ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 115/ मन्त्र 1
ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
चि॒त्र इच्छिशो॒स्तरु॑णस्य व॒क्षथो॒ न यो मा॒तरा॑व॒प्येति॒ धात॑वे । अ॒नू॒धा यदि॒ जीज॑न॒दधा॑ च॒ नु व॒वक्ष॑ स॒द्यो महि॑ दू॒त्यं१॒॑ चर॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रः । इत् । शिशोः॑ । तरु॑णस्य । व॒क्षथः॑ । न । यः । मा॒तरौ॑ । अ॒पि॒ऽएति॑ । धात॑वे । अ॒नू॒धाः । यदि॑ । जीज॑नत् । अधा॑ । च॒ । नु । व॒वक्ष॑ । स॒द्यः । महि॑ । दू॒त्य॑म् । चर॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्र इच्छिशोस्तरुणस्य वक्षथो न यो मातरावप्येति धातवे । अनूधा यदि जीजनदधा च नु ववक्ष सद्यो महि दूत्यं१ चरन् ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रः । इत् । शिशोः । तरुणस्य । वक्षथः । न । यः । मातरौ । अपिऽएति । धातवे । अनूधाः । यदि । जीजनत् । अधा । च । नु । ववक्ष । सद्यः । महि । दूत्यम् । चरन् ॥ १०.११५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 115; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा अपने उपासकों के दुःख दोषों को दूर करता है तथा इष्टसिद्धि देता है, उनका मित्र है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(शिशोः) प्रशंसनीय (तरुणस्य) नित्य युवा ज्ञानप्रकाशक-अग्रणेता परमात्मा का (चित्रः-इत्) अद्भुत ही (वक्षथः) जगत् को वहन करनेवाला प्रताप है, (यः) जो (मातरौ) विश्व की मातारूप द्युलोक पृथिवीलोक के प्रति (धातवे) स्तन्य पीने को (न-अप्येति) नहीं जाता है, भले ही वे द्युलोक, पृथिवीलोक और विश्व की माताएँ हों, किन्तु वही उन दोनों का मातृभूत निर्माता है, अपि तु इसके लिये (अनूधाः) वह दोनों ऊधस अर्थात् स्तनरहित हैं, (यदि जीजनत्) क्योंकि वह परमात्मा उन विश्व के मातृभूत द्युलोक और पृथिवीलोक को उत्पन्न करता है, तो कैसे उसके लिये स्तन होवे और कैसे स्तन पीने जावे (अध च नु ववक्ष) कैसे उन दोनों द्युलोक पृथिवीलोक का वहन करे (सद्यः) तत्काल (महि-दूत्यम्) महान् उन दोनों का प्रेरयिता कर्म कैसे (चरन्) कर सके ॥१॥
भावार्थ
प्रशंसनीय नित्य युवा अग्रणेता परमात्मा का महान् प्रताप है, संसार को जो वहन करता है, यद्यपि द्यावापृथिवी द्युलोक और पृथिवीलोक इतर संसार की माताएँ हैं, परन्तु परमात्मा की माताएँ नहीं हैं, स्वयं ही परमात्मा उनका मातृभूत उत्पन्न करनेवाला है, इसलिये विश्वविज्ञान में परमात्मा को प्रमुखता देनी चाहिये ॥१॥
विषय
अद्भुत विकास
पदार्थ
[१] मानव जीवन का क्रमिक विकास दर्शाते हुए कहते हैं कि जीवन के प्रथमाश्रम में (इत्) = निश्चय से (इच्छिशो:) = [ शो तनूकरणे] बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले तथा (तरुणस्य) = वासनाओं को तैरनेवाले विद्यार्थी का (वक्षथ) = [growth] विकास (चित्र:) = अद्भुत है। वस्तुतः जीवन के इस प्रथमाश्रम में दो ही महत्त्वपूर्ण बाते हैं— [क] विद्यार्थी को चाहिए कि वह विद्या पढ़ने के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना न करे, विद्यारुचि होता हुआ वह अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनाए। [ख] तथा किसी भी वासना का शिकार न हो । विद्याव्यसन के अतिरिक्त उसे कोई भी व्यसन लगा तो वह विद्यार्थी ही न रहेगा। इस प्रकार शिशु और तरुण बनकर यह अपने जीवन का अद्भुत विकास कर पाता है। [२] अब गृहस्थ में प्रवेश करने पर यह इस प्रकार चलता है कि (या) = जो (धातवे) = अपने परिवार के धारण के लिए (मातरौ) = माता व सास की (अपि) = ओर (न एति) = नहीं जाता है । अपने पुरुषार्थ से कमानेवाला बनता है, अपने लिए औरों पर निर्भर नहीं करता । विशेषतः अपनी सास से कभी कुछ नहीं चाहता। [३] अब गृहस्थ के बाद (यदि) = यदि यह (अनूधा:) = [ऊधस् inuer apastment] अन्दर के कमरे से रहित जीजनत् हो जाता है । अर्थात् वानप्रस्थ बन जाता है और इसका घर 'आश्रम' में परिवर्तित हो जाता है । [४] वानप्रस्थ में साधना करके (अधा) = अब (च नु) = निश्चय से (ववक्ष) = आगे बढ़ता है, (सद्यः) = शीघ्र ही (महि दूत्यं चरन्) = महान् दूत कर्म को करता हुआ वह चलता है। प्रभु के सन्देश को सुनाता हुआ यह आगे और आगे बढ़ता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या पढ़ता है, वासनाओं को तैरता है। गृहस्थ में श्रम से परिवार का पालन करता है । घर को आश्रम में परिवर्तित करके वानप्रस्थ की साधना करता है । अब प्रभु का दूत बनकर ज्ञान के सन्देश को फैलाता हुआ आगे बढ़ता है ।
विषय
अग्नि। बालक के समान प्रभु का वर्णन। उसका जगत्-पोषण कार्य।
भावार्थ
(शिशोः) सर्वशासक, सर्वव्यापक (तरुणस्य) शक्तिमान्, सर्वदुःखों के तारक उस प्रभु का (वक्षणः) जगत् को धारण करने का सामर्थ्य (चित्रः इत्) अद्भुत, आश्चर्यकारक है (यः) जो (मातरौ) जगत् सर्ग को उत्पन्न करने वाले आकाश और भूमि दोनों का (धातवे) रस पान करने के लिये (न अप्येति) नहीं आता। और (यदि) जो (अनूधाः) स्वयं स्तनादि से रहित पुरुषवत् होकर भी (मातरौ जीजनत्) आकाश और भूमि दोनों को उत्पन्न करता है (अध च नु ववक्ष) वही दोनों को धारण करता है, (सद्यः महि दूत्यं चरन्) सदा बड़ा भारी ज्ञान, अन्न, धन, जीवन आदि प्रदान करता रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरुपस्तुतो वाष्टिर्हव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७ विराड् जगती। ३ जगती। ५ आर्चीभुरिग् जगती। ६ निचृज्जगती। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृच्छक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते परमात्मा स्वोपासकानां दुःखदोषान् दूरीकरोति तथेष्टसिद्धिं च प्रयच्छति तेषां मित्रं चेत्येवमादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(शिशोः-तरुणस्य) शंसनीयस्य प्रशंसनीयस्य “शिशुः शंसनीयो भवति” [निरु० १०।३९] नित्ययूनः-अग्नेर्ज्ञानप्रकाशस्याग्रणेतुः (चित्रः-इत्-वक्षथः) अद्भुतो हि जगद्वहनप्रतापः (यः-मातरौ धातवे) विश्वस्य मातृभूते द्यावापृथिव्यौ प्रति स्तन्यं पातुम् “धेट् पाने” ततस्तुमर्थे-“तुमर्थे से…तवेन” [अष्टा० ३।४।९] इति तवेन् प्रत्ययः (न-अप्येति) नापि गच्छति, भवेतां विश्वस्य मातरौ स एव तयोर्मातृभूतो निर्माता, अपि तु तदर्थं तु (अनूधाः) अनूधसौ व्यत्ययेनैकवचनं (यदि जीजनत्) यत्-इ-यतो हि स परमात्मा तौ विश्वस्य मातृभूते द्यावापृथिव्यौ जनयति “जनी-प्रादुर्भावे” णिजन्तात्-चङि रूपमडभावश्छान्दसः, लुङि सामान्ये काले कथं तदर्थं तयोरूधः स्यात् कथं हि स्तन्यपातुं ते प्रति गच्छेत् (अध च नु ववक्ष) अथ च कथं नु तौ द्यावापृथिव्यौ वहेत् (सद्यः-महि दूत्यं चरन्) तत्कालं महत् खलु तयोः प्रेरयितृत्वं चरन् वर्तते ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Wondrous is the invigorating and sustaining power of the newly risen youthful Agni which never goes to its parental source for food and energy replenishment. And if you say that the udderless creator has given it birth, even so, going on its great ambassadorial mission, it carries the fragrant message of yajna to the divinities immediately on its birth.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रशंसनीय नित्य युवा अग्रनेता परमात्मा महान प्रतापी आहे. जो जगाला वहन करतो. जरी द्यावा पृथ्वी, द्युलोक व पृथ्वीलोक संसाराच्या माता आहेत; परंतु परमात्म्याच्या माता नाहीत. स्वत: परमात्मा त्यांना मातृभूत उत्पन्न करणारा आहे. त्यासाठी विश्वविज्ञानात परमात्म्याला प्रमुखता द्यावी. ॥१॥
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