ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
द्विषो॑ नो विश्वतोमु॒खाति॑ ना॒वेव॑ पारय। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठद्विषः॑ । नः॒ । वि॒श्व॒तः॒ऽमु॒ख॒ । अति॑ । ना॒वाऽइ॑व । पा॒र॒य॒ । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय। अप न: शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठद्विषः। नः। विश्वतःऽमुख। अति। नावाऽइव। पारय। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 7
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे विश्वतोमुख परमात्मँस्त्वं नो नावेव द्विषोऽतिपारय नोऽस्माकमघं शत्रूद्भवं दुःखं भवानपशोशुचत् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(द्विषः) ये धर्मं द्विषन्ति तान् (नः) अस्मान् (विश्वतोमुख) विश्वतः सर्वतो मुखमुत्तममैश्वर्यं यस्य तत्सम्बुद्धौ (अति) उल्लङ्घने (नावेव) यथा सुदृढया नौकया समुद्रपारं गच्छति तथा (पारय) पारं प्रापय (अप, नः०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा न्यायाधीशो नौकायां स्थापयित्वा समुद्रपारे निर्जने जाङ्गले देशे दस्य्वादीन् संनिरुध्य प्रजाः पालयति तथैव सम्यगुपासित ईश्वर उपासकानां कामक्रोधलोभमोहभयशोकादीन् शत्रून् सद्यो निवार्य्य जितेन्द्रियत्वादीन् गुणान् प्रयच्छति ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (विश्वतोमुख) सबसे उत्तम ऐश्वर्य्य से युक्त परमात्मन् ! आप (नावेव) जैसे नाव से समुद्र के पार हों वैसे (नः) हम लोगों को (द्विषः) जो धर्म से द्वेष करनेवाले अर्थात् उससे विरुद्ध चलनेवाले उनसे (अति, पारय) पार पहुँचाइये और (नः) हम लोगों के (अघम्) शत्रुओं से उत्पन्न हुए दुःख को (अप, शोशुचत्) दूर कीजिये ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे न्यायाधीश नाव में बैठाकर समुद्र के पार वा निर्जन जङ्गल में डाकुओं को रोक के प्रजा की पालना करता है, वैसे ही अच्छे प्रकार उपासना को प्राप्त हुआ ईश्वर अपनी उपासना करनेवालों के काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकरूपी शत्रुओं को शीघ्र निवृत्त कर जितेन्द्रियपन आदि गुणों को देता है ॥ ७ ॥
विषय
द्वेष के पार
पदार्थ
हे (विश्वतोमख) = सब ओर मुखवाले , सर्वद्रष्टा प्रभो ! (नः) = हमें (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से उसी प्रकार (अतिपारय) = पार करके निर्द्वेषता के क्षेत्र में प्रास कराइए (इव) = जैसे (नावा) = नौका से किसी नदी को पार किया जाता है । हम द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठकर प्रेम के क्षेत्र में विचरें ताकि (नः) = हमारा (अघम्) = सब पाप (अपशोशुचत्) = हमसे दूर और शोक - सन्तत होकर नष्ट हो जाए ।
भावार्थ
भावार्थ - पापवृत्ति के दूरीकरण के लिए द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठना आवश्यक है ।
विषय
और उसके साथ प्रजा की उन्नति के नाना उपाय ।
भावार्थ
हे ( विश्वतोमुख ) सब तरफ मुखों वाले, अर्थात् सब स्थानों पर मुख्य पदाधिकार को अपने वश करने हारे ! (नावा इव) नाव से जैसे नदी को पार किया जाता है उसी प्रकार तू (द्विषः) शत्रुओं से ( अतिपारय ) हमें पार कर, उन पर विजयी कर । ( नः अघम् अपशोशुचत् ) हमारे हत्याकरी पापी पुरुष को तथा शत्रु से उत्पन्न दुःख को निवारण कर । परमेश्वर हमारे द्वेष भावों से हमें नाव से नदी के समान पार करे । मनुष्य के हृदय में बैठे क्रोध और द्वेष तथा अन्यान्य भीतरी शत्रुओं से पार होना कठिन होता है । ईश्वर का भजन ही उनसे पार कराता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१,७, ८ पिपिलिकामध्यनिचृद् गायत्री । २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा न्यायाधीश नावेत बसून समुद्र पार करतो, निर्जन जंगलात डाकूंना रोखून प्रजेचे पालन करतो तसेच चांगल्या प्रकारे उपासना केलेला ईश्वर आपली उपासना करणाऱ्यांना काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकरूपी शत्रूंपासून तात्काळ निवृत्त करून जितेंद्रियता इत्यादी गुण देतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, light of life, all-watching eye, saving ark over the seas of existence, lead us over and across the whirl-pools of jealousies and enmities of the world and conquer the flood for us. Purge us of our sins and let us shine in purity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is He (God) is taught further in the Seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Omnipresent God whose Glory is in every direction, take us across all misery caused by our internal enemies like the boat or ship to the other shore of the river or ocean. Burn away all our sins.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विश्वतोमु॒ख) विश्वतः सर्वतः मुखम् उत्तमम् ऐश्वर्यं यस्य तत् सम्बुद्धौ । = Whose good prosperity or glory is in all directions.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a judge protects the people by sentencing robbers and thieves etc. to transportation and sends them to solitary forests or sea-shore, in the same manner, when meditated upon well, God destroys the internal adversaries of the worshippers in the form of lust, anger, greed, ignorance, fear and grief etc. and endows them with virtues like self control and others.
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