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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - पथ्यावृहती स्वरः - मध्यमः

    अश्वि॑ना॒ मधु॑मत्तमं पा॒तं सोम॑मृतावृधा । अथा॒द्य द॑स्रा॒ वसु॒ बिभ्र॑ता॒ रथे॑ दा॒श्वांस॒मुप॑ गच्छतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । मधु॑मत्ऽतमम् । पा॒तम् । सोम॑म् । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ । अथ॑ । अ॒द्य । द॒स्रा॒ । वसु॑ । बिभ्र॑ता । रथे॑ । दा॒स्वांस॑म् । उप॑ । ग॒च्छ॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा । अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना । मधुमत्तमम् । पातम् । सोमम् । ऋतवृधा । अथ । अद्य । दस्रा । वसु । बिभ्रता । रथे । दास्वांसम् । उप । गच्छतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अश्विना) सूर्य्यवायुसदृक्कर्मकारिणौ सभासेनेशौ (मधुमत्तमम्) अतिशयेन प्रशस्तैर्मधुरादिगुणैरुपेतम् (पातम्) रक्षतम् (सोमम्) वीररसादिकम् (ऋतावृधा) यावृतेन यथार्थगुणेन प्राप्तिसाधकेन वर्धयेते तौ (अथ) आनन्तर्य्य (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमाने दिने (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (वसु) सर्वोत्तमं धनम् (बिभ्रता) धरन्तौ (रथे) विमानादियाने (दाश्वांसम्) दातारम् (उप) सामीप्ये (गच्छतम्) प्राप्नुतम् ॥३॥

    अन्वयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अश्विना सूर्य्यवायुवद्वर्त्तमानौ दस्रा वसु बिभ्रतर्तावृधा सभासेनाध्यक्षौ युवामद्य मधुमत्तमं सोमं पातमथोक्ते रथे स्थित्वा दाश्वांसमुपगच्छतम् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा वायुना सोमसूर्य्ययोः पुष्टिस्तमोनाशश्च भवति तथैव सभासेनेशाभ्यां प्रजानां दुःखोपक्षयो धनवृद्धिश्च जायते ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सूर्य्य वायु के समान कर्म और (दस्रा) दुःखों के दूर करनेवाले ! (वसु) सबसे उत्तम धन को (बिभ्रता) धारण करते तथा (ऋतावृधा) यथार्थ गुण संयुक्त प्राप्ति साधन से बढ़े हुए सभा और सेना के पति आप (अद्य) आज वर्त्तमान दिन में (मधुमत्तमम्) अत्यन्त मधुरादिगुणों से युक्त (सोमम्) वीर रस की (पातम्) रक्षा करो (अथ) तत्पश्चात् पूर्वोक्त (रथे) विमानादि यान में स्थित होकर (दाश्वांसम्) देने वाले मनुष्य के (उपगच्छतम्) समीप प्राप्त हुआ कीजिये ॥३॥

    भावार्थ

    यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे वायु से सूर्य्य चन्द्रमा की पुष्टि और अन्धेर का नाश होता है वैसे ही सभा और सेना के पतियों से प्रजास्थ प्राणियों की संतुष्टि दुःखों का नाश और धन की वृद्धि होती है ॥३॥

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    विषय

    ऋतावृध - प्राणापान

    पदार्थ

    १. हे (ऋतावृधा) = ऋत का - यज्ञ का व जो कुछ ठीक है, उसका वर्धन करनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (मधुमत्तमम्) = हमारे जीवनों को अत्यन्त मधुर बनानेवाले (सोमम्) = सोम का, वीर्यशक्ति का (पातम्) = पान - रक्षण करो । आपकी साधना से सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति होकर हमारा जीवन माधुर्यमय बने । २. हे (दस्रा) = सब रोगों व बुराइयों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! (अथ) = इस सोमपान के बाद (अद्य) = अब (रथे) = इस शरीररूप रथ में (वसु) = निवास के लिए सब आवश्यक धनों को (बिभ्रता) = धारण करते हुए आप (दाश्वांसम्) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले को, अर्थात् अपने उपासक व साधक को (उपागच्छतम्) = समीपता से प्राप्त होओ । प्राणापान की साधना शरीर में निवास को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक सब वसुओं - धनों को प्राप्त कराती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणायाम द्वारा शरीर में सोम की ऊर्ध्वगति होकर जीवन मधुर बनता है तथा शरीररूपी रथ में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रहती ।

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    विषय

    आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) पूर्वोक्त स्त्री पुरुषो! सभासेनाध्यक्षो! (मधुमत्तमम्) मधुर, सुखप्रद पदार्थों से युक्त (सोमम्) ऐश्वर्य को (ऋतावृधा ) सत्य से बढ़ानेहारे होकर आप दोनों (पातम्) ओषधि रस के समान गुणकारी, सुखप्रद रूप में सेवन करो। (अथ) और (अद्य) आज के समान सदा (दस्रा) दुःखों के नाशक होकर (वसु बिभ्रता) राष्ट्र में बसे प्रजाजन को पालन पोषण करते हुए, अथवा ऐश्वर्य को धारण करते हुए तुम दोनों (रथे) रथ पर बैठकर (दाश्वांसम्) ज्ञानप्रद, विद्वान्, यज्ञशील, दानशील राजा तथा कर प्रद प्रजा पुरुष को (उप गच्छतम्) प्राप्त होवो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥

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    विषय

    फिर वे सूर्य और वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अश्विना सूर्य्यवायुवद् वर्त्तमानौ दस्रा वसु बिभ्रतौ ऋतावृधा सभासेनाध्यक्षौ युवाम् अद्य मधुमत्तमं सोमं पातम् अथ उक्ते रथे स्थित्वा दाश्वांसम् उप गच्छतम् ॥३॥

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सूर्य्यवायुसदृक्कर्मकारिणौ सभासेनेशौ=सूर्य और वायु के समान कर्म करनवाले सभापति और सेनापति! (वर्त्तमानौ) = वर्त्तमान, (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ=दुःखों की उपेक्षा करनेवाले, और (वसु) सर्वोत्तमं धनम्= सर्वोत्तम धनों को, (बिभ्रतौ) धरन्तौ=धारण करनेवाले, (ऋतावृधा) यावृतेन यथार्थगुणेन प्राप्तिसाधकेन वर्धयेते तौ= ढके हुए यथार्थ गुणों द्वारा प्राप्त साधनों से बढ़ाने वाले, (सभासेनाध्यक्षौ)= सभापति और सेनापति! (युवाम्)=तुम दोनों, (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमाने दिने=आज के वर्त्तमान दिन में ही, (मधुमत्तमम्) अतिशयेन प्रशस्तैर्मधुरादिगुणैरुपेतम्=अत्यन्त उत्कृष्ट मधुर आदि गुणों के निकट, (सोमम्) वीररसादिकम् =वीर रस आदि से, (पातम्) रक्षतम्=रक्षा करो, (अथ) आनन्तर्य्य=इसके ठीक बाद में, (उक्ते) =उपरोक्त कहे गये, (रथे) विमानादियाने= विमान आदि यान में, (स्थित्वा)=बैठकर, (दाश्वांसम्) दातारम्=देनेवाले के, (उप) सामीप्ये=समीप, (गच्छतम्) प्राप्नुतम्=पहुँचिये ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे वायु से सूर्य्य चन्द्रमा की पुष्टि और अन्धेरे का नाश होता है, वैसे ही सभा और सेना के स्वामियों से प्रजा के दुःखों उका नाश और धन की वृद्धि होती है ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अश्विना) सूर्य और वायु के समान कर्म करनवाले, (वर्त्तमानौ) वर्त्तमान (दस्रा) दुःखों की उपेक्षा करनेवाले, (वसु) सर्वोत्तम धनों को (बिभ्रतौ) धारण करनेवाले, (ऋतावृधा) ढके हुए यथार्थ गुणों द्वारा प्राप्त साधनों से बढ़ाने वाले (सभासेनाध्यक्षौ) सभापति और सेनापति! (युवाम्) तुम दोनों (अद्य) आज के वर्त्तमान दिन में ही (मधुमत्तमम्) अत्यन्त उत्कृष्ट मधुर आदि गुणों के निकट (सोमम्) वीररस आदि से (पातम्) रक्षा करो। (अथ) इसके ठीक बाद में (उक्ते) उपरोक्त कहे गये (रथे) विमान आदि यान में (स्थित्वा) बैठकर (दाश्वांसम्) देनेवाले के (उप) समीप (गच्छतम्) पहुँचिये ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अश्विना) सूर्य्यवायुसदृक्कर्मकारिणौ सभासेनेशौ (मधुमत्तमम्) अतिशयेन प्रशस्तैर्मधुरादिगुणैरुपेतम् (पातम्) रक्षतम् (सोमम्) वीररसादिकम् (ऋतावृधा) यावृतेन यथार्थगुणेन प्राप्तिसाधकेन वर्धयेते तौ (अथ) आनन्तर्य्य (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमाने दिने (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (वसु) सर्वोत्तमं धनम् (बिभ्रता) धरन्तौ (रथे) विमानादियाने (दाश्वांसम्) दातारम् (उप) सामीप्ये (गच्छतम्) प्राप्नुतम् ॥३॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अश्विना सूर्य्यवायुवद्वर्त्तमानौ दस्रा वसु बिभ्रतर्तावृधा सभासेनाध्यक्षौ युवामद्य मधुमत्तमं सोमं पातमथोक्ते रथे स्थित्वा दाश्वांसमुपगच्छतम् ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा वायुना सोमसूर्य्ययोः पुष्टिस्तमोनाशश्च भवति तथैव सभासेनेशाभ्यां प्रजानां दुःखोपक्षयो धनवृद्धिश्च जायते ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूने सूर्य-चंद्राची पुष्टी व अंधकाराचा नाश होतो तसेच सभा व सेनापतींकडून प्रजेची संतुष्टी, दुःखाचा नाश व धनाची वृद्धी होते. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, powerful like the sun and wind, extenders of the bounds of natural knowledge, taste and protect the sweetest soma of yajnic joy and prosperity of humanity. And, O destroyers of enemies, come to the generous man of charity, to-day, bearing in your charity the wealth of the world.

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    Subject of the mantra

    Then how the Sun and air are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (aśvinā)=those who do woks like Sun and air, (varttamānau) =present, (dasrā)=those who ignore sorrows, (vasu)=to the best of money, (bibhratau) =possessing, (ṛtāvṛdhā)=enhancers by means obtained by veiled real qualities, (sabhāsenādhyakṣau) =chairman of the assembly and chief of the forces, (yuvām) =both of you, (adya)=today itself, (madhumattamam)=close to excellent melodious qualities, (somam) =by the sentiments of heroism, (pātam)=protect, (atha) =just after this, (ukte) =told earlier, (rathe) =in the vehicles like aircrafts etc., (sthitvā) =sitting, (dāśvāṃsam) =of the provider, (upa)=near, (gacchatam) =reach.

    English Translation (K.K.V.)

    O one who acts like the Sun and the air, neglecting present sorrows, possessor of the best wealth, chairman of the assembly and commander-in-chief of the forces obtained by the veiled true qualities! Both of you, in today's present day itself, protect yourself with the most excellent sweet etc. qualities, with the sentiments of heroism et cetera. Immediately after this, sit in the aforesaid aircraft etc. and reach near the provider.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the air the nourishing of the Sun and the Moon occurs and darkness is destroyed, so the chairman of the assembly and the commander of forces destroy the sorrows of the people and increase the wealth.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (The President of the Assembly and the commander of the Army) who are benevolent like the sun and the air, destroyers of miseries, possessors of the best wealth, (of wisdom and knowledge etc.) increasers or supporters of truth, protect or preserve the sweet juice of heroism and approach a man of charitable disposition, sitting in your vehicle like the aero plane etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सोमम् ) वीररसादिकम् = The Juice of heroism (दस्त्रा) दुःखोपक्षेतारौ = Destroyers of miseries.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and air dispel darkness and help in the growth of Soma and other plants, in the same manner, the President of the Assembly and commander of the army destroy misery and increase the wealth or prosperity by making proper arrangements for their growth.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has taken Soma here as वीररसादिकम् for which the following passages of the Brahmanas may be quoted- रेतः सोमः । (कौषीतको ब्रा० १३.७) रेतो वै सोमः ) (शतपथ ब्रा० १.९.२.९ । २.५.१.९) रसः सोमः (शत ० ७.३.१.३)

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