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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वो न यः पृ॑थि॒वीं वि॒श्वधा॑या उप॒क्षेति॑ हि॒तमि॑त्रो॒ न राजा॑। पु॒रः॒सदः॑ शर्म॒सदो॒ न वी॒रा अ॑नव॒द्या पति॑जुष्टेव॒ नारी॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः । न । यः । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽधा॑याः । उ॒प॒ऽक्षेति॑ । हि॒तऽमि॑त्रः॑ । न । राजा॑ । पु॒रः॒ऽसदः॑ । श॒र्म॒ऽसदः॑ । न । वी॒राः । अ॒न॒व॒द्या । पति॑जुष्टाऽइव । नारी॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवो न यः पृथिवीं विश्वधाया उपक्षेति हितमित्रो न राजा। पुरःसदः शर्मसदो न वीरा अनवद्या पतिजुष्टेव नारी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। न। यः। पृथिवीम्। विश्वऽधायाः। उपऽक्षेति। हितऽमित्रः। न। राजा। पुरःऽसदः। शर्मऽसदः। न। वीराः। अनवद्या। पतिजुष्टाऽइव। नारी ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यो देवः पृथिवीं न विश्वधाया हितमित्रो राजा नोपेक्षति पुरःसदः शर्म्मसदो वीरा न दुःखानि शत्रून् विनाशयति। अनवद्या पतिजुष्टेव सुखे निवासयति तं सदा समाहिता भूत्वा यथावत् परिचरत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (देवः) दिव्यसुखदाता (न) इव (यः) सर्वोपकारको विद्वान् (पृथिवीम्) भूमिम् (विश्वधायाः) यो विश्वं दधाति। अत्र विश्वोपपदाद्बाहुलकादसुन् युडागमश्च। (उपक्षेति) विजानाति निवासयति वा (हितमित्रः) हिता धृता मित्राः सुहृदो येन सः (नः) इव (राजा) सभाध्यक्षः (पुरःसदः) ये पूर्वं सीदन्ति शत्रून् हिंसन्ति वा (शर्म्मसदः) ये शर्मणि सुखे सीदन्ति ते (न) इव (वीराः) शत्रूणां प्रक्षेप्तारः (अनवद्या) विद्यासौन्दर्यादिशुभगुणयुक्ता (पतिजुष्टेव) पतिर्जुष्टः प्रीतः सेवितो यया तद्वत् (नारी) नरस्येयं विवाहिता भार्य्या ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। न खलु मनुष्याः परमेश्वरेण विद्वद्भिः सह प्रेम्णा सह वर्त्तमानेन विना सर्वं बलं सुखं च प्राप्तुमर्हन्ति तस्मादेताभ्यां साकं प्रीतिं सदा कुर्वन्तु ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर भी विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग (यः) जो (देवः) अच्छे सुखों का देनेवाला परमेश्वर वा विद्वान् (पृथिवीम्) भूमि के समान (विश्वधायाः) विश्व को धारण करनेवाले (हितमित्रः) मित्रों को धारण किये हुए (राजा) सभा आदि के अध्यक्ष के (न) समान (उपक्षेति) जानता वा निवास कराता है तथा (पुरःसदः) प्रथम शत्रुओं को मारने वा युद्ध के जानने (शर्मसदः) सुख में स्थिर होने और (वीराः) युद्ध में शत्रुओं के फेंकनेवाले के (न) समान तथा (अनवद्या) विद्यासौन्दर्यादि शुद्धगुणयुक्त (नारी) नर की स्त्री (पतिजुष्टेव) जो कि पति की सेवा करनेवाली के समान सुखों में निवास कराता है, उसको सदा सेवन करो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य लोग परमेश्वर वा विद्वानों के साथ प्रेम प्रीति से वर्त्तने के विना सब बल वा सुखों को प्राप्त नहीं हो सकते, इससे इन्हींके साथ सदा प्रीति करें ॥ ३ ॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे प्रियबन्धु विद्वानो! (देवो, न) ईश्वर सब जगत् के बाहर और भीतर सूर्य की नाई प्रकाश कर रहा है, ,(यः पृथिवीम्) जो पृथिव्यादि जगत् को रचके धारण कर रहा है और (विश्वधायाः उपक्षेति) विश्वधारक शक्ति का भी निवास देने और धारण करनेवाला है तथा जो सब जगत् का परममित्र, अर्थात् जैसे (हितमित्रो, न, राजा) प्रियमित्रवान् राजा अपनी प्रजा का यथावत् पालन करता है, वैसे ही हम लोगों का पालनकर्त्ता वही एक है, अन्य कोई भी नहीं। (पुरः सदः, शर्मसदः,)  जो जन ईश्वर के पुर:सद हैं, (ईश्वराभिमुख ही हैं) वे ही शर्मसदः, अर्थात् सुख में सदा स्थिर रहते हैं। (न वीराः) जैसे पुत्रलोग अपने पिता के घर में आनन्दपूर्वक निवास करते हैं, वैसे ही जो परमात्मा के भक्त हैं वे सदा सुखी ही रहते हैं, परन्तु जो अनन्यचित्त होके निराकार, सर्वत्र व्याप्त ईश्वर की सत्य श्रद्धा से भक्ति करते हैं, जैसेकि (अनवद्या, पतिजुष्टेव, नारी) अत्यन्तोत्तम गुणयुक्त पति की सेवा में तत्पर पतिव्रता नारी [स्त्री] रात-दिन तन, मन, धन से अत्यन्त प्रीतियुक्त होके अनुकूल ही रहती है, वैसे प्रेम-प्रीतियुक्त होके आओ, भाई लोगो ! ईश्वर की भक्ति करें और अपन सब मिलके परमात्मा से परमसुख-लाभ उठावें ॥ ४६ ॥ 
     

    टिपण्णी

    १. नाईं=भाँति, समान
     

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    विषय

    अनवद्या पतिजुष्टा नारी

    पदार्थ

    १. (यः) = जो प्रभु (देवः न) = एक दाता - देनेवाले की भाँति ‘देवो दानात्’ , (विश्वधायाः) = सबके धारण करनेवाले हैं, वे (हितमित्रः राजा न) = हित करनेवाले स्नेही राजा की भांति (पृथिवीम्) = इस पृथिवी पर (उपक्षेति) = निवास करते हुए क्रियाशील हैं । २. इस प्रभु के (पुरः सदः) = सामने रहनेवाले, प्रभु की आँख से ओझल न होनेवाले (शर्मसदः न) = सुख में रहनेवालों की भाँति (वीराः) = वीर होते हैं । सुखी भी होते हैं, वीर भी होते हैं । ३. प्रभु को न भूलनेवाले, प्रभु की आँख से अपने को ओझल न करनेवाले व्यक्ति (पतिजुष्टा नारी इव) = पति को प्रेम से उपासित करनेवाली नारी की भाँति (अनवद्या) = अनिन्दित होते हैं । पतिव्रता नारी की पवित्रता प्रोवर्बियल [लोकप्रसिद्ध] है । यही पवित्रता उस व्यक्ति को प्राप्त होती है जो प्रभु से अपने को ओझल नहीं करता । प्रभु पति होते हैं, वह पत्नी का स्थान ग्रहण करता है - पूर्ण पातिव्रत्य का पालन करनेवाली पत्नी का । रहस्यवाद की भाषा में यह प्रभु को पति के रूप में वरण करनेवाला होता है । प्रभु की शक्ति को प्राप्त करके जैसे प्रकृति सूर्य - चन्द्रादि को जन्म देती है, उसी प्रकार प्रभु से शक्ति प्राप्त करके यह यज्ञ, दान तप, आदि उत्तम कर्मों को जन्म देता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु विश्वधाया है, हितमित्र राजा के समान हैं । हमें प्रभु की ‘अनवद्या पतिजुष्टा नारी’ बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।

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    विषय

    उसके सूर्य के समान कर्तव्य

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( देवः) दानशील, सर्वप्रकाशक, मेघ और सूर्य के समान ( विश्वधायाः) समस्त विश्व को और समस्त जीवगण को धारण और पोषण और आनन्द रस का पान करनेहारा है । जो ( हितमित्रः) जलांशों को अपने भीतर धारण करनेवाले सूर्य के समान हितकारी मित्रों से युक्त राजा (पृथिवीम् उपक्षेति) भूमि पर सुख से निवास करता है। (शर्मसदः) एक ही शरण या आश्रय स्थान में रहनेवाले (वीराः न) वीरगण जिस प्रकार प्रेम से रहते हैं उसी प्रकार जिस राजा के अधीन (पुरः सदः) पुरों में रहने वाले प्रजागण तथा (पुरः सदः) आगे बढ़कर शत्रु पर जा पड़नेवाले या उच्च पदों पर स्थित नायकगण भी ( शर्मसदः ) एक वृत्ति दाता के आश्रय रहते हुए (वीराः) शत्रुओं को विविध रीति से उखाड़नेहारे हों । ( नारी ) स्त्री जिस प्रकार (अनवद्या) निन्दा योग्य, बुरे लक्षणों और पापों से रहित (पतिजुष्टा इव ) पति के प्रति प्रेम से बद्ध होकर रहती हुई कभी विपरीत नहीं होती उसी प्रकार (नारी) नायकगणों से बनी हुई प्रजा या सेना भी (पतिजुष्टा) अपने पालक राजा या सेनापति को प्रेम करनेहारी होकर (अनवद्या) गर्हा या निन्दा के योग्य, पापाचारों से रहित हो । सेनापति की आज्ञापालक सेना ही उत्तम होती है । अध्यात्म में—देव, ईश्वर और जीव । पृथिवी प्रकृति । वीर प्राण । नारी बुद्धि ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर भी विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यः देवः पृथिवीं न विश्वधाया हितमित्रः राजा न उपेक्षति पुरःसदः शर्म्मसदः वीराः न दुःखानि शत्रून् विनाशयति। अनवद्या पतिजुष्टेव{नारी} सुखे निवासयति तं सदा समाहिता भूत्वा यथावत् परिचरत ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब, (यः) सर्वोपकारको विद्वान्=सबका उपकार करनेवाले विद्वान्, (देवः) दिव्यसुखदाता= दिव्य सुखों के दाता, (पृथिवीम्) भूमिम्=भूमि के, (न) इव=समान, (विश्वधायाः) यो विश्वं दधाति= विश्व को धारण करनेवाले, (हितमित्रः) हिता धृता मित्राः सुहृदो येन सः=हितों को धारण करनेवाले मित्र, (राजा) सभाध्यक्षः= सभा के अध्यक्ष के, (न) इव=समान, (उपक्षेति) विजानाति निवासयति वा=विशेष रूप से जानता है या निवास करता है, (पुरःसदः) ये पूर्वं सीदन्ति शत्रून् हिंसन्ति वा=पहले स्थित होकर शत्रुओं का नाश करनेवाले, (शर्म्मसदः) ये शर्मणि सुखे सीदन्ति ते=सुख में स्थित रहनेवाले, (वीराः) शत्रूणां प्रक्षेप्तारः=शत्रुओं को फेंक देनेवाले के, (न) इव =समान, (दुःखानि)= दुःखों और, (शत्रून्)= शत्रुओं का, (विनाशयति)= विनाश करता है, (अनवद्या) विद्यासौन्दर्यादिशुभगुणयुक्ता= विद्या, सौन्दर्य, आदि शुभ गुणों से युक्त, (पतिजुष्टेव) पतिर्जुष्टः प्रीतः सेवितो यया तद्वत्=पति से प्रेम की हुई के समान, {नारी} नरस्येयं विवाहिता भार्य्या=मनुष्य की यह विवाहिता पत्नी, (सुखे)= सुख में, (निवासयति)= निवास करती है, (तम्)=उसकी, (सदा)= सदा, (समाहिता)= सामंजस्य पूर्ण, (भूत्वा)=होकर, (यथावत्)=ठीक-ठीक, (परिचरत)=सेवा करो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। निश्चय से ही मनुष्य परमेश्वर और विद्वानों के साथ प्रेम के उपस्थित हुए विना समस्त बल और सुख को प्राप्त करने के योग्य नहीं होते हैं, इसलिये इनके साथ सदा प्रीति करो ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) सबका उपकार करनेवाले विद्वान्, (देवः) दिव्य सुखों के दाता और (पृथिवीम्) भूमि के (न) समान (विश्वधायाः) विश्व को धारण करनेवाले, (हितमित्रः) हितों को धारण करनेवाले मित्र, (राजा) सभा के अध्यक्ष के (न) समान (उपक्षेति) विशेष रूप से जानते है या निवास करते हो। (पुरःसदः) पहले स्थित होकर शत्रुओं का नाश करनेवाले, (शर्म्मसदः) सुख मंय स्थित रहनेवाले और (वीराः) शत्रुओं को फेंक देनेवाले के (न) समान (दुःखानि) दुःखों और (शत्रून्) शत्रुओं का (विनाशयति) विनाश करता है, (अनवद्या) विद्या, सौन्दर्य, आदि शुभ गुणों से युक्त (पतिजुष्टेव) पति से प्रेम की हुई नारी के समान {नारी} मनुष्य की यह विवाहिता पत्नी (सुखे) सुख में (निवासयति) निवास करती है, (तम्) उसकी (सदा) सदा (समाहिता) सामंजस्य पूर्ण (भूत्वा) होकर (यथावत्) ठीक-ठीक (परिचरत) सेवा करो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    दे॒वः । न । यः । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽधा॑याः । उ॒प॒ऽक्षेति॑ । हि॒तऽमि॑त्रः॑ । न । राजा॑ । पु॒रः॒ऽसदः॑ । श॒र्म॒ऽसदः॑ । न । वी॒राः । अ॒न॒व॒द्या । पति॑जुष्टाऽइव । नारी॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। न खलु मनुष्याः परमेश्वरेण विद्वद्भिः सह प्रेम्णा सह वर्त्तमानेन विना सर्वं बलं सुखं च प्राप्तुमर्हन्ति तस्मादेताभ्यां साकं प्रीतिं सदा कुर्वन्तु ॥३॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी परमेश्वर व विद्वानांबरोबर प्रेमाने वागल्याशिवाय सर्व बल व सुख प्राप्त होऊ शकत नाहीत. यामुळे त्यांच्यावर सदैव प्रेम करावे. ॥ ३ ॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे प्रियबंधू विद्वानांनो! (देवो न) ईश्वर सर्व जगाच्या आत बाहेर सूर्य सारखा प्रकाश देत आहे. (यः पृथिवीम्) जो पृथ्वी इत्यादी जगाची रचना करतो व तिला धारण करतो व जो (विश्वधायाः उपक्षेति) ज्या ईश्वराजबळ विश्वधारण करण्याची शक्ती व क्षमता आहे त्याने विश्वाला धारण केलेले आहे. तसेच तो सर्व जगाचा परम मित्र आहे. (हित मित्रो न राजा) जो प्रिय मित्र राजा असून आपल्या प्रजेचे यथावत् पालन करतो तोच आमचा पालनकर्ता आहे, त्याच्या खेरीज दुसरा कोणीही आमचा पालनकर्ता नाही. (पुरःसदः, शर्मसदो न वीराः) जे लोक ईश्वराभिमुख आहेत तेच (शर्मसदः) नेहमी सुखात स्थित राहतात. ज्याप्रमाणे (न वीराः) पुत्र आपल्या पित्याच्या घरात आनंदपूर्वक राहतात तसेच जे परमेश्वराचे भक्त आहेत ते नेहमी सुखी असतात. परंतु जे अनन्य भावाने सर्वत्र व्याप्त निराकार ईश्वराची सत्ययुक्त श्रद्धेने भक्ती करतात जशी (अनवद्या पतिजुष्टेव नारी) अत्यंत उत्तम गुणयुक्त पतिव्रता पतीच्या सेवेत तत्पर असते व रात्रंदिवस तन, मन, धन अर्पूण अतिप्रेमाने पतीला अनुकूल असते तसेच हे बंधूनो, आपण सर्वांनी मिळून प्रेमाने ईश्वराची भक्ती करावी व आपण सर्वांनी मिळून परमेश्वराचा परम सुखाचा ठेवा प्राप्त करावा. ॥४६॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Holding the world like the brilliant sun, ruling over the heart like a sincere friend, he closely abides by the earth. The people of the state live together in unison like young and brave children of the house living together in a blessed home. The women are pure and worthy of praise like wives dedicated to the husband. Such is the leader.

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    Purport

    O the learned dear brethren! God d Almighty illuminates the whole world being immanent in it as well as pervading it from all around just-like the sun spreads its rays. He creates the universe comprising the earth and other planets and also sustains them. He is the abode and supportor of the force which keeps the world moving. He is the closest friend of the whole universe. Just a Just as a benevolent king takes special care to bring up-rear up and to safeguard his subjects, similarly God Almighty is our protector, none else. The men who are face to face to God in friendly disposition with God, they enjoy true and lasting happiness. Just as the sons live in the house of their father happily, in the same way those who are the devotees of God, ever live in peace and happiness. Those who with undiverted mind and with true faith worship Formless and Omnipresent God, like a virtuous and devoted wife who serves her husband endowed with Su m excellent attributes, day and night with her body, mind and wealth without reservation, attain highest bliss with hearts overflowing with love. Come O brethren! We should worship God and all of us should attain Supreme bliss. 
     

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni (God) is taught in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should always properly worship Giver of Divine Joy, God with devotion who supports us and keeps us together in our earthly life, who is the upholder of all like the sun, who is like the King friend of his subjects bringing about their welfare. Only those brave people are in the enjoyment of true and lasting happiness who feel that they to face with God. Those who serve God with an, mind just like a very virtuous noble and beautiful educated wife of un-impeachable conduct devoted her husband with her body, mind and soul enjoy the highest bliss.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (देव:) दिव्यसुखदाता = Giver of Divine Joy. (अनवद्या) विद्या सौन्दर्यादिशुभगुणयुक्ता = Endowed with knowledge beauty and other virtues. (पतिजुष्टा) पतिः जुष्ट: प्रीतः सेवितो यया तद्वत् = Chaste wife devoted to her husband.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men cannot attain strength and happiness without true devotion to God and association with learned wisemen devoted to Him. Therefore men should always be devoted to God and should honour learned devotees.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that scholar be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ)=Scholar who helps everyone, (devaḥ)= giver of divine pleasures and, (pṛthivīm) =of earth, (na) =like, (viśvadhāyāḥ) =holding the world, (hitamitraḥ) friends who adopts interests and, (rājā) =of the President of the Assembly, (na) =like, (upakṣeti) =especially know or reside, (puraḥsadaḥ)= The one who destroys the enemies by being first situated, (śarmmasadaḥ)= those who live in happiness and, (vīrāḥ)=of the one who throws away the enemies, (na) =like, (duḥkhāni) =sorrows and, (śatrūn) =of enemies, (vināśayati) =destroys, (anavadyā)=endowed with auspicious qualities like knowledge, beauty, etc., (patijuṣṭeva)= like a woman in love with her husband,{nārī} =this married wife of man, (sukhe) =in happiness, (nivāsayati) =resides, (tam) =her, (sadā) =always, (samāhitā) =in a harmonius way, (bhūtvā) =being, (yathāvat) =properly, (paricarata) =serve.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! You are specially known or reside as a scholar who helps everyone, a giver of divine pleasures, a person who holds the world like land, a friend who takes care of interests and the President of the Assembly. Like the one who destroys enemies by being situated first, who resides in happiness and who throws away enemies, destroys sorrows and enemies, like a woman in love with her husband, endowed with auspicious qualities like knowledge, beauty, etc., this married wife of man resides in happiness, always serve her properly in complete harmony.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Certainly, humans are not capable of attaining all strength and happiness without being present with God and the affectionate scholars, therefore always have affection for them.

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे प्रियबन्धु विद्वज्जन ! देवो, न = ईश्वर ले सम्पूर्ण जगत् लाई बाहिर तथा भित्र सूर्य ले जस्तै प्रकाशित गरी रहेको छ, यः पृथिवीम् = जो पृथिव्यादि जगत् लाई रचना गरी धारणा गरी रहेछ अरू विश्वधायाः उपक्षेति = विश्वधारक शक्ति लाई पनि निवास दिने र धारणा गर्ने तथा जुन सम्पूर्ण जगत् का परम मित्र अर्थात् जस्तै हितमित्रो न राजा = प्रियमित्रवान् राजा ले आफ्ना प्रजा को यथावत पालना गर्नछ, तेसरी नै हाम्रो पनि पालन कर्ता उही एक हो, अर्को कोहि पनि छैन । पुरः सदः, शर्मसद:- जुन मानिस हरु ईश्वर का पुरः सद छन् अर्थात् ईश्वराभिमुख नै छन् तिनीहरु नै `शर्मसदः अर्थात् सदा सुख मा स्थिर रहन्छन् । न बीराः= जसरी छोरा - छोरी आफ्ना बाबु का घर मा आनन्द पूर्वक निवास गर्दछन्, तेसरी नै जो परमात्मा का भक्त छन् ती सदा सुखी नै रहन्छन्, परन्तु जो अनन्यचित्त भएर निराकार, सर्वत्र व्यापक ईश्वर को सत्य श्रद्धा ले भक्ति गर्दछन् जस्तै कि अनवद्या, पतिजुष्टेव, नारी= अत्यन्त उत्तम गुणयुक्त पति को सेवा मा तत्पर पतिव्रता नारी रात दिन तन, मन, धनले अत्यन्त प्रीति युक्त भएर अनुकूल रहन्छन् तेसै गरी आओ भाइ हो ! ईश्वर को भक्ति गरौं र हामी सबै मिलेर परमात्मा सित परमसुख को लाभ उठाऔं ॥४६॥

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