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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 61/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒स्मा इदु॒ स्तोमं॒ सं हि॑नोमि॒ रथं॒ न तष्टे॑व॒ तत्सि॑नाय। गिर॑श्च॒ गिर्वा॑हसे सुवृ॒क्तीन्द्रा॑य विश्वमि॒न्वं मेधि॑राय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । इत् । ऊँ॒ इति॑ । स्तोम॑म् । सम् । हि॒नो॒मि॒ । रथ॑म् । न । तष्टा॑ऽइव । तत्ऽसि॑नाय । गिरः॑ । च॒ । गिर्वा॑हसे । सु॒ऽवृ॒क्ति । इन्द्रा॑य । वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वम् । मेधि॑राय ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय। गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। इत्। ऊँ इति। स्तोमम्। सम्। हिनोमि। रथम्। न। तष्टाऽइव। तत्ऽसिनाय। गिरः। च। गिर्वाहसे। सुऽवृक्ति। इन्द्राय। विश्वम्ऽइन्वम्। मेधिराय ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 61; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथाऽहं मेधिराय गिर्वाहसेऽस्मा इन्द्रायेदुं रथं न यानसमूहमिव तत्सिनाय तष्टेव विश्वमिन्वं सुवृक्ति स्तोमं गिरश्च संहिनोमि, तथा यूयमपि प्रयतध्वम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अस्मै) सभ्याय (इत्) अपि (उ) वितर्के (स्तोमम्) स्तुतिम् (सम्) सम्यगर्थे (हिनोमि) वर्धयामि (रथम्) यानसमूहम् (न) इव (तष्टेव) यथा तनूकर्त्ता शिल्पी (तत्सिनाय) तस्य यानसमूहस्य बन्धनाय (गिरः) वाचः (च) समुच्चये (गिर्वाहसे) यो गिरो विद्यावाचो वहति तस्मै (सुवृक्ति) सुष्ठु वृजते त्यजन्ति दोषान् यस्मात्तत् (इन्द्राय) विद्यावृष्टिकारकाय (विश्वमिन्वम्) यो विश्वं सर्वं विज्ञानमिन्वति व्याप्नोति तत्। अत्र विभक्त्यलुक्। (मेधिराय) धीमते ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा रथकारो दृढं रथं चालनाय बन्धनैः सह यन्त्रकलाः सम्यग्रचयित्वा स्वप्रयोजनानि साध्नोति सुखेन गमनागमने कृत्वा मोदते, तथैव मनुष्यो विद्वांसमाश्रित्य तत्सन्नियोगेन विद्या गृहीत्वा सुखेन धर्मार्थकाममोक्षान् साधयित्वा सततमानन्देत् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं (मेधिराय) अच्छे प्रकार जानने (गिर्वाहसे) विद्यायुक्त वाणियों को प्राप्त करानेवाले (अस्मै) इस (इन्द्राय) विद्या की वृष्टि करनेवाले विद्वान् (इत्) ही के लिये (उ) तर्कपूर्वक (रथम्) यानसमूह के (न) समान (तत्सिनाय) यानसमूह के बन्धन के लिये (तष्टेव) तीक्ष्ण करनेवाले कारीगर के तुल्य (विश्वमिन्वम्) सब विज्ञान को प्राप्त कराने (सुवृक्ति) जिससे सब दोषों को छो़ड़ते हैं, उस (स्तोमम्) शास्त्रों के अभ्यासयुक्त स्तुति (च) और (गिरः) वेदवाणियों को (संहिनोमि) सम्यक् बढ़ाता हूँ, वैसे तुम भी प्रयत्न किया करो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रथ का बनानेवाला दृढ़ रथ के बनाने के वास्ते उत्तम बन्धनों के सहित यन्त्रकलाओं को अच्छे प्रकार रच कर अपने प्रयोजनों को सिद्ध करता और सुखपूर्वक जाना-आना करके आनन्दित होता है, वैसे ही मनुष्य विद्वान् का आश्रय लेकर उस के सम्बन्ध से धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करके सदा आनन्द में रहें ॥ ४ ॥

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    विषय

    स्तोम तथा हवि

    पदार्थ

    १. मैं (अस्मै इत् उ) = इस प्रभु के लिए ही (स्तोमम्) = स्तुति को (संहिनोमि) = प्राप्त करता हूँ । उसी प्रकार प्राप्त करता हूँ (इव) = जैसे (तत्सिनाय) = [तेन रथेन सिनमन्नं यस्य] रथ के द्वारा आजीविका चलानेवाले रथ - स्वामी के लिए जैसे (तष्टा रथं न) = बढ़ई रथ को प्राप्त कराता है । बढ़ई रथ का निर्माण करके उस रथ को स्वामी के लिए रख देता है, इसी प्रकार मैं स्तोमों का निर्माण करके इन स्तोमों को प्रभु के लिए प्राप्त कराता हैं, सब स्तोमों के स्वामी प्रभु ही हैं । वस्तुतः स्तवन प्रभु का ही करना चाहिए, प्रभु से अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति की स्तुति ठीक नहीं । २. मैं (गिर्वाहसे) = वेदवाणियों के धारण करनेवाले (इन्द्राय) = परमैश्वर्यवाले प्रभु के लिए (गिरः) = स्तुतिवाणियों को प्रेरित करता हूँ (च) = और ३. उस (मेधिराय) = मेधावी व मेधा के देनेवाले प्रभु की प्राप्ति के लिए (सुवृक्ति) = शोभनतया पापों का वर्जन करनेवाली (विश्वमिन्वम्) = विश्वव्यापक, सर्वत्र फैल जानेवाली हवि को प्राप्त करता हूँ । यज्ञों में हवि देकर यज्ञशेष का ही मैं सेवन करता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए 'स्तोमों का उच्चारण व हवि प्रदान करना' प्रमुख साधन

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    विषय

    राजा के गुणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (तत्सिनाय) रथ के निमित्त वृत्ति या द्रव्य या अन्न से बाँध लेने वाले स्वामी के उपयोग के लिए (तष्टा) शिल्पी जिस प्रकार (रथं न) रथ को बनाता है उसी प्रकार मैं (अस्मा इत् उ) इस (तत्सिनाय) स्तुति के साथ यथार्थ अर्थों से सम्बद्ध उसके प्रतिपाद्य, अथवा (तत्सिनाय) उन उन नाना प्रकार की प्रजाओं को व्यवस्था में बांधने वाले ऐश्वर्यों, वेतनों तथा उपायों के स्वामी, राजा के लिए (इत् उ) ही (स्तोमं) स्तुति समूह तथा नाना अधिकार और सैन्यदल (संहिनोमि) प्रेरित करता हूँ, संचालित करता हूँ। उसी (गिर्वाहसे) समस्त स्तुति-वाणियों या आज्ञाओं को धारण करने वाले मुख्य अध्यक्ष को ही मैं (गिरः च ) समस्त आज्ञाएं भी प्रदान करता हूँ और (मेधिराय) उस बुद्धिमान् पुरुष को मैं (सुवृक्ति) दोषों को छुड़ाने, विघ्नों और शत्रुओं के वर्जन करने वाला (विश्वमिन्वम्) जगद्व्यापक अधिकार प्रदान करता हूँ। परमेश्वर के पक्ष में—नाना व्यवस्थाओं से बांधने वाले परमेश्वर के निमित्त मैं वेद स्तुति समूह को उच्चारण करूं। उसी परमेश्वर के लिए मैं विश्वव्यापक, पापनाशक स्तवन करूं वही सब ज्ञानों का दाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, १४, १६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ९ निचृत् विष्टुप् । ३, ४, ६, ८, १०, १२ पंक्तिः । ५, १५ विराट पंक्तिः । ११ भुरिक् पंक्ति: । १३ निचृतपंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा अहं मेधिराय गिर्वाहसे अस्मै इन्द्राय इत् उ रथं न यानसमूहम् इव तत्सिनाय तष्टा इव विश्वमिन्वं सुवृक्ति स्तोमं गिरः च सं हिनोमि तथा यूयम् अपि प्रयतध्वम् ॥४॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (अहम्)=मैं, (मेधिराय) धीमते= बुद्धिमान् में, (गिर्वाहसे) यो गिरो विद्यावाचो वहति तस्मै= विद्या युक्त वाणी वाले में, (अस्मै) सभ्याय=सभा के लिये, (इन्द्राय) विद्यावृष्टिकारकाय=विद्या की वृष्टि करनेवाले के लिये, (इत्) अपि=भी, (उ) वितर्के=अथवा, (रथम्) यानसमूहम्= यानों के समूह के, (न) इव=समान, (तत्सिनाय) तस्य यानसमूहस्य बन्धनाय=उस यानों के समूह के बन्धन को लिये, (तष्टेव) यथा तनूकर्त्ता शिल्पी=जैसे छीलनेवाला शिल्पी अथवा बढ़ई, (विश्वमिन्वम्) यो विश्वं सर्वं विज्ञानमिन्वति व्याप्नोति तत्=सारे संसार में विशेष ज्ञान से व्याप्त, (सुवृक्ति) सुष्ठु वृजते त्यजन्ति दोषान् यस्मात्तत्=उत्तम रूप से दोषों को त्यागनेवाला, (स्तोमम्) स्तुतिम्= स्तुतियों को, (च) समुच्चये=और, (गिरः) वाचः= वेदवाणी से, (सम्) सम्यगर्थे=सम्यक् रूप से, (हिनोमि) वर्धयामि=बढ़ाता हूँ, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (प्रयतध्वम्)=प्रयत्न करो ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे रथ का बनानेवाला दृढ़ रथ को चलाने के लिये यन्त्रों के पुर्जों का बन्धनों के साथ अच्छे प्रकार निर्माण करके अपने प्रयोजनों को सिद्ध करता है और सुखपूर्वक जाना-आना करके आनन्दित होता है, वैसे ही मनुष्य विद्वान् का आश्रय लेकर उस के सम्बन्ध से विद्या को ग्रहण करके सुख के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करके सदा आनन्द में रहें ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे, (अहम्) मैं (मेधिराय) बुद्धिमान् में और (गिर्वाहसे) विद्या युक्त वाणी वाले में (अस्मै) सभा के लिये (इन्द्राय) विद्या की वृष्टि करनेवाले के लिये (इत्) भी, (उ) अथवा (रथम्) यानों के समूह के (न) समान, (तत्सिनाय) उस यानों के समूह के बन्धन को लिये, (तष्टेव) जैसे छीलनेवाला शिल्पी अथवा बढ़ई (विश्वमिन्वम्) सारे संसार में विशेष ज्ञान से व्याप्त, (सुवृक्ति) उत्तम रूप से दोषों को त्यागनेवाला (स्तोमम्) स्तुतियों (च) और (गिरः) वेदवाणी से (सम्) सम्यक् रूप से (हिनोमि) बढ़ाता हूँ, (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (प्रयतध्वम्) प्रयत्न करो ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्मै) सभ्याय (इत्) अपि (उ) वितर्के (स्तोमम्) स्तुतिम् (सम्) सम्यगर्थे (हिनोमि) वर्धयामि (रथम्) यानसमूहम् (न) इव (तष्टेव) यथा तनूकर्त्ता शिल्पी (तत्सिनाय) तस्य यानसमूहस्य बन्धनाय (गिरः) वाचः (च) समुच्चये (गिर्वाहसे) यो गिरो विद्यावाचो वहति तस्मै (सुवृक्ति) सुष्ठु वृजते त्यजन्ति दोषान् यस्मात्तत् (इन्द्राय) विद्यावृष्टिकारकाय (विश्वमिन्वम्) यो विश्वं सर्वं विज्ञानमिन्वति व्याप्नोति तत्। अत्र विभक्त्यलुक्। (मेधिराय) धीमते ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यथाऽहं मेधिराय गिर्वाहसेऽस्मा इन्द्रायेदुं रथं न यानसमूहमिव तत्सिनाय तष्टेव विश्वमिन्वं सुवृक्ति स्तोमं गिरश्च संहिनोमि, तथा यूयमपि प्रयतध्वम् ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा रथकारो दृढं रथं चालनाय बन्धनैः सह यन्त्रकलाः सम्यग्रचयित्वा स्वप्रयोजनानि साध्नोति सुखेन गमनागमने कृत्वा मोदते, तथैव मनुष्यो विद्वांसमाश्रित्य तत्सन्नियोगेन विद्या गृहीत्वा सुखेन धर्मार्थकाममोक्षान् साधयित्वा सततमानन्देत् ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा रथ तयार करणारा दृढ रथ तयार करण्यासाठी उत्तम बंधनांनी यंत्रकलांना चांगल्या प्रकारे तयार करून आपले प्रयोजन सिद्ध करतो व सुखपूर्वक जाणे-येणे करून आनंदित होतो. तसेच माणसांनी विद्वानाचा आश्रय घेऊन त्यांच्या सान्निध्याने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For this Indra, ruling lord of knowledge and power, master promoter of divine speech and veteran of wisdom, I create and float a song of praise of universal and persuasive purport and use words of discriminating wisdom to strengthen his power and control over the land and people just as an engineer creates a strong structure for the chassis of the master’s chariot.

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    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =as, (aham) =I, (medhirāya)=in intelligent and, (girvāhase)=one with knowledgeable speech, (asmai) =for the assembly, (indrāya)= for the one who showers knowledge, (it) =also, (u) =or, (ratham) =of the group of vehicles, (na) =like, (tatsināya)=for the bondage of that group of vehicles, (taṣṭeva)=like a peeler or carpenter, (viśvaminvam)= pervading the entire world with special knowledge, (suvṛkti)=perfect eliminator of faults, (stomam) =praises, (ca) =and, (giraḥ) =by speech of vedas, (sam) =properly, (hinomi)= augment, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (prayatadhvam) =make efforts.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! As, I am among the wise and the one who has speech full of knowledge, and also for the one who showers knowledge for the assembly, or like a group of vehicles, I am bound by that group of vehicles, like a peeler, a craftsman or a carpenter, pervade with special knowledge in the whole world, the one who gives up the faults in the best way, I praise with the speech of Vedas and augment properly, you all should also make efforts in the same way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as the charioteer fulfills his purpose by making well the parts of the machinery along with the attachments to run the chariot and enjoys the pleasure of going to and fro, in the same way a man takes the shelter of a scholar and acquires knowledge from him. By accepting and achieving happiness along with righteousness, wealth, desire and salvation, remain always with joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as I prepare praises for him who is wise, conveyor of a speech that gives knowledge, showerer of wisdom or like a carpenter constructing a chariot for proper use. These praises are well deserved for Indra (endowed with the great wealth of wisdom and knowledge) well-versed in all sciences who is entitled to commendation and excellent, prompting all to give up all evils.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्राय) विद्यावृष्टिकारकाय = Showerer of knowledge and wisdom. (सुवृक्ति) सुष्टु वृजते त्यजन्ति दोषान्यस्मात् तत् = By which people renounce all evils. (विश्वमिन्वम् ) यः विश्वं सर्वं विज्ञानम् इन्वति व्याप्नोति तत् अत्र विभक्त्यलुक् = Pervading all or well-versed in all sciences.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a Carpenter constructs a strong chariot or car for going to distant places and uses all necessary implements to accomplish his purpose, enjoys happiness by travelling comfortably, in the same manner, a man should, constantly attain joy sitting at the feet of a highly learned person acquiring knowledge under him and easily accomplishing Dharma (righteousness) Artha (Wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation).

    Translator's Notes

    इन्द्राय-इरां द्रवतीति इन्द्रो निरुक्ते इरावत्यः-नदीनाम (निघ० १.१३) = Here showerer of the water of knowledge or इदी-परमैश्वर्ये = Endowed with the great wealth of wisdom. इन्वति-इवि-व्याप्तौ

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