)=know.
English Translation (K.K.V.)
O scholars! The way we, who know the glory of time, that red colored down with phenomenal practice is wonderful. Know that from a place near which is not a distant place and like a person who comes on a horse worthy of continual discipline. In the same way, you also know this.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Those who know how to make proper use of past, future and present tenses, all the works near or far are accomplished by their efforts. Therefore, time should not be wasted by any person even for a moment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Usha and how is she to be known is taught further in the 21st Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, as we the knowers of the value of time know the dawn which is wonderful, brilliant and red hued from far and near like the rider on a trained horse, so you should also know.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( पराकात्) दूरदेशात् = From a distant place.(आअन्तात्) समीपस्थात् देशात् = From near. (अरुषि) रक्तगुणप्रकाशयुक्ता = Brilliant and red-hued dawn. (चित्रे) आश्चर्यव्यवहारे = Wonderful.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
who know how to utilize the past, present and future times, can industriously accomplish all their works far and near. Therefore a man should never waste a single moment.
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