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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं कर॑ञ्जमु॒त प॒र्णयं॑ वधी॒स्तेजि॑ष्ठयातिथि॒ग्वस्य॑ वर्त॒नी। त्वं श॒ता वङ्गृ॑दस्याभिन॒त्पुरो॑ऽनानु॒दः परि॑षूता ऋ॒जिश्व॑ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । कर॑ञ्जम् । उ॒त । प॒र्णय॑म् । व॒धीः॒ । तेजि॑ष्ठया । अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑ । व॒र्त॒नी । त्वम् । श॒ता । वङ्गृ॑दस्य । अ॒भि॒न॒त् । पुरः॑ । अ॒न॒नु॒ऽदः । परि॑ऽसूताः । ऋ॒जिश्व॑ना ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं करञ्जमुत पर्णयं वधीस्तेजिष्ठयातिथिग्वस्य वर्तनी। त्वं शता वङ्गृदस्याभिनत्पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। करञ्जम्। उत। पर्णयम्। वधीः। तेजिष्ठया। अतिथिऽग्वस्य। वर्तनी। त्वम्। शता। वङ्गृदस्य। अभिनत्। पुरः। अननुऽदः। परिऽसूताः। ऋजिश्वना ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभाध्यक्ष ! यतस्त्वं यस्मिन् युद्धव्यवहारे तेजिष्ठया सेनया करञ्जमुतापि पर्णयं वधीर्हंसि याऽतिथिग्वस्य वर्त्तनी गमनागमनसत्करणक्रियाऽस्ति तां रक्षित्वाऽननुदो वङ्गृदस्य दुष्टस्य शतानि पुरः पुराण्यभिनद्भिनत्सि ये परिसूताः पदार्थास्तानृजिश्वनां व्यवहारेण रक्षसि तस्मात्त्वमेव सभाध्यक्षत्वे योग्योऽसीति वयं निश्चिनुमः ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सभाध्यक्षः (करञ्जम्) यः किरति विक्षिपति धार्मिकाँस्तम्। अत्र कॄ विक्षेप इत्यस्माद्धातोः बाहुलकाद् औणादिकोऽञ्जन् प्रत्ययः। (उत) अपि (पर्णयम्) पर्णानि परप्राप्तानि वस्तूनि याति प्राप्नोति तं चोरम् (वधीः) हंसि (तेजिष्ठया) या अतिशयेन तीव्रा तेजिष्ठा सेनानीतिर्वा तया (अतिथिग्वस्य) अतिथीन् गच्छति गमयति वा येन तस्य। अत्रातिथ्युपपदाद्गमधातोः बाहुलकादौणादिको ड्वः प्रत्ययः। (वर्त्तनी) वर्त्तते यया क्रियया सा (त्वम्) (शता) बहूनि (वङ्गृदस्य) यो वङ्गॄन् वक्रान् विषादीन् पदार्थान् व्यवहारान् ददात्युपदिशति वा तस्य दुष्टस्य (अभिनत्) विदारयसि (पुरः) पुराणि (अननुदः) योऽनुगतं न ददाति तस्य (परिषूताः) परितः सर्वतः सूता उत्पन्ना उत्पादिता वा पदार्थाः (ऋजिश्वना) ऋजव ऋजुगुणयुक्ता सुशिक्षिताः श्वानो येन तेन सह ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषैर्दुष्टान् शत्रून् छित्त्वा पूर्णविद्यावतां परोपकारिणां धार्मिकाणामतिथीनां सत्क्रियार्थं सर्वान् प्राणिनः पदार्थांश्च रक्षित्वा धर्म्यं राज्यं सेवनीयम्। यथा श्वानः स्वामिनं रक्षन्ति तथान्ये रक्षितुं न शक्नुवन्ति तस्मादेते सुशिक्ष्य परिरक्षणीयाः ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे सभाध्यक्ष ! जिस कारण (त्वम्) आप इस युद्धव्यवहार में (तेजिष्ठया) अत्यन्त तीक्ष्ण सेना वा नीतियुक्त बल से (करञ्जम्) धार्मिकों को दुःख देने (पर्णयम्) दूसरे के वस्तु को लेनेवाले चोर को (उत) भी (वधीः) मारते और जो (अतिथिग्वस्य) अतिथियों के जाने आने के वास्ते (वर्तनी) सत्कार करनेवाली क्रिया है, उसकी रक्षा कर (अननुदः) अनुकूल न वर्त्तने (वङ्गृदस्य) जहर आदि पदार्थों को देने वा दुष्ट व्यवहारों का उपदेश करनेवाले दुष्ट मनुष्य के (शता) असंख्यात (पुरः) नगरों को (अभिनत्) भेदन करते और जो (परिसूताः) सब प्रकार से उत्पन्न किये हुए पदार्थ हैं, उनकी (ऋजिश्वना) कोमल गुणयुक्त कुत्तों की शिक्षा करनेवाले के समान व्यवहार के साथ रक्षा करते हो, इससे आप ही सभा आदि के अध्यक्ष होने योग्य हो, ऐसा हम लोग निश्चय करते हैं ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    राजमनुष्यों को दुष्ट शत्रुओं के छेदन से पूर्ण विद्यायुक्त परोपकारी धार्मिक अतिथियों के सत्कार के लिये सब प्राणी वा सब पदार्थों की रक्षा करके धर्मयुक्त राज्य का सेवन करना चाहिये, जैसे कि कुत्ते अपनी स्वामी की रक्षा करते हैं, वैसी अन्य जन्तु रक्षा नहीं कर सकते, इससे इन कुत्तों को सिखा कर और इनकी रक्षा करनी चाहिये ॥ ८ ॥

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    विषय

    'करञ्ज - पर्णय व वंगृद' विनाश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में नमुचि के निबर्हण का उल्लेख था, प्रस्तुत मन्त्र में 'करञ्ज, पर्णय व वंगद' के वध का प्रतिपादन है । करञ्ज शब्द की व्युत्पति आचार्य दयानन्द के शब्दों में "किरति विक्षिपति धार्मिकान्" है, जो धार्मिक लोगों को पीड़ित करता है, वह 'करञ्ज' है । "पर्णानि परप्राप्तानि वस्तुनि याति" इस व्युत्पत्ति से पर्णय शब्द को आचार्य ने चोर का वाचक माना है । "वंगृन् वक्रान् विषादीन् पदार्थान् ददाति" इस व्युत्पत्ति से वंगृद का अर्थ विषादि का देनेवाला कुटिल व्यक्ति है । २. 'अतिथिग्व' वह व्यक्ति है जोकि 'अतिथीन् गच्छति' सदा अतिथियों को प्राप्त करता है । मन्त्र में कहते हैं कि (त्वम्) = गतमन्त्र के अनुसार प्रभु का मित्र बननेवाला तु (करजम्) = धार्मिकों को दुःख देनेवाले को (उत) = और (पर्णयम्) = पर - पदार्थों का हरण करनेवाले को (वधीः) = नष्ट करता है, अर्थात् तू अपने में धार्मिक को कष्ट देने की वृत्ति को तथा पर - द्रव्य - हरण की चौर्य वृत्ति को पनपने नहीं देता । तू सदा धार्मिकों का मान करता है और श्रम से ही धर्नाजन करता है । ३. इन करञ्ज व पर्णय की अशुभ वृत्तियों को तू (अतिथिग्वस्य) = अतिथि की (तेजिष्ठया वर्तनी) = अत्यन्त तीन सत्क्रिया से [वर्ततेऽनया] (वधीः) = नष्ट करता है । अतिथिग्व वह है जो सदा अतिथियों के प्रति आदरभाव से जाता है । इस अतिथिग्व का अतिथियों के प्रति वर्तन अत्यन्त नम्रता व आदर को लिये हुए होता है । यह अतिथियज्ञ इसके जीवन में अशुभ भावनाओं को कभी पनपने नहीं देता । यह अतिथि - सत्क्रिया वह तीव्र अस्त्र है जो 'करज व पर्णय' जैसे शत्रुओं को पराजित करने में सफल होता है । ४. (त्वम्) = तू (अनानुदः) = शत्रुओं से न धकेला जाता हुआ (ऋजिश्वना) = [ऋजुना श्वपति] ऋजु मार्ग से गति करनेवाले के द्वारा (परिषूताः) = चारों ओर से घेर लिये गये (वंगदस्य) = विषादि देनेवाले असुर के (शता पुरः) = सैकड़ों नगरों को (अभिनत्) = विदीर्ण करता है । लोक में औरों का पात - पात करके अपने ऐश्वर्यों को बढ़ानेवाले व्यक्ति अपनी सैकड़ों कोठियाँ बना लेते हैं । प्रभु इनकी इन कोठियों को क्षणभर में नष्ट कर डालते हैं [विज इवामिनाति] । प्रभु 'अनानुद' हैं, किसी से भी पराजित न किये जानेवाले हैं । वंगृद के ये पुर ऋजिश्वा से परिषूत होते हैं । ऋजुमार्ग से बढ़नेवाला व्यक्ति अन्ततः इनको अवष्टब्ध कर लेता है । अन्तिम विजय ऋजिश्वा की ही होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'करज, पर्णय व वंगृद' न बनकर ऋजिश्वा बनें ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे सेनापते ! तू ( करंजम् ) प्रजाजनों पर शस्त्रों के फेंकनेवाले, और (पर्णयम्) दूसरों के प्राप्त किये देह, पालन योग्य पदार्थों को चोरने वाले, अथवा प्रजा के पालक पुरुषों पर आक्रमण करनेवाले शत्रु को ( अति थिग्वस्य ) अतिथि के समान पूजनीय पुरुषों को प्राप्त होने वाले प्रजाजन की रक्षा के लिए (तेजिष्ठया ) अति तेजस्विनी, अग्नि से दीप्त होने वाली ( वर्तनी ) शत्रु पर गोला या शस्त्रों को फेंकनेवाली बन्दूक और तोप जैसी शक्ति से ( वधः ) विनाश कर । और ( त्वं ) तू ( वंगृदस्य ) टेढ़ी चालों, कुटिल व्यवहारों को बतलाने या चलनेवाले और ( अनानुदः ) अपने अनुकूल उचित पदाधिकारों को न देनेवाले दुष्ट शत्रु पुरुष के ( शता) सैकड़ों (पुरः) दुर्गों को (ऋजिश्वना परिसूताः) सधे हुए कुत्ते के समान आज्ञाकारी, वशवर्ती सेनाबल द्वारा धेरकर ( अभिनत् ) तोड़ डाल । अथवा अनुकूल कर न देनेवाले कुटिलाचारी शत्रु पुरुष के नगरों को तोड़ और ( ऋजिश्वना ) सधे हुए कुत्तों के समान आज्ञाकारी भृत्यों के स्वामी के साथ मिलकर अधीन पुरुषों से प्राप्त पदार्थों की रक्षा कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-११ सव्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृज्जगती । २ भुरिग्जगती । ४ जगती । ५, ७ विराड्जगती ६, ८,९ त्रिष्टुप् ॥१० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ सतः पङ्क्तिः ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सभाध्यक्ष ! यतः त्वं यस्मिन् युद्धव्यवहारे तेजिष्ठया सेनया करञ्जम् उत अपि पर्णयं वधीः हंसि या अतिथिग्वस्य वर्त्तनी गमनागमन सत्करणक्रिया अस्ति तां रक्षित्वा अननुदः वङ्गृदस्य दुष्टस्य शतानि पुरः पुराणि अभिनत् भिनत्सि ये परिसूताः पदार्थाः तान ऋजिश्वनां व्यवहारेण रक्षसि तस्मात् त्वम् एव सभाध्यक्षत्वे योग्यः असि इति वयं निश्चिनुमः ॥ ८ ॥

    पदार्थ

    हे (सभाध्यक्ष)= सभाध्यक्ष ! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (यस्मिन्)=जिस, (युद्धव्यवहारे)= युद्ध के व्यवहार में, (तेजिष्ठया) या अतिशयेन तीव्रा तेजिष्ठा सेनानीतिर्वा तया= अतिशय तीव्र शक्तिशाली सेनानियों की, (सेनया)= सेना से, (करञ्जम्) यः किरति विक्षिपति धार्मिकाँस्तम्=धार्मिकों को फेंकने वाला, (उत) अपि=भी, (पर्णयम्) पर्णानि परप्राप्तानि वस्तूनि याति प्राप्नोति तं चोरम्=दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करके ले जानेवाला चोर, (वधीः) हंसि=मार देता है, (या)=जो, (अतिथिग्वस्य) अतिथीन् गच्छति गमयति वा येन तस्य=अतिथि जाते हैं या ले जाये जाते हैं, उनके (वर्त्तनी) वर्त्तते यया क्रियया सा=जिस व्यवहार से, (गमनागमन)=आने और जाने की, (सत्करणक्रिया)= सत्कार करनेवाली क्रिया, (अस्ति) =है, (ताम्)=उसकी, (रक्षित्वा)=रक्षा करके, (अननुदः) योऽनुगतं न ददाति तस्य=जो अनुसरण करते हुए नहीं देता है, (वङ्गृदस्य) यो वङ्गॄन् वक्रान् विषादीन् पदार्थान् व्यवहारान् ददात्युपदिशति वा तस्य दुष्टस्य= विष आदि पदार्थों को देनेवाला दुष्ट, (शतानि) बहूनि=बहुत से, (पुरः) पुराणि=नगरों को, (अभिनत्) विदारयसि=तोड़-फोड़ देते हो, (ये)=जो, (परिषूताः) परितः सर्वतः सूता उत्पन्ना उत्पादिता वा पदार्थाः=हर ओर उत्पन्न हुए पदार्थ हैं, (तान्)=उनको, (ऋजिश्वना) ऋजव ऋजुगुणयुक्ता सुशिक्षिताः श्वानो येन तेन सह व्यवहारेण=सरल और सुशिक्षित कुत्तों के द्वारा उनके साथ व्यवहार करते हुए, (रक्षसि)=रक्षा करते हो, (तस्मात्)=इसलिए, (त्वम्) सभाध्यक्षः=तुम सभाध्यक्ष, (एव) =ही, (सभाध्यक्षत्वे)= सभाध्यक्ष होने के, (योग्यः)= योग्य, (असि) =हो, (इति) =ऐसा, (वयम्) =हम, (निश्चिनुमः)= सुनिश्चित करते हैं ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    राजमनुष्यों को दुष्ट शत्रुओं का छेदन करके पूर्ण विद्यायुक्त परोपकारी धार्मिक अतिथियों के सत्कार के लिये सब प्राणियों और सब पदार्थों की रक्षा करके, धर्मयुक्त राज्य की सेवा करनी चाहिये। जैसे कुत्ते अपनी स्वामी की रक्षा करते हैं, वैसे ही अन्य रक्षा नहीं कर सकते हैं, इसलिये इनको अच्छी तरह से सिखा कर इनको पूरी तरह से संरक्षित किया जाना है॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष ! (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (यस्मिन्) जिस (युद्धव्यवहारे) युद्ध के व्यवहार में (तेजिष्ठया) अतिशय तीव्र शक्तिशाली सेनानियों की (सेनया) सेना से (करञ्जम्) धार्मिक लोगों को फेंकने वाला (उत) भी [और] (पर्णयम्) दूसरों की वस्तुओं को प्राप्त करके ले जानेवाला चोर (वधीः) मार देता है। (या) जो (अतिथिग्वस्य) अतिथि जाते हैं या ले जाये जाते हैं, उनके (वर्त्तनी) जिस व्यवहार से (गमनागमन) आने और जाने की और (सत्करणक्रिया) जो सत्कार करनेवाली क्रिया (अस्ति) है, (ताम्) उसकी (रक्षित्वा) रक्षा करके (अननुदः) अनुसरण करते हुए, नहीं देनेवाले और (वङ्गृदस्य) विष आदि पदार्थों को देनेवाले दुष्ट, तुम (शतानि) बहुत से (पुरः) किलों को (अभिनत्) तोड़-फोड़ देते हो। (ये) जो (परिषूताः) हर ओर उत्पन्न हुए पदार्थ हैं, (तान) उनको (ऋजिश्वना) सरल और सुशिक्षित कुत्तों के द्वारा, उनके साथ व्यवहार करते हुए (रक्षसि) तुम रक्षा करते हो, (तस्मात्) इसलिए (त्वम्) तुम (एव) ही, (सभाध्यक्षत्वे) सभाध्यक्ष होने के (योग्यः) योग्य (असि) हो, (इति) ऐसा (वयम्) हम (निश्चिनुमः) सुनिश्चित करते हैं ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः (महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाध्यक्षः (करञ्जम्) यः किरति विक्षिपति धार्मिकाँस्तम्। अत्र कॄ विक्षेप इत्यस्माद्धातोः बाहुलकाद् औणादिकोऽञ्जन् प्रत्ययः। (उत) अपि (पर्णयम्) पर्णानि परप्राप्तानि वस्तूनि याति प्राप्नोति तं चोरम् (वधीः) हंसि (तेजिष्ठया) या अतिशयेन तीव्रा तेजिष्ठा सेनानीतिर्वा तया (अतिथिग्वस्य) अतिथीन् गच्छति गमयति वा येन तस्य। अत्रातिथ्युपपदाद्गमधातोः बाहुलकादौणादिको ड्वः प्रत्ययः। (वर्त्तनी) वर्त्तते यया क्रियया सा (त्वम्) (शता) बहूनि (वङ्गृदस्य) यो वङ्गॄन् वक्रान् विषादीन् पदार्थान् व्यवहारान् ददात्युपदिशति वा तस्य दुष्टस्य (अभिनत्) विदारयसि (पुरः) पुराणि (अननुदः) योऽनुगतं न ददाति तस्य (परिषूताः) परितः सर्वतः सूता उत्पन्ना उत्पादिता वा पदार्थाः (ऋजिश्वना) ऋजव ऋजुगुणयुक्ता सुशिक्षिताः श्वानो येन तेन सह ॥ ८ ॥ विषयः- पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सभाध्यक्ष ! यतस्त्वं यस्मिन् युद्धव्यवहारे तेजिष्ठया सेनया करञ्जमुतापि पर्णयं वधीर्हंसि याऽतिथिग्वस्य वर्त्तनी गमनागमनसत्करणक्रियाऽस्ति तां रक्षित्वाऽननुदो वङ्गृदस्य दुष्टस्य शतानि पुरः पुराण्यभिनद्भिनत्सि ये परिसूताः पदार्थास्तानृजिश्वनां व्यवहारेण रक्षसि तस्मात्त्वमेव सभाध्यक्षत्वे योग्योऽसीति वयं निश्चिनुमः ॥ ८ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजपुरुषैर्दुष्टान् शत्रून् छित्त्वा पूर्णविद्यावतां परोपकारिणां धार्मिकाणामतिथीनां सत्क्रियार्थं सर्वान् प्राणिनः पदार्थांश्च रक्षित्वा धर्म्यं राज्यं सेवनीयम्। यथा श्वानः स्वामिनं रक्षन्ति तथान्ये रक्षितुं न शक्नुवन्ति तस्मादेते सुशिक्ष्य परिरक्षणीयाः ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी दुष्ट शत्रूंचे छेदन करून पूर्ण विद्यायुक्त, परोपकारी, धार्मिक अतिथींच्या सत्कारासाठी सर्व प्राण्यांचे व सर्व पदार्थांचे रक्षण करून धर्मयुक्त राज्याचे सेवन केले पाहिजे. जसे श्वान आपल्या स्वामीचे रक्षण करतात तसे अन्य प्राणी रक्षण करू शकत नाहीत. त्यामुळे त्या श्वानांना शिकवून त्यांचे रक्षण केले पाहिजे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    By your ardour and brilliance you destroy the man who troubles the pious, who steals others’ money and property, and who waylays the travellers and prevents hospitality. By your own strength you rout a hundred strongholds of the purveyors of poison and exploitation and you protect the good creations and productions of people by disciplined expert masters of management.

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    Subject of the mantra

    Then what should the Chairman of the Assembly do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(sabhādhyakṣa) Chairman of the Assembly, (yataḥ) =because, (tvam) =you, (yasmin) =which, (yuddhavyavahāre) =in the practice of battle, (tejiṣṭhayā)= of extremely strong and powerful fighters, (senayā) =by army, (karañjam) =thrower of righteous people, (uta) =also [aura]=and, (parṇayam)=by acquiring other people's things, thieves, (vadhīḥ) =kills, (yā) =that, (atithigvasya) =guests go or taken away, their (varttanī) =by which behavior, (gamanāgamana) =ofcoming and going and, (satkaraṇakriyā)= the act of hospitality, (asti) =is, (tām) =of that, (rakṣitvā) =protect, (ananudaḥ)=following, not giving and, (vaṅgṛdasya) =you are the evil one who gives poison etc., (śatāni) =many, (puraḥ) = to cities, (abhinat) =you shatter, (ye) =those, (pariṣūtāḥ)=there are substances produced everywhere, (tāna) =to them, (ṛjiśvanā)=by simple and well-trained dogs, dealing with them, (rakṣasi) =you protect, (tasmāt) =therefore, (tvam) =you, (eva) =only, (sabhādhyakṣatve) =to be Chairman of the Assembly, (yogyaḥ) =able, (asi) =are, (iti) =such, (vayam) =we, (niścinumaḥ) =ensure.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman! Because in the conduct of war, even the one who throws righteous people away from the army of extremely fast and powerful fighters and the thief who takes away the belongings of others is killed. By guarding and following the behaviour of the guests who go or are being taken, the way they come and go and the acts of hospitality, you, the evil ones who do not give and give poison etc., destroy many cities. We ensure that you protect the things that have arisen everywhere by dealing with them with simple and well-trained dogs, hence you are the one worthy of being the Chairman of the Assembly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The royal people should serve the righteous state by piercing the evil enemies and by protecting all the living beings and all the things and by welcoming the charitable righteous guests with full knowledge. Just like dogs protect their master, they cannot protect others in the same way, hence they have to be completely protected by training them well.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Indra do is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly or King) Thou slyest in battles with thy vigorous army an unrighteous person who attacks the righteous. Thou/slyest a thief who takes away other's articles. Protecting the movements and honor shown by a righteous person to his guests, thou demolishest the cities or forts of a wicked fellow who uses poison and teaches others to do so in order to kill good persons and who being utterly selfish does not feed his followers. Thou protectest and preservest the articles which have been made, like one who has trained dogs. Therefore we are certain that thou art fit to be the President of the Assembly or King.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( करंजम् ) यः किरति विक्षिपति धार्मिकांस्तम् अत्र कृविक्षेप इत्यस्माद् धातोर्बाहुलकादौणादिकोऽजन् प्रत्ययः = One who throws away or insults righteous persons. (पर्णयम् ) पर्णानि परप्राप्तानि वस्तूनि याति प्राप्नोति तं चोरम् = A thief. (अतिथिग्वस्य ) अतिथीन् गच्छति गमयति वा येन तस्य | अत्रातिथ्युपपदाद् गमधातोर्बाहुलकादौणादिको ड्वः प्रत्ययः = One who approaches or serves the guests. ( ऋजिश्वना ) ऋजयः ऋजुगुणयुक्ताः सुशिक्षिताः श्वानो येन तेन सह = With a trainer of dogs.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the State should destroy their enemies and protect the substances and beings in order to honor highly learned, benevolent righteous guests and thus administer the State lawfully and righteously. The dogs should be trained properly and utilized for watch as other animals cannot protect their masters like them, they being most faithful.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take words like Karanja, Parnaya, Atithigva, and Rijishva as proper nouns denoting the names of certain persons, while as they are derivative nouns denoting certain attributes as explained above by Rishi Dayananda.

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