ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
त्रिर॑श्विना॒ सिन्धु॑भिः स॒प्तमा॑तृभि॒स्त्रय॑ आहा॒वास्त्रे॒धा ह॒विष्कृ॒तम् । ति॒स्रः पृ॑थि॒वीरु॒परि॑ प्र॒वा दि॒वो नाकं॑ रक्षेथे॒ द्युभि॑र॒क्तुभि॑र्हि॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । आ॒श्वि॒ना॒ । सिन्धु॑ऽभिः । स॒प्तमा॑तृऽभिः । त्रयः॑ । आ॒ऽहा॒वाः । त्रे॒धा । ह॒विः । कृ॒तम् । ति॒स्रः । पृ॒थि॒वीः । उ॒परि॑ । प्र॒वा । दि॒वः । नाक॑म् । र॒क्षे॒थे॒ इति॑ । द्युऽभिः॑ । अ॒क्तुऽभिः॑ । हि॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम् । तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः । आश्विना । सिन्धुभिः । सप्तमातृभिः । त्रयः । आहावाः । त्रेधा । हविः । कृतम् । तिस्रः । पृथिवीः । उपरि । प्रवा । दिवः । नाकम् । रक्षेथे इति । द्युभिः । अक्तुभिः । हितम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(त्रिः) त्रिवारम् (अश्विना) अश्विनौ सूर्य्याचन्द्रमसाविवि। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (सिन्धुभिः) नदीभिः (सप्तमातृभिः) सप्तार्थात् पृथिव्यग्निसूर्यवायुविद्युदुदकावकाशा मातरो जनका यासां ताभिः (त्रयः) उपर्यधोमध्याख्याः (आहावाः) निपानसदृशा मार्गा जलाधरा वा। निपानमाहावः। अ० ३।३।७४। इति निपातनम्। (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः (हविः) होतुमर्हं द्रव्यम् (कृतम्) शोधितम् (तिस्रः) स्थूलत्रसरेणुपरमाण्वाख्याः (पृथिवीः) विस्तृताः (उपरि) ऊर्ध्वार्थे (प्रवा) गमयितारौ (दिवः) प्रकाशयुक्तान् किरणान् (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (रक्षेथे) रक्षतम्। अत्र लोडर्थे लङ् व्यत्ययेनात्मनेपदं च (द्युभिः) दिनैः (अक्तुभिः) रात्रिभिः द्युरित्यहर्नामसु पठितम्। निघं० १।७। (हितम्) धृतम् ॥८॥
अन्वयः
पुनस्तौ कीदृशौ ताभ्यां किं किं साध्यमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे प्रवौ गमयितारावश्विनौ वायुसूर्य्याविव शिल्पिनौ युवां सप्तमातृभिः सिंधुभिर्द्युभिरक्तुभिश्च यस्य त्रय आहावाः सन्ति तत् त्रेधा हविष्कृतं शोधितं नाकं हितं द्रव्यमुपरि प्रक्षिप्य तत् तिस्रः पृथिवीर्दिवः प्रकाशयुक्तान् किरणान् प्रापप्य तदितस्ततश्चालयित्वाऽधो वर्षयित्वैतेन सर्वं जगत्त्री रक्षेथे त्रिवारं रक्षतम् ॥८॥
भावार्थः
मनुष्यैर्वायुसूर्य्ययोश्छेदनाकर्षणवृष्ट्युद्भावकैर्गुणैर्नद्यश्चलंति हुतं द्रव्यं दुर्गन्धादिदोषान्निवार्य हितं सर्वदुःखरहितं सुखं साधयति यतोऽहर्निशं सुखं वर्द्धते येन विना कश्चित्प्राणी जीवितुं न शक्नोति तस्मादेतच्छोधनार्थं यज्ञाख्यं कर्म नित्यं कर्तव्यमिति ॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, और उनसे क्या-२ सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे (प्रवा) गमन करानेवाले (अश्विना) सूर्य और वायु के समान कारीगर लोगो ! आप (सप्तमातृभिः) जिनकी सप्त अर्थात् पृथिवी अग्नि सूर्य वायु बिजुली जल और आकाश सात माता के तुल्य उत्पन्न करनेवाले हैं (उन) (सिन्धुभिः) नदियों और (द्युभिः) दिन (अक्तुभिः) रात्रि के साथ जिसके (त्रयः) ऊपर नीचे और मध्य में चलनेवाले (आहावाः) जलाधार मार्ग हैं उस (त्रेधा) तीन प्रकार से (हविष्कृतम्) ग्रहण करने योग्य शोधे हुए (नाकम्) सब दुःखों से रहित (हितम्) स्थित द्रव्य को (उपरि) ऊपर चढ़ा के (तिस्रः) स्थूल त्रसरेणु और परमाणु नामवाली तीन प्रकार की (पृथिवीः) विस्तार युक्त पृथिवी और (दिवः) प्रकाशस्वरूप किरणों को प्राप्त कराके उसको इधर-उधर चला और नीचे वर्षा के इससे सब जगत् की (त्रिः) तीन बार (रक्षेथे) रक्षा कीजिये ॥८॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो सूर्य वायु के छेदन आकर्षण और वृष्टि करानेवाले गुणों से नदियाँ चलती तथा हवन किया हुआ द्रव्य दुर्गन्धादि दोषों को निवारण कर सब दुःखों से रहित सुखों को सिद्ध करता है जिससे दिन रात सुख बढ़ता है इसके विना कोई प्राणी जीवने को समर्थ नहीं हो सकता इससे इसकी शुद्धि के लिये यज्ञरूप कर्म नित्य करें ॥८॥
विषय
फिर वे कैसे हैं और उनसे क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे प्रवा गमयितारौ अवश्विनौ वायुसूर्य्यौ इव शिल्पिनौ युवां सप्तमातृभिः सिंधुभिः द्युभिः अक्तुभिः च यस्य त्रयः आहावाः सन्ति तत् त्रेधा हविः कृतं शोधितम् नाकं हितं द्रव्यम् उपरि प्रक्षिप्य तत् तिस्रः पृथिवीः दिवः प्रकाशयुक्तान् किरणान् प्रापप्य तत् इतस्ततः चालयित्वा अधः वर्षयित्वा एतेन सर्वं जगत् त्री रक्षेथे त्रिवारं रक्षतम् ॥८॥
पदार्थ
हे (प्रवा) गमयितारौ=गमन करानेवाले, (अश्विना) अश्विनौ सूर्य्याचन्द्रमसाविवि=सूर्य और वायु के समान, (शिल्पिनौ)=कारीगर लोगों! (युवाम्)=आप, (सप्तमातृभिः) सप्तार्थात् पृथिव्यग्निसूर्यवायुविद्युदुदकावकाशा मातरो जनका यासां ताभिः=जिनकी सप्त अर्थात् पृथिवी अग्नि सूर्य वायु बिजली जल और आकाश सात माताएँ हैं, (सिन्धुभिः) नदीभिः=नदियों के द्वारा, (द्युभिः) दिनैः=दिन, (च)=और, (अक्तुभिः)=रात, (यस्य)=जिसके, (त्रयः) उपर्यधोमध्याख्याः=ऊपर नीचे और मध्य नाम के, (आहावाः) निपानसदृशा मार्गा जलाधरा वा=कुएँ के निकट के तालाब के समान जल आधारित मार्ग, (सन्ति)=हैं, (तत्)=उस, (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः=तीन प्रकार के, (हविः) होतुमर्हं द्रव्यम्=ग्रहण करने योग्य (कृतम्) शोधितम्=शोधित हुए पदार्थ को, (नाकम्) अविद्यमानदुःखम्= दुःखों से रहित, (हितम्) धृतम्=रोके हुए, (द्रव्यम्)=द्रव्य को, (उपरि) ऊर्ध्वार्थे=ऊपर, (प्रक्षिप्य)=फेंका हुआ, (तत्)=उस, (तिस्रः) स्थूलत्रसरेणुपरमाण्वाख्याः=स्थूल त्रसरेणु और परमाणु नामवाली तीन प्रकार की, (पृथिवीः) विस्तृताः=विस्तार युक्त पृथिवी, और (दिवः) प्रकाशयुक्तान् किरणान्=प्रकाशयुक्त किरणों से, (प्रापय्य)=अत्यधिक जलीय, (तत्)=उसके, (इतस्ततः)=इधर से उधर, (चालयित्वा)=चला करके, (अधः)=नीचे, (वर्षयित्वा)=वर्षा करके, (एतेन)=इसके द्वारा, (सर्वम्)=समस्त, (जगत्)=जगत् की, (त्रिवारम्)=तीन बार, (रक्षतम्)=इससे सब जगत् की (त्रिः) तीन बार (रक्षेथे) रक्षा करो ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को योग्य है कि जो सूर्य वायु के छेदन आकर्षण और वृष्टि करानेवाले गुणों से नदियाँ चलती तथा हवन किया हुआ द्रव्य दुर्गन्धादि दोषों को निवारण कर सब दुःखों से रहित सुखों को सिद्ध करता है जिससे दिन रात सुख बढ़ता है इसके विना कोई प्राणी जीवने को समर्थ नहीं हो सकता इससे इसकी शुद्धि के लिये यज्ञरूप कर्म नित्य करें ॥८॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी-त्रसरेणु- धूल का कण या परमाणु सूर्य-किरण में घूम रहा है (एक आदर्श भार के रूप में माना जाता है या तो सबसे कम कोटि का है) ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (प्रवा) गमन करानेवाले (अश्विना) सूर्य और वायु के समान (शिल्पिनौ) कारीगर लोगों! (युवाम्) आप दोनों (सप्तमातृभिः) जिनकी सात माताएँ अर्थात् पृथिवी अग्नि सूर्य वायु बिजली जल और आकाश सात माताएँ हैं । ये (सिन्धुभिः) नदियों के द्वारा (द्युभिः) दिन (च) और (अक्तुभिः) रात (यस्य) जिसके (त्रयः) ऊपर नीचे और मध्य नाम के, (आहावाः) कुएँ के निकट के तालाब के समान जल आधारित मार्ग (सन्ति) हैं। (तत्) उस (त्रेधा) तीन प्रकार के (हविः) ग्रहण करने योग्य (कृतम्) शोधित किये हुए पदार्थ को (नाकम्) दुःखों से रहित (हितम्) रोके हुए (द्रव्यम्) द्रव्य को (उपरि) ऊपर (प्रक्षिप्य) फेंके हुए (तत्) उस (तिस्रः) स्थूल त्रसरेणु [त्रसरेणु-धूल का कण या परमाणु सूर्य-किरण में घूम रहा है, एक आदर्श भार के रूप में माना जाता है] (पृथिवीः) विस्तार युक्त पृथिवी और (दिवः) प्रकाशयुक्त किरणों से (प्रापय्य)=अत्यधिक जलीय (तत्) उसे (इतस्ततः) इधर से उधर (चालयित्वा) चला करके (अधः) नीचे (वर्षयित्वा) वर्षा कराके (एतेन) इसके द्वारा (सर्वम्) समस्त (जगत्) जगत् की (त्रिवारम्) तीन बार (रक्षेथे) रक्षा कीजिये ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्रिः) त्रिवारम् (अश्विना) अश्विनौ सूर्य्याचन्द्रमसाविवि। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (सिन्धुभिः) नदीभिः (सप्तमातृभिः) सप्तार्थात् पृथिव्यग्निसूर्यवायुविद्युदुदकावकाशा मातरो जनका यासां ताभिः (त्रयः) उपर्यधोमध्याख्याः (आहावाः) निपानसदृशा मार्गा जलाधरा वा। निपानमाहावः। अ० ३।३।७४। इति निपातनम्। (त्रेधा) त्रिभिः प्रकारैः (हविः) होतुमर्हं द्रव्यम् (कृतम्) शोधितम् (तिस्रः) स्थूलत्रसरेणुपरमाण्वाख्याः (पृथिवीः) विस्तृताः (उपरि) ऊर्ध्वार्थे (प्रवा) गमयितारौ (दिवः) प्रकाशयुक्तान् किरणान् (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (रक्षेथे) रक्षतम्। अत्र लोडर्थे लङ् व्यत्ययेनात्मनेपदं च (द्युभिः) दिनैः (अक्तुभिः) रात्रिभिः द्युरित्यहर्नामसु पठितम्। निघं० १।७। (हितम्) धृतम् ॥८॥
विषयः- पुनस्तौ कीदृशौ ताभ्यां किं किं साध्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे प्रवौ गमयितारावश्विनौ वायुसूर्य्याविव शिल्पिनौ युवां सप्तमातृभिः सिंधुभिर्द्युभिरक्तुभिश्च यस्य त्रय आहावाः सन्ति तत् त्रेधा हविष्कृतं शोधितं नाकं हितं द्रव्यमुपरि प्रक्षिप्य तत् तिस्रः पृथिवीर्दिवः प्रकाशयुक्तान् किरणान् प्रापप्य तदितस्ततश्चालयित्वाऽधो वर्षयित्वैतेन सर्वं जगत्त्री रक्षेथे त्रिवारं रक्षतम् ॥८॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्वायुसूर्य्ययोश्छेदनाकर्षणवृष्ट्युद्भावकैर्गुणैर्नद्यश्चलंति हुतं द्रव्यं दुर्गन्धादिदोषान्निवार्य हितं सर्वदुःखरहितं सुखं साधयति यतोऽहर्निशं सुखं वर्द्धते येन विना कश्चित्प्राणी जीवितुं न शक्नोति तस्मादेतच्छोधनार्थं यज्ञाख्यं कर्म नित्यं कर्तव्यमिति ॥८॥
विषय
प्रकाशमय स्वर्गलोक
पदार्थ
१. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! आपके द्वारा (सप्तमातृभिः) - शरीर की सातों धातुओं का निर्माण करनेवाले, अर्थात् जिनकी रक्षा पर अन्य सब धातुओं की रक्षा निर्भर है अथवा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा मन और बुद्धि इन सातों का निर्माण करनेवाले (सिन्धुभिः) - [स्यन्दन्ते इति] रेतः कणों से [सिन्धवः आपः रेतः] (त्रिः) - जीवन के बाल्यकालरूप प्रातः काल में, यौवनरूप मध्याह्न में तथा वार्धक्यरूप सायंकाल में, इस प्रकार तीन बार (त्रयः) - तीन (आहावाः) - जलाधार वीर्यकों के रखने के स्थान बनाये गये हैं । ये तीन आहाव 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' ही हैं । अग्निकुण्ड में जैसे अग्नि का आधान होता है, उसी प्रकार इन तीनों में (त्रेधा) - तीन प्रकार से (हविः कृतम्) - रेतः कणों की आहुति दी गई है । वीर्य - सम्पन्न होकर इन्द्रियाँ अपना - अपना कार्य करने में खूब ही समर्थ होती हैं, मन वीर्य - सम्पन्न होकर राग - द्वेष से ऊपर उठ जाता है, बुद्धि वीर्य - सम्पन्न होकर अतिशयेन सूक्ष्म बनती है और तत्त्व को देखनेवाली होती है एवं प्राणापान 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि'को इन वीर्यकणों का 'आहाव' बना देते हैं, इनमें वीर्यकणों की आहुति देते हैं और उन्हें निर्दोष बनाते हैं ।
२. इस प्रकार ये प्राणापान (तिस्त्रः पृथिवीः) - तीनों शरीरों को - स्थूल, सूक्ष्म व कारणशरीरों को (उपरि प्रवा) - ऊपर ले - जानेवाले होते हैं [प्रवो गमयितारौ, द०] हमारा स्थूलशरीर प्राणापानों की साधना से वीर्य - रक्षा के द्वारा दुद, नीरोग व स्वस्थ होता है । सूक्ष्मशरीर निर्मल व हमें ज्ञान की तात्त्विक दृष्टि की ओर ले जानेवाला होता है और कारणशरीर आनन्द का कोश बनता है ।
३. हे प्राणापानो ! आप (द्युभिः) - दीप्तिवाली व व्यवहार को उत्तमता से सिद्ध करनेवाली (अक्तुभिः) - प्रकाश की किरणों से (हितम्) - स्थापित (दिवः नाकम्) - [दिव क्रीडा] क्रीडा से स्वर्गलोक को (रक्षेथे) सुरक्षित करते हो । प्राणापानों की साधना हमारी बुद्धियों को निश्चय से सूक्ष्म बनाती है । उन सूक्ष्म बुद्धियों से हम ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो उठते हैं । उस समय हम इस संसार को ठीक रूप में देखते हैं । यह हमें भगवान् की क्रीड़ा - स्थली ही प्रतीत होता है । हम भी प्रत्येक घटना को एक क्रीड़क की मनोवृत्ति से लेते हैं और खीज, क्रोध व ईर्ष्या आदि से ऊपर उठ जाते हैं । उस समय हम प्रत्येक घटना में आनन्द का अनुभव करते हैं, हमारा जीवन 'प्रकाशमय स्वर्गलोक' बन जाता है । हम पृथिवी से ऊपर उठकर मानो द्युलोक में पहुँच जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान की साधना से वीर्यकण इन्द्रियों, मन व बुद्धि का निर्माण करनेवाले होंगे - उनको ज्योतिर्मय बनाएँगे और हमारा जीवन प्रकाशमय स्वर्ग - सदृश हो जाएगा ।
विषय
यज्ञ द्वारा वायु शुद्धि का आदेश ।
भावार्थ
हे (अश्विना) सूर्य और वायु या चन्द्रमा, रथी सारथी के समान तुम दोनों (सप्तमातृभिः) पृथिवी, अग्नि, वायु, सूर्य, विद्युत्, आकाश आदि सात सूक्ष्म तत्वों से पैदा होने वाले (सिन्धुभिः) नदियों के समान निरन्तर बहने वाले, सूक्ष्म पदार्थों द्वारा (त्रिः) तीनों वार करके (हविः) आहुति देने योग्य अन्नादि पदार्थ को (कृतम्) सम्पादित करो। (त्रयः) उनके लिए तीन (अहावाः) आहुति योग्य पात्र हों। और उन अन्नादि औषधियों को (द्युभिः अक्तुभिः) दिनों और रातों में अर्थात् दिन रात (तिस्रः पृथिवीः उपरि) भूमि, अन्तरिक्ष और आकाश तीनों स्थानों पर (प्रवा) अच्छी प्रकार पहुंचनेवाले आप दोनों (दिवः) प्रकाशमय किरणों की और (हितम्) स्थित (नाकम्) अति सुखप्रद आकाश की (रक्षेथे) रक्षा करते रहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराड् जगती २, ३, ७, ८ निचृज्जगती । ५, १०, ११ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ निचृत् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् पंक्तिः । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य वायूच्या छेदन, आकर्षण व वृष्टी करविणाऱ्या गुणांनी नद्या वाहतात. हवन केलेले द्रव्य दुर्गंध इत्यादी दोषांचे निवारण करून सर्व दुःखांनी रहित सुख सिद्ध करते. ज्यामुळे दिवसा व रात्री सतत सुख वाढते. त्याशिवाय कोणताही प्राणी जिवंत राहू शकत नाही. त्यामुळे या शुद्धीसाठी यज्ञरूप कर्म नित्य करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, scientists of yajna, brilliant and fast as sun and wind, with the materials collected, refined and sanctified thrice with the rivers and seas which are distilled by mother nature from seven sources (earth, waters, fire, wind, space, sun and electric energy) by days and nights, sent up by three paths of solid, subtle and atomised forms, to three (the earth, the region of joy and the region of light), you serve and replenish three, earth, sky and heaven.
Subject of the mantra
Then, how they are and what should be accomplished from them, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (pravā)=getting motion, (aśvinā)=like the sun and the wind, (śilpinau)=craftsmen, (yuvām)=both of you, (saptamātṛbhiḥ)=whose seven mothers i.e. earth, fire, sun, wind, electricity, water and sky are seven mothers, (sindhubhiḥ)=by the rivers, (dyubhiḥ)=day, (ca)=and, (aktubhiḥ)=night, (yasya)=whose, (trayaḥ)=of upper, lower and middle named, (āhāvāḥ)=a water body way like a pond near to well, (santi)=are, (tat)=that, (tredhā)=of three types, (haviḥ)=acceptable, (kṛtam)=to purified substance, (nākam)=free from sorrows, (hitam)=withheld, (dravyam)=to substance, (upari)=above, (prakṣipya)=thrown, (tat) that, (tisraḥ) =physical trasrenu [trasrenu-dust particle or atom moving in the sun-ray (considered as an ideal weight)], (pṛthivīḥ)=expanded earth, [aura]=and, (divaḥ)=by luminous rays, (prāpapya) =highly aquatic, (tat)=that, (itastataḥ=from here to there, (cālayitvā)=moving, (adhaḥ)=downwards, (varṣayitvā)=by making it rain, (etena)=through this, (sarvam)=all, (jagat)=of the world, (trivāram)=thrice, (rakṣethe)=protect.
English Translation (K.K.V.)
O Craftsmen! Like the moving Sun and wind, both of you, whose seven mothers means earth fire, Sun, wind, electricity, water and sky are seven mothers. Those by the day and night named rivers, upper, lower and middle are water body ways like a pond near a well. Throwing up free from sorrow, the three kinds of acceptable purified substances. That physical trasrenu [trasrenu, a dust particle or atom moving in the Sun-rays (considered as an ideal weight] either of the lowest order) and by moving it from here to there and making it rain down, protects the whole world thrice by this.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
It is worthy of human beings that the Sun, which moves rivers with the piercing attraction and rain-inducing properties of the wind, removes all the bad smell and impurities and accomplishes the happiness devoid of all sorrows, due to which happiness increases day and night. No creature can be capable of living, so for its purification, do yajan-like deeds regularly.
TRANSLATOR’S NOTES-
The mote or atom of dust moving in a Sun-beam (considered as an ideal weight either of the lowest denomination.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned artisans like the moving wind and sun or shining like the sun and the moon, you should protect this world with purified rivers which have the earth, fire, sun, air, electricity, gross water and space as their origins, with days and nights whose ways are of three kinds, up, below and middle. You should thrice purify the oblation which makes a man free from misery, put in the fire, load it towards the vast rays of the sun in the form of gross, Trasarenu and subtle atoms. Then cause it to go hither and thither, making it rain down on earth and thereby protect the world thrice.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[अश्विनौ [१] सूर्याचन्द्रमसाविव] = Like the sun and the moon. [२] वायुसूर्याविव = Like the air and the Sun. [सप्तमातृभिः] सप्त अर्थात् पृथिव्यग्निसूर्यवायुविधुदुदकावकाशा मातरो जनका यासां ताभिः सिन्धुभिः = Rivers which have the earth, fire, sun, air, lightning or electricity, water and space as their originators. [तिस्रः] स्थूलत्रसरेणुपरमाण्वाख्याः । [दिवः] प्रकाशयुक्तान् किरणान् = Shining rays of the sun. [युवा] गमयितारौ = Moving or the causes of motion. [अक्तुमिः] रात्रिमि: = With rights. अक्तुरिति रात्रिनाम [निघ० १.७] = (Tr.)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that it is on account of the disintegrating, gravitative and rain-producing properties of the air and the sun, that the rivers flow. The oblation that is put in the fire, removes all bad smell and other impurities and causes happiness to all which is free from all misery and beneficial so that happiness and health grow day by day. Without it, none can live happily. Therefore men should perform this Yajna everyday with the object of purifying the air and water.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted अश्विनौ here as सूर्याचन्द्रमसौ for which he has not quoted any authority, but which is quite clear in the Nirukta 12.1 तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येके, द्यावापृथिव्यावित्येके, अहोरात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके | निघ० १.२.१
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