ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 90/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मधु॒ वाता॑ ऋताय॒ते मधु॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वः। माध्वी॑र्नः स॒न्त्वोष॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठमधु॑ । वाताः॑ । ऋ॒त॒य॒ते । मधु॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । माध्वीः॑ । नः॒ । स॒न्तु॒ । ओष॑धीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ॥
स्वर रहित पद पाठमधु। वाताः। ऋतयते। मधु। क्षरन्ति। सिन्धवः। माध्वीः। नः। सन्तु। ओषधीः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 90; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्यया किं जायत इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे पूर्णविद्य ! यथा युष्मभ्यमृतायते च वाता मधु सिन्धवश्च मधु क्षरन्ति तथा न ओषधीर्माध्वीः सन्तु ॥ ६ ॥
पदार्थः
(मधु) मधुरं ज्ञानम् (वाताः) पवनाः (ऋतायते) ऋतमात्मन इच्छवे। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति क्यचीत्वं न। (मधु) मधुताम् (क्षरन्ति) वर्षन्ति (सिन्धवः) समुद्रा नद्यो वा (माध्वीः) मधुविज्ञाननिमित्तं विद्यते यासु ताः। मधोर्ञ च। (अष्टा०४.४.१२९) अनेन मधुशब्दाञ् ञः। ऋत्व्यवास्त्व्य० इति यणादेशनिपातनम्। वाच्छन्दसीति पूर्वसवर्णादेशः। (नः) अस्मभ्यम् (सन्तु) (ओषधीः) सोमलतादय ओषध्यः। अत्रापि पूर्ववत्पूर्वसवर्णदीर्घः ॥ ६ ॥
भावार्थः
हे अध्यापका ! यूयं वयं चैवं प्रयतेमहि यतः सर्वेभ्यः पदार्थेभ्योऽखिलानन्दाय विद्ययोपकारान् ग्रहीतुं शक्नुयाम ॥ ६ ॥
हिन्दी (5)
विषय
विद्या से क्या उत्पन्न होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे पूर्ण विद्यावाले विद्वानो ! जैसे तुम्हारे लिये और (ऋतायते) अपने को सत्य व्यवहार चाहनेवाले पुरुष के लिये (वाताः) वायु (मधु) मधुरता और (सिन्धवः) समुद्र वा नदियाँ (मधु) मधुर गुण को (क्षरन्ति) वर्षा करती हैं, वैसे (नः) हमारे लिये (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधि (माध्वीः) मधुरगुण के विशेष ज्ञान करानेवाली (सन्तु) हों ॥ ६ ॥
भावार्थ
हे पढ़ाने वालो ! तुम और हम ऐसा अच्छा यत्न करें कि जिससे सृष्टि के पदार्थों से समग्र आनन्द के लिये विद्या करके उपकारों को ग्रहण कर सकें ॥ ६ ॥
पदार्थ
पदार्थ = ( ऋतायते ) = सत्याचरणवाले पुरुष के लिए ( वाता: ) = वायुगण ( मधुक्षरन्ति ) = मधु वर्षण करती हैं ( सिन्धवः ) = सब नदियाँ ( मधु क्षरन्ति ) = मधु बरसाती हैं, ( नः ) = हम उपासकों के लिए ( ओषधी: ) = गेहूं, चावल, चना आदि सब अन्न ( माध्वीः सन्तु ) = मधुरता युक्त होवें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे परमात्मन् ! जैसे सदाचारी पुरुष के लिए सबप्रकार के वायु और सब नदियाँ सुखदायिनी होती हैं। ऐसे ही आपके उपासक जो हम लोग हैं, उनके लिए भी सब प्रकार के वायु सब अन्न सुखप्रद हों, जिससे हम सब लोग, आपकी भक्ति और आपकी आज्ञारूप वैदिक धर्म का सर्वत्र प्रचार कर सकें।
विषय
उत्तम कर्मवाले के लिए माधुर्य
पदार्थ
१. (ऋतायते) = गतमन्त्र के अनुसार श्रुति के प्रमाण से ऋत कर्मों को करनेवाले के लिए (वाताः) = वायुएँ (मधु) = माधुर्य को लिये हुए होती हैं । यज्ञात्मक कर्म ऋत हैं, अयज्ञीय कर्म अनृत हैं, अतः 'ऋतायते' का भाव 'यज्ञात्मक कर्मों को अपनानेवाले के लिए' हो जाता है । इस यज्ञशील पुरुष के लिए वायुएँ मधुर होती हैं, अर्थात् इसके स्वास्थ्य पर उनका अच्छा ही प्रभाव होता है । इस ऋतायत् पुरुष के लिए (सिन्धवः) = नदियाँ (मधु क्षरन्ति) = मधुर जल को ही बहानेवाली होती हैं । ३. हम भी ऋतायत् बनें और (ओषधीः) = पृथिवी से उत्पन्न होनेवाली ये सब ओषधियाँ (नः) = हमारे लिए (माध्वीः सन्तु) = मधुर ही हों । जिस समय मनुष्यों का जीवन यज्ञमय होता है तब सम्पूर्ण लोक भी उसके लिए अनुकूलता लिये हुए होते हैं । यज्ञशील का ही दोनों लोकों में कल्याण होता है । हमारे कर्म उत्तम होंगे तो वायु, जल व ओषधियाँ सब हमारे लिए कल्याणकर होंगी ।
भावार्थ
भावार्थ = हमारे कर्म यज्ञात्मक हों, जिससे हमें वायु, जल व ओषधियों की अनुकूलता प्राप्त हो ।
विषय
मधुमती ऋचाएं ।
भावार्थ
( ऋतयते ) अन्न को प्राप्त करने की इच्छा वाले मानव समाज के लिये ( वाताः ) वायुगण जिस प्रकार ( मधु क्षरन्ति ) जल बरसाते हैं उसी प्रकार (ऋतयते) सत्य ज्ञान के इच्छुक जिज्ञासु जन के लिये ( वाताः ) ज्ञानवान् पुरुष ( मधु ) मधुर ब्रह्म विद्या का ( क्षरन्ति ) उपदेश दें । और जिस प्रकार ( सिन्धवः ) महा नदियें अन्न के इच्छुक को नहरों से ( मधु क्षरन्ति ) जल बहाती हैं उसी प्रकार (सिन्धवः) ज्ञान के अगाध सागर एवं विद्या सम्बन्ध से अपने साथ शिष्यों को बांधने वाले आचार्य गण सत्य ज्ञान के जिज्ञासु को ( मधु क्षरन्ति ) मधुर ब्रह्मज्ञानोपदेश प्रदान करते हैं । ( ओषधीः ) ओषधियां जिस प्रकार ( नः ) हमारे लिये ( माध्वीः ) मधुर गुण से युक्त एवं मधुर, सुखजनक स्वास्थ्य और पुष्टि प्रदान करने वाली होती हैं उसी प्रकार (ओषधीः) तेज और ताप को धारण करने वाले पदार्थ और प्रतापी, तेजस्वी, वीर सेनाएं और परिपक्व ज्ञान वाले जन (नः) हमारे लिये ( माध्वीः सन्तु ) मधुर ज्ञानप्रद हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः—१,८ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २, ७ गायत्री । ३ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ४ विराड् गायत्री । ५, ६ निचृद् गायत्री । ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- विद्या से क्या उत्पन्न होता है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे पूर्णविद्य ! यथा युष्मभ्यम् ऋतायते च वाता मधु सिन्धवः च मधु क्षरन्ति तथा नः ओषधीः माध्वीः सन्तु ॥६॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (पूर्णविद्य)=सर्वज्ञाता ! (यथा)=जिस प्रकार से, (युष्मभ्यम्)=तुम्हारे लिये, (ऋतायते) ऋतमात्मन इच्छवे=अपने लिये ऋत की, अर्थात् कभी न डिगनेवाले सत्य की कामना करते हुए, (च)=भी, (वाताः) पवनाः=वायु, (मधु) मधुरं ज्ञानम्= मधुर ज्ञान को, (सिन्धवः) समुद्रा नद्यो वा= समुद्र या नदियाँ, (च)=भी, (मधु) मधुताम्=मधु को, (क्षरन्ति) वर्षन्ति=बरसाती हैं, (तथा)=वैसे ही, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (ओषधीः) सोमलतादय ओषध्यः=सोमलता आदि ओषधियाँ, (माध्वीः) मधुविज्ञाननिमित्तं विद्यते यासु ताः= मधु के विशेष मधुर ज्ञान का कारण, (सन्तु)=होवें ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे अध्यापकों! आप और हमको ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे समस्त पदार्थों से पूर्ण आनन्द के लिये विद्या से उपकारों को ग्रहण कर सकें ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (पूर्णविद्य) सर्वज्ञाता [परमेश्वर] ! (यथा) जिस प्रकार से (युष्मभ्यम्) तुम्हारे लिये, (ऋतायते) अपने लिये ऋत की, अर्थात् कभी न डिगनेवाले सत्य की कामना करते हुए (च) भी (वाताः) वायु (मधु) मधुर ज्ञान को और (सिन्धवः) समुद्र या नदियाँ (च) भी (मधु) मधुरता को (क्षरन्ति) बरसाती हैं, (तथा) वैसे ही (नः) हमारे लिये (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियाँ (माध्वीः) मधु के विशेष ज्ञान का कारण (सन्तु) होवें ॥६॥
संस्कृत भाग
मधु॑ । वाताः॑ । ऋ॒त॒य॒ते । मधु॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । माध्वीः॑ । नः॒ । स॒न्तु॒ । ओष॑धीः ॥ विषयः- विद्यया किं जायत इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे अध्यापका ! यूयं वयं चैवं प्रयतेमहि यतः सर्वेभ्यः पदार्थेभ्योऽखिलानन्दाय विद्ययोपकारान् ग्रहीतुं शक्नुयाम ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे अध्यापकानो! तुम्ही व आम्ही मिळून संपूर्ण आनंदासाठी असा प्रयत्न करावा की, ज्यामुळे सृष्टीच्या पदार्थांपासून विद्येद्वारे उपकार ग्रहण करता यावेत. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Sweet as honey the winds blow for the soul of simplicity and naturalness. The waters rain, rivers flow and the oceans roll sweet as honey. May the herbs too be sweet as honey for us all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the result of knowledge is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great scholars, as to you and for the man who speaks the truth and desires always to follow the right path prescribe! ed by the Vedas and perform the Yajnas, winds bring sweetness, as the rivers bring sweet waters, so may the plants be sweet for us or may they yield sweetness to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मधु) मधुरं ज्ञानम् = Sweet knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O teachers, you and all of us may so put forth united efforts as to take benefit from all objects with knowledge for the enjoyment of happiness and bliss for all.
Subject of the mantra
What is derived from vidya? This is discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(pūrṇavidya) =Omniscient, [parameśvara]=God, (yathā) =in the manner, (yuṣmabhyam) =for you, (ṛtāyate) =wishing for the truth for oneself, that is, the truth that will never waver, (ca) =also, (vātāḥ) =air, (madhu)=sweet knowledge and, (sindhavaḥ) =ocean or rivers, (ca) =also,(madhu) =to sweetness, (kṣaranti) =shower, (tathā) =similarly, (naḥ) =for us, (oṣadhīḥ) the herbal plants like Somalatā, (mādhvīḥ) =reason for honey's special knowledge, (santu) =be.
English Translation (K.K.V.)
O Omniscient God! Just as the air showers sweet knowledge and the ocean or rivers also shower sweetness while wishing for the truth for you and for themselves, that is, the truth that never wavers, in the same way, let the herbal plants like Somalatā be the reason for the special knowledge of honey for us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O preceptors! You and we should make such efforts so that we can obtain blessings with knowledge for the complete happiness from all things.
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