ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
दु॒रो अश्व॑स्य दु॒र इ॑न्द्र॒ गोर॑सि दु॒रो यव॑स्य॒ वसु॑न इ॒नस्पतिः॑। शि॒क्षा॒न॒रः प्र॒दिवो॒ अका॑मकर्शनः॒ सखा॒ सखि॑भ्य॒स्तमि॒दं गृ॑णीमसि ॥
स्वर सहित पद पाठदु॒रः । अश्व॑स्य । दु॒रः । इ॒न्द्र॒ । गोः । अ॒सि॒ । दु॒रः । यव॑स्य । वसु॑नः । इ॒नः । पतिः॑ । शि॒क्षा॒ऽन॒रः । प्र॒ऽदिवः॑ । अका॑मऽकर्शनः । सखा॑ । सखि॑ऽभ्यः । तम् । इ॒दम् । गृ॒णी॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः। शिक्षानरः प्रदिवो अकामकर्शनः सखा सखिभ्यस्तमिदं गृणीमसि ॥
स्वर रहित पद पाठदुरः। अश्वस्य। दुरः। इन्द्र। गोः। असि। दुरः। यवस्य। वसुनः। इनः। पतिः। शिक्षाऽनरः। प्रऽदिवः। अकामऽकर्शनः। सखा। सखिऽभ्यः। तम्। इदम्। गृणीमसि ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र विद्वन् ! योऽकामकर्शनः शिक्षानरः सखिभ्यः सखा पतिरिन इव त्वमश्वस्य दुरो गोर्दुरोऽभिप्राप्य यवस्य प्रदिवो दुरोऽधिष्ठितः सन् वसुनो दाताऽसि तं त्वामिदं वयं गृणीमसि ॥ २ ॥
पदार्थः
(दुरः) सुखैः संवारकाणि द्वाराणि (अश्वस्य) व्याप्तिकारकाग्न्यादेस्तुरङ्गस्य वा (दुरः) (इन्द्र) विद्वन् (गोः) सुसंस्कृताया वाचः (असि) (दुरः) (यवस्य) उत्तमस्य यवादेरन्नस्य (वसुनः) सर्वोत्तमस्य द्रव्यस्य (इनः) ईश्वरः। इन इतीश्वरनामसु पठितम्। (निघं०२.२२) (पतिः) पालयिता (शिक्षानरः) यः शिक्षां नृणाति प्राप्नोति स शिक्षाया नरः शिक्षानरः। अत्र सर्वधातुभ्योऽजयं वक्तव्यः इति नॄधातोरच्प्रत्ययः। (प्रदिवः) प्रकृष्टस्य न्यायप्रकाशस्य (अकामकर्शनः) योऽकामानलसान् कृशति तनूकरोति सः (सखा) सुहृत् (सखिभ्यः) सुहृद्भ्यः (तम्) उक्तार्थम् (इदम्) अर्चनं सत्करणं यथा स्यात्तथा (गृणीमसि) अर्चामः स्तुमः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न हि परमेश्वरतुल्येन धार्मिकेण विदुषा विना कस्मैचित् सर्वपदार्थानां सुखानां च प्रदाता कश्चिदस्ति, परन्तु ये खलु सर्वमित्राः शिक्षाप्राप्ता मनुष्याः सन्ति त एवैतत् सर्वसुखं लभन्ते नेतरे ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्वन् ! जो (अकामकर्शनः) आलस्ययुक्त मनुष्यों को कृश करनेवाले (शिक्षानरः) शिक्षाओं को प्राप्त करने वा (सखिभ्यः) मित्रों के (सखा) मित्र (पतिः) पालन करने वा (इनः) ईश्वर के तुल्य सामर्थ्ययुक्त आप (अश्वस्य) व्याप्तिकारक अग्नि आदि वा तुरङ्ग आदि के (दुरः) द्वारों को प्राप्त होके सुख देनेवाली (गोः) वाणी वा दूध देनेवाली गौ के (दुरः) सुख देनेवाले द्वारों को जान (यवस्य) उत्तम यव आदि अन्न (प्रदिवः) उत्तम विज्ञान प्रकाश और (वसुनः) उत्तम धन देनेवाले (असि) हैं (तम्) उस आपकी (इदम्) पूजा वा सत्कारपूर्वक (गृणीमसि) स्तुति करते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर के तुल्य धार्मिक विद्वान् के विना किसी के लिये सब पदार्थ वा सब सुखों के देनेवाला कोई नहीं है, परन्तु जो निश्चय करके सबके मित्र शिक्षाओं को प्राप्त किये हुए आलस्य को छोड़कर, ईश्वर की उपासना विद्या वा विद्वानों के संग को प्रीति से सेवन करनेवाले मनुष्य हैं, वे ही इन सब सुखों को प्राप्त होते हैं, आलसी मनुष्य नहीं ॥ २ ॥
विषय
सब धनों का दाता व स्वामी
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! आप (अश्वस्य दुरः असि) = घोड़ों के देनेवाले हैं, (गोः दुरः असि) = गौवों के देनेवाले हैं । क्षात्र की वृद्धि के लिए घोड़ा आवश्यक है तो ज्ञान की वृद्धि के लिए गौ की आवश्यकता है । अथवा 'अश्व' शब्द कर्मों में व्याप्त होनेवाली कर्मेन्द्रियों का वाचक है और 'अर्थों' का ज्ञान देनेवाली ज्ञानेन्द्रियों का वाचक 'गो' शब्द है । प्रभु हमें जीवन - यात्रा में उन्नति के लिए इन कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं । २. हे प्रभो ! आप ही (यवस्य दरः) = यव - जौ के देनेवाले हैं । "यवे ह प्राण आहितः" इस जौ में प्राणशक्ति की स्थापना हुई है । यवों के प्रयोग से आप ही हमें प्राणशक्ति - सम्पन्न करते हैं । यह 'यव' सचमुच यव है । "यु मिश्रणामिश्रणयोः" दोषों का अमिश्रण करता हुआ अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाला है । ३. हे प्रभो ! आप ही (वसुनः) = निवास के लिए सब आवश्यक धनों के (इनः) = स्वामी व (पतिः) = रक्षक हैं । स्वामी व रक्षक ही नहीं अपितु (शिक्षानरः) = [शिक्षतिर्दानकर्मा, शिक्षाया दानस्य नेतासि - सा०] इन धनों के दान का नेतृत्व भी करनेवाले हैं । आपकी कृपा से ही हमें निवास के लिए आवश्यक धनों की प्राप्ति होती है । ४. (प्रदिवः) = आप सनातन पुराण पुरुष हैं [प्रगता दिवो दिवसा यस्मिन्], (अकामकर्शनः) = [न कामान् सत्संकल्पान कर्शयति] हमारे सत्संकल्पों को कभी नष्ट न होने देनेवाले हैं । (सखिभ्यः सखा) = हम मित्रों के लिए आप सच्चे मित्र हैं, अतः (तम्) = उस आपके प्रति ही (इयम्) = इस प्रार्थनावचन को (गृणीमसि) = उच्चारित करते हैं । आपसे की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं हो सकती ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमारे सच्चे मित्र हैं । वही सब धनों के स्वामी व दाता सनातन पुरुष है । उन्हीं की प्रार्थना करनी उचित है ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! राजन् ! तू ( अश्वस्य ) अश्वों और अग्नि आदि व्यापक तत्वों का, ( दुरः ) दान करने हारा है । तू (गोः दुरः असि) गौवों का देने हारा है । तू (यवस्य दुरः) जौ आदि अन्न का दाता है। और तू ( वसुनः इनः ) समस्त ऐश्वर्यों का स्वामी है । तू (शिक्षानरः) शिक्षा देने वाला नायक अचार्य के समान आदि गुरु है । तू ( अकामकर्शनः ) काम, अर्थात् सत् संकल्पों, को कृश न करने हारा, यथोचित विवेकी है। तू ( सखिभ्यः सखा ) समस्त मित्रों का परम मित्र है । वह तू ( प्रदिवः ) उत्कृष्ट ज्ञान का भी (पतिः) पालक, अथवा अति पुरातन, पुराण, पुरुष है। हे परमेश्वर ! ( तम् इदं ) इस तुझ को ही हम इस प्रकार से ( गृणीमहे ) तेरी स्तुति करें और अन्यों को उसका उपदेश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-११ सव्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृज्जगती । २ भुरिग्जगती । ४ जगती । ५, ७ विराड्जगती ६, ८,९ त्रिष्टुप् ॥१० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ सतः पङ्क्तिः ॥
विषय
अब इस मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र विद्वन् ! यःअकामकर्शनः शिक्षा नरः सखिभ्यः सखा पतिः इनः इव त्वम् अश्वस्य दुरः गोः दुरःअभिप्राप्य यवस्य प्रदिवः दुरः अधिष्ठितः सन् वसुनः दाता असि तं त्वाम् इदं वयं गृणीमसि॥२॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्वन्=विद्वान् ! (यः)=जो, (अकामकर्शनः) योऽकामानलसान् कृशति तनूकरोति सः= इच्छाओं को कम करनेवाला, (शिक्षानरः) यः शिक्षां नृणाति प्राप्नोति स शिक्षाया नरः शिक्षानरः=शिक्षा का प्राप्त करानेवाला, (सखिभ्यः) सुहृद्भ्यः= मित्र से, (सखा) सुहृत्= मित्र का, (पतिः) पालयिता=पालन करनेवाला, (इनः) ईश्वरः= ईश्वर के, (इव)= समान, (त्वम्)=तुम, (अश्वस्य) व्याप्तिकारकाग्न्यादेस्तुरङ्गस्य वा=व्याप्ति करानेवाले अग्नि आदि या अश्व के, (दुरः) सुखैः संवारकाणि द्वाराणि =सुख को बन्द करनेवाले कपाट, (गोः) सुसंस्कृताया वाचः= शोभनीय और उत्कृष्ट वाणी, (दुरः) सुखैः संवारकाणि द्वाराणि= सुख को बन्द करनेवाले कपाट, (अभिप्राप्य)=प्राप्त करके, (यवस्य) उत्तमस्य यवादेरन्नस्य=उत्तम जौ आदि अन्न के, (प्रदिवः) प्रकृष्टस्य न्यायप्रकाशस्य=प्रकृष्ट न्याय के प्रकाश से, (दुरः) सुखैः संवारकाणि द्वाराणि= सुख को बन्द करनेवाले कपाट, (अधिष्ठितः)= पर्यवेक्षित, (सन्) =होते हुए, (वसुनः) सर्वोत्तमस्य द्रव्यस्य= सर्वोत्तम द्रव्य के, (दाता)=देनेवाले, (असि)=हो। (तम्) उक्तार्थम्= पहले ही व्यक्त किये गये,उस (त्वाम्)= तुम्हारा, (इदम्) अर्चनं सत्करणं यथा स्यात्तथा=अर्चन और सत्कार जैसा था, वैसे ही, (वयम्) =हम, (गृणीमसि) अर्चामः स्तुमः =अर्चन और स्तुति करें ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर की समानता से और धार्मिक विद्वान् के विना किसी को लिये सब पदार्थों से सुखों के देनेवाला कोई नहीं है, परन्तु जो निश्चय करके सबके मित्र शिक्षाओं को प्राप्त किये हुए मनुष्य हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त करते हैं, अन्य मनुष्य नहीं ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) विद्वान् ! (यः) जो (अकामकर्शनः) इच्छाओं को कम करनेवाले, (शिक्षानरः) शिक्षा का प्राप्त करानेवाले, (सखिभ्यः) मित्र से (सखा) मित्रता का (पतिः) पालन करानेवाले, (इनः) ईश्वर के (इव) समान, (त्वम्) तुम (अश्वस्य) व्याप्ति करानेवाले अग्नि आदि या अश्व [से प्राप्त होनेवाले] (दुरः) सुख को बन्द करनेवाले कपाट और (गोः) शोभनीय और उत्कृष्ट वाणी को (अभिप्राप्य) प्राप्त करके, (यवस्य) उत्तम जौ आदि अन्न के द्वारा और (प्रदिवः) प्रकृष्ट न्याय के प्रकाश से (दुरः) सुख को समाप्त करनेवाले कपाट से (अधिष्ठितः) पर्यवेक्षित (सन्) होते हुए, (वसुनः) सर्वोत्तम द्रव्य के (दाता) देनेवाले (असि) हो। (तम्) पहले व्यक्त किये गये, उस (त्वाम्) तुम्हारा (इदम्) अर्चन और सत्कार जैसा था, वैसे ही (वयम्) हम (गृणीमसि) अर्चन और स्तुति करें ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दुरः) सुखैः संवारकाणि द्वाराणि (अश्वस्य) व्याप्तिकारकाग्न्यादेस्तुरङ्गस्य वा (दुरः) (इन्द्र) विद्वन् (गोः) सुसंस्कृताया वाचः (असि) (दुरः) (यवस्य) उत्तमस्य यवादेरन्नस्य (वसुनः) सर्वोत्तमस्य द्रव्यस्य (इनः) ईश्वरः। इन इतीश्वरनामसु पठितम्। (निघं०२.२२) (पतिः) पालयिता (शिक्षानरः) यः शिक्षां नृणाति प्राप्नोति स शिक्षाया नरः शिक्षानरः। अत्र सर्वधातुभ्योऽजयं वक्तव्यः इति नॄधातोरच्प्रत्ययः। (प्रदिवः) प्रकृष्टस्य न्यायप्रकाशस्य (अकामकर्शनः) योऽकामानलसान् कृशति तनूकरोति सः (सखा) सुहृत् (सखिभ्यः) सुहृद्भ्यः (तम्) उक्तार्थम् (इदम्) अर्चनं सत्करणं यथा स्यात्तथा (गृणीमसि) अर्चामः स्तुमः ॥ २ ॥ विषयः- अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र विद्वन् ! योऽकामकर्शनः शिक्षानरः सखिभ्यः सखा पतिरिन इव त्वमश्वस्य दुरो गोर्दुरोऽभिप्राप्य यवस्य प्रदिवो दुरोऽधिष्ठितः सन् वसुनो दाताऽसि तं त्वामिदं वयं गृणीमसि ॥ २ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न हि परमेश्वरतुल्येन धार्मिकेण विदुषा विना कस्मैचित् सर्वपदार्थानां सुखानां च प्रदाता कश्चिदस्ति, परन्तु ये खलु सर्वमित्राः शिक्षाप्राप्ता मनुष्याः सन्ति त एवैतत् सर्वसुखं लभन्ते नेतरे ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वराप्रमाणे धार्मिक विद्वानाशिवाय कोणीही सर्व पदार्थ व सुख देणारा नाही; परंतु निश्चयपूर्वक सर्वांचे मित्र असणारी, शिक्षण प्राप्त केलेली, आळस सोडून उद्योग करणारी, ईश्वराची उपासना करणारी, विद्वानांचा संग प्रेमाने स्वीकारणारी माणसेच या सुखांना प्राप्त करू शकतात, आळशी नव्हे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of knowledge, wealth and power, you are the gateway to speed and fast advancement. You are the giver of divine speech and wealth of cows, earth and prosperity of life. You are the treasure house of food and energy. You are the lord giver of wealth and splendour. You are the leading light of education and scholarship. You are the refulgent lord of light. You are the chastiser of the lazy, an inspiration for the ambitious. And you are the friend of friends. Such is Indra whom we praise and celebrate in song.
Subject of the mantra
Now in this mantra the qualities of scholars have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra) =scholar, (yaḥ) =that, (akāmakarśanaḥ)=reducer of desires, (śikṣānaraḥ)=imparters of education, (sakhibhyaḥ) =from friend, (sakhā) =of friendship, (patiḥ) =getting complied, (inaḥ) =of god, (iva) =like, (tvam) =you, (aśvasya)=universe's fire etc. or horse, [se prāpta honevāle]=being received from, (duraḥ)= the doors that close happiness and, (goḥ)=to graceful and excellent speech, (abhiprāpya) =having obtained, (yavasya) =through good grains like barley and, (pradivaḥ)=by the light of supreme justice, (duraḥ)= from the door that destroys happiness, (adhiṣṭhitaḥ)=supervised, (san)=while happening, (vasunaḥ) =of the best substance, (dātā) =provider, (asi) =are, (tam)=expressed earlier, that, (tvām) =your, (idam) =worship and hospitality were as they were, (vayam) =we, (gṛṇīmasi)=must worship and praise.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! One who reduces desires, helps one attain education, maintains friendship with one's friend, is like God, one who makes you omnipresent, who eliminates the pleasures derived from fire etc. or horses, and by attaining graceful and excellent speech, you are the giver of the best food, through the best food grains like barley and the light of supreme justice, supervised by the door that closes happiness. Let us worship and praise you as was expressed earlier.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. There is no one who can give happiness of all things to anyone except in the likeness of God and a righteous scholar, but those who are determined to be friends with everyone and have received the teachings, only they attain all the happiness, not other humans.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra, (learned king possessor of the great wealth of wisdom) Thou who art the fulfiller of the noble desires of good men and discourager of the indolent, educator of the people, thou art best among friends, master and protector of wealth, giver of horses, the cows or refined speech, barley and other corns, the admirable light of justice, the foremost in liberality, therefore we praise thee. It is also equally applicable to God who is the giver of everything and Lord of all wealth. He is the Best Friend of all His devotees. He is eternal.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( इनः ) ईश्वर: इन इतीश्वरनाम ( निघ० २.२२) = Lord' ( प्रदिव:) प्रकृष्टस्य न्यायप्रकाशस्य = Of admirable light of justice. (अकामकर्शनः) योऽकामान् अलसान् कृशति तनूकरोति सः = Discourager of the indolent or lazy fellows and fulfiller of the noble desires of industrious righteous persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is none giver of all happiness and requisite articles except a righteous and learned person who becomes pure and benevolent in his nature like God. But only those who are friendly to all and have acquired good education can enjoy this happiness and none else.
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