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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद॑ग्न ए॒षा समि॑ति॒र्भवा॑ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र । रत्ना॑ च॒ यद्वि॒भजा॑सि स्वधावो भा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒ग्ने॒ । ए॒षा । सम्ऽइ॑तिः । भवा॑ति । दे॒वी । दे॒वेषु॑ । य॒ज॒ता । य॒ज॒त्र॒ । रत्ना॑ । च॒ । यत् । वि॒ऽभजा॑सि । स्व॒धा॒ऽवः॒ । भा॒गम् । नः॒ । अत्र॑ । वसु॑ऽमन्तम् । वी॒ता॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदग्न एषा समितिर्भवाति देवी देवेषु यजता यजत्र । रत्ना च यद्विभजासि स्वधावो भागं नो अत्र वसुमन्तं वीतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अग्ने । एषा । सम्ऽइतिः । भवाति । देवी । देवेषु । यजता । यजत्र । रत्ना । च । यत् । विऽभजासि । स्वधाऽवः । भागम् । नः । अत्र । वसुऽमन्तम् । वीतात् ॥ १०.११.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यजत्र-अग्ने) हे यजनीय सङ्गमनीय परमात्मन् ! (यत्) जब (यजता देवेषु) यजनीय सङ्गमनीय इन्द्रियों में या सङ्गमनीय विद्वानों में (समितिः-देवी भवाति) तेरी दिव्या सङ्गति-सङ्क्रान्ति हो जाती है (यत्-अत्र) जिससे यहाँ तब (स्वधावः) हे आनन्द रसवाले या अन्नदाता परमात्मन् ! (रत्ना विभजासि) रमणीय सुखों या वस्तुओं को देता है (नः) हमारे (वसुमन्तं भागं वीतात्) धनवाले भाग को प्राप्त करा ॥८॥

    भावार्थ

    यह सङ्गमनीय परमात्मा की समागम धारा इन्द्रियों में आ जाती है, तो आस्तिक मनस्वी को रमणीय सुख प्राप्त हो जाते हैं। मोक्ष में बसानेवाला धन भी मिल जाता है, ऐसे सङ्गमनीय परमात्मा की समागमप्रतीति राष्ट्र के विद्वानों में पहुँच जाती है, तो राजा को रत्न और अन्न प्रचुर प्राप्त होता है ॥८॥

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    विषय

    संहतिः - मेल

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = हमारी उन्नतियों के साधक प्रभो ! (यजत) = [यज-संगतिकरण] मेल के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (एषा) = यह (समिति:) = संहतिः = मेल भवाति होता है, अर्थात् जब हम परस्पर मिलकर चलते हैं, जो मिलकर चलना (देवी) = [विजिगीषा] हमारी सब बुराइयों को जीतने की कामना वाला है अर्थात् जिस मेल से सब दुर्गतियाँ दूर होती हैं, जो मेल (देवेषु) = देव पुरुषों में सदा निवास करता है 'येन देवा न वियन्ति, ते च विच्छिद्यन्ते मिथः ' । (यजता) = जो मेल हमें एक दूसरे का आदर करना सिखाता है [यज-पूजा] तथा जिस मेल से हम परस्पर मिलकर चलते हुए एक दूसरे का कल्याण कर पाते हैं (च) = और (यद्) = जब [२] हे (स्वधावः) = [ स्व + धाव] आत्मतत्त्व का शोधन करनेवाले प्रभो ! अथवा [स्वधा+व] अन्नों वाले प्रभो ! आप हमें रत्ना उत्तमोत्तम रमणीय वस्तुओं को (विभजासि) = प्राप्त कराते हैं तो (नः) = हमें (अत्र) = इस मानव जीवन में (वसुमन्तम्) = उत्तम निवास के देनेवाले (भागम्) = भजनीय धनों को (वीतात्) = [आगमय] प्राप्त कराइये । [३] वस्तुतः मेल के होने पर सब उत्तम वस्तुओं की प्राप्ति होती है, हम शत्रुओं को जीत पाते हैं [देवी] रमणीय धनों को, यह परस्पर का मेल ही, हमें प्राप्त कराता है। परिणामतः हमारा निवास उत्तम होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम परस्पर मेल वाले हों, जिससे सब प्रकार से हमारा निवास उत्तम हो ।

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    विषय

    गजा सेनापति और सभापति के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! सेनापते ! राजन् ! (यजत्र) हे पूज्य ! हे दानशील ! (यत्) जब (यजता देवेषु) परस्पर सुसंगत विजयेच्छुक जनों में (एषा देवी) यह तेजस्विनी, विजयेच्छुक वा विदुषी (समितिः) समिति, सभा, (भवति) हो, और (यत्) जब हे (स्वधावः) अन्नादि के स्वामिन्! हे ‘स्व’ ऐश्वर्य के द्वारा धारण पोषण करने हारे ! तू (रत्ना विभजासि) नाना रत्न वा रमणीय पदार्थ विभक्त करे तब (अत्र) इस अवसर पर (नः) हमारा (वसुमन्तं भागं) ऐश्वर्ययुक्त भाग हमें भी (वीतात्) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हविर्धान आंगिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृज्जगती। ३-५ विराड् जगती। ७-९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यजत्र-अग्ने) हे यजनीय सङ्गमनीय परमात्मन् ! ‘यज् धातोः-अत्रन् प्रत्ययः’ [उणा०३।१०५] (यद्) यदा (यजता देवेषु) यजनीयेषु सङ्गमनीयेषु-इन्द्रियेषु विद्वत्सु वा ‘यज् धातोः-अतच् प्रत्ययः’ [३।११०] (समितिः देवी भवाति) तव सङ्गतिः सङ्क्रान्तिर्देवी जायते (यत्-अत्र) यतोऽत्र तदा (स्वधावः) हे रसवन् परमात्मन् ! “स्वधायै त्वा रसाय त्वेत्येतत्” [श०५।४।३।७] अन्नदाता वा “स्वधा-अन्ननाम” [निघ०२।७] त्वम् (रत्ना च विभजासि) रमणीयानि सुखानि वसूनि वा वितरसि (नः-वसुमन्तं भागं वीतात्) अस्माकं धनवन्तं भागमंशं प्रापय ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Adorable Agni, when this holy assembly of your yajnic powers and virtues honoured among the divines meets and, O lord self-refulgent and self-sufficient, you distribute the jewels of life among them, then pray bless us too with our share of the honour and excellence of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा सङ्गमनीय परमात्म्याच्या मिलनाची धारा इंद्रियांपर्यंत पोचते तेव्हा प्रज्ञावान आस्तिकाला रमणीय सुख प्राप्त होते. मोक्षात वसविणारे धनही मिळते. अशा सङ्गमनीय परमात्म्याच्या मिलनाची प्रतीती जेव्हा राष्ट्राच्या विद्वानांपर्यंत पोचते तेव्हा राजाला रत्ने व अन्न प्रचुर मात्रात मिळते. ॥८॥

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