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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 107/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दिव्यो दक्षिणा वा प्राजापत्या देवता - दक्षिणा तद्दातारों वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भो॒जमश्वा॑: सुष्ठु॒वाहो॑ वहन्ति सु॒वृद्रथो॑ वर्तते॒ दक्षि॑णायाः । भो॒जं दे॑वासोऽवता॒ भरे॑षु भो॒जः शत्रू॑न्त्समनी॒केषु॒ जेता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भो॒जम् । अश्वाः॑ । सु॒ष्ठु॒ऽवाहः॑ । व॒ह॒न्ति॒ । सु॒ऽवृत् । रथः॑ । व॒र्त॒ते॒ । दक्षि॑णायाः । भो॒जम् । दे॒वा॒सः॒ । अ॒व॒त॒ । भरे॑षु । भो॒जः । शत्रू॑न् । स॒म्ऽअ॒नी॒केषु॑ । जेता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भोजमश्वा: सुष्ठुवाहो वहन्ति सुवृद्रथो वर्तते दक्षिणायाः । भोजं देवासोऽवता भरेषु भोजः शत्रून्त्समनीकेषु जेता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भोजम् । अश्वाः । सुष्ठुऽवाहः । वहन्ति । सुऽवृत् । रथः । वर्तते । दक्षिणायाः । भोजम् । देवासः । अवत । भरेषु । भोजः । शत्रून् । सम्ऽअनीकेषु । जेता ॥ १०.१०७.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 107; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (भोजम्) पालक स्वामी को (सुष्ठुवाहः) अच्छे ले जानेवाले (अश्वाः) घोड़े (वहन्ति) ले जाते हैं (दक्षिणायाः) शिल्पी कारीगर  को अच्छी दक्षिणा देने से अच्छा घूमनेवाला रथ मिलता है (देवासः) हे विजय के इच्छुक सैनिको ! (भरेषु) संग्रामों में (भोजम्) पालक की (अवत) रक्षा करो (भोजः) पालन करनेवाला (समनीकेषु) परस्पर सम्मुख योद्धाओं में (शत्रून् जेता) शत्रुओं को जीतेगा, ऐसा शीलवाला होता है ॥११॥

    भावार्थ

    जो राजा पालनकर्त्ता होता है, उसे घोड़े अच्छी सवारी देते हैं। अच्छी दक्षिणा शिल्पियों को देनी चाहिये, जिससे अच्छा यान बनाएँ। संग्रामों में सैनिक पालन करनेवाले राजा की रक्षा करते हैं, पालन करनेवाले ही परस्पर लड़नेवालों में शत्रुओं को जीतने का शील रखता है ॥११॥

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    विषय

    सम्पत्ति व विजय

    पदार्थ

    [१] (भोजम्) = दान द्वारा औरों का पालन करनेवाले को (सुष्ठुवाहः) = उत्तमता से वहन करनेवाले (अश्वाः) = घोड़े (वहन्ति) = वहन करते हैं। (दक्षिणायाः) = दान का (रथः) = रथ (सुवृत् वर्तते) = [सुष्ठु चक्रादि वर्तनं यस्य] उत्तम चक्र आदि से युक्त होता है। अर्थात् दानी पुरुष का उत्तम रथ, उत्तम घोड़ों से जुता हुआ होता है । [२] (देवासः) = हे देवो! आप (भोजम्) = इस दानशील पुरुष को (भरेषु) = संग्रामों में (अवता) = रक्षित करते हो, आप से रक्षित हुआ हुआ यह (भोजः) = दानशील पुरुष (समनीकेषु) = संग्रामों में (शत्रून् जेता) = शत्रुओं को जीतनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- दानशील पुरुष को सम्पत्ति व विजय प्राप्त होती है । यह सूक्त दानकी महिमा को बहुत अच्छी प्रकार प्रतिपादित कर रहा है। दान से ऐश्वर्य बढ़ता है, विजय प्राप्त होती है, वासनाओं का विनाश होकर प्रभु की प्राप्ति होती है। धन का लोभ हो जाने पर इस दानवृत्ति में कमी आ जाती है। मनुष्य 'पणि'-सा बन जाता है, पणियाँ। 'पण व्यवहारे' से बना यह पणि शब्द कह रहा है कि यह शुद्ध व्यवहारी पुरुष बन जाता है, अपने प्राणपोषण में ही फँसा हुआ यह 'असुर' कहलाता है [असुषु रमते] । इन्हें देवशुनी - देवताओं में वृद्धि को प्राप्त होनेवाली [श्वि - वृद्धौ ] सरमा गतिशील बुद्धि दान आदि के लिए प्रेरित करती है । अगले सूक्त में इन पणियों व सरमा का ही संवाद है-

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    विषय

    रक्षक पुरुषों के लौकिक ऐश्वर्य।

    भावार्थ

    (सुष्ठु वाहः) उत्तम रीति से रथ वा सवार को लेजाने वाले (अश्वाः) उत्तम अश्व (भोजं वहन्ति) रक्षक, दाता को ही ले जाते हैं। (दक्षिणायाः) अन्न द्रव्यादि दान देने वाले का रथ भी (सुवृत वर्त्तते) उत्तम १ चक्र अदि से युक्त होता है। हे (देवासः) विद्वान् और तेजस्वी विजयेच्छुक पुरुषो ! आप लोग (भरेपु) संग्रामों में (भोजम् अवत) सर्वपालक दाता स्वामी की ही रक्षा करो। क्योंकि (सम्-अनीकेषु) नाना सैन्य बलों के एकत्र होने के योग्य युद्धों में (भोजः) वही रथ का स्वामी (शत्रून् नेता) शत्रुओं को जीतने में समर्थ होता है। इति चतुर्थो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दिव्य आंगिरसो दक्षिणा वा प्राजापत्या॥ देवता—दक्षिणा, तद्दातारो वा॥ छन्द:– १, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुपु। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृञ्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (भोजं सुष्ठुवाहः-अश्वाः वहन्ति) भोजयितारं स्वामिनं सुष्ठुवाहका अश्वा अनुकूलं नयन्ति (दक्षिणायाः-सुवृत्-रथः-वर्तते) शिल्पिने दक्षिणादानात् खलु सुवर्तनो रथः प्रवर्तते। अथ प्रत्यक्षकृतमुच्यते (देवासः) हे जिगमिषवो यूयं (भरेषु) सङ्ग्रामेषु (भोजम्) पालयितारं रक्षकं (अवत) रक्षत (भोजः) भोजयिता पालकः (समनीकेषु) परस्परसम्मुखभूतेषु योद्धृषु (शत्रून् जेता) शत्रून् जेष्यतीति तच्छीलो भोज एव ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Well trained horses bear the generous master along in his travels, by dakshina gift to the craftsman a comfortable chariot is obtained, the divinities protect and advance the generous yajamana in all his yajnic battles for life, and the generous giver alone is the winner over oppositions in all conflicts.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा पालनकर्ता असतो. त्याला घोडे (कोणतेही वाहन) व्यवस्थित घेऊन जातात. कारागीरांना चांगली दक्षिणा दिली पाहिजे. ज्यामुळे त्यांनी चांगले यान बनवावे. युद्धात सैनिकांचे पालन करणाऱ्या राजाचे सैनिक रक्षण करतात. पालनकर्ता राजा व शत्रू समोरासमोर लढताना राजा जिंकण्याचा स्वभाव बनवितो. ॥११॥

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