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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 115/ मन्त्र 4
    ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    वि यस्य॑ ते ज्रयसा॒नस्या॑जर॒ धक्षो॒र्न वाता॒: परि॒ सन्त्यच्यु॑ताः । आ र॒ण्वासो॒ युयु॑धयो॒ न स॑त्व॒नं त्रि॒तं न॑शन्त॒ प्र शि॒षन्त॑ इ॒ष्टये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । यस्य॑ । ते॒ । ज्र॒य॒सा॒नस्य॑ । अ॒ज॒र॒ । धक्षोः॑ । न । वाताः॑ । परि॑ । सन्ति॑ । अच्यु॑ताः । आ । र॒ण्वासः॑ । युयु॑धयः । न । स॒त्व॒नम् । त्रि॒तम् । न॒श॒न्त॒ । प्र । शि॒षन्तः॑ । इ॒ष्टये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि यस्य ते ज्रयसानस्याजर धक्षोर्न वाता: परि सन्त्यच्युताः । आ रण्वासो युयुधयो न सत्वनं त्रितं नशन्त प्र शिषन्त इष्टये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । यस्य । ते । ज्रयसानस्य । अजर । धक्षोः । न । वाताः । परि । सन्ति । अच्युताः । आ । रण्वासः । युयुधयः । न । सत्वनम् । त्रितम् । नशन्त । प्र । शिषन्तः । इष्टये ॥ १०.११५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 115; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अजर) हे जरारहित अग्रणेता परमात्मन् ! (यस्य ते) जिस तुझ (ज्रयसानस्य) विभु गतिवाले (धक्षोः) पापदाहक के (वाताः-न) वायुवों के समान व्याप्तिरूप वेग (अच्युताः) अनश्वर (वि परि सन्ति) विशेषरूप से सर्वत्र परिप्राप्त होते हैं (रण्वासः) स्तुति शब्द करनेवाले (युयुधयः-न) पापों से युद्ध करनेवाले जैसे (सत्वनम्) तुझ बलवान् (त्रितम्) तीन लोकों में व्याप्त अथवा तीन स्तुति प्रार्थना उपासनाओं से प्राप्त किया जाता है, वैसे तुझ परमात्मा को (आ नशन्त) भलीभाँति प्राप्त करते हैं (इष्टये) अभीष्टसिद्धि के लिये (प्र शिषन्तः) प्रकृष्टरूप से विशेषित करते हैं, प्रशंसित करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    उपासक जन अजर विभूतिवाले तीनों लोकों में वर्त्तमान तथा जिसकी व्याप्तियाँ सारे संसार में फैली हुईं हैं, उस परमात्मा की अपनी अभीष्टसिद्धि के लिये अनेक प्रकार से स्तुति प्रार्थना उपासना करते हैं ॥४॥

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    विषय

    'अपरिभूत वेगवाले' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे अजर जीर्ण न होनेवाले प्रभो ! (यस्य) = जिन (ज्रयसानस्य) = वेगवान् (ते) = आपके (वाता:) = गमन या वायु के समान वेग (धक्षोः न) = अग्नि के समान (अच्युताः) = शत्रुओं से अच्यवनीय होते हुए (परि वि सन्ति) = चारों ओर विद्यमान हैं । [२] उन (सत्वनम्) = बलशाली (त्रितम्) = त्रिलोकी का विस्तार करनेवाले [त्रीन् तनोति] आपके (रण्वासः) = रणप्रिय, युद्ध में गर्जना करनेवाले (युयुधयो न) = योद्धाओं के समान (आनशन्त) = सर्वथा प्राप्त होते हैं। ये (इष्टये) = इष्ट प्राप्ति के लिए व यज्ञादि उत्तम कर्मों के लिए (प्रशिषन्तः) = ये सदा आपका विवेक करनेवाले बनते हैं [to diseriminate from others]। प्रभु का ध्यान करने से चित्तवृत्ति अच्छी बनती है और हमारा झुकाव यज्ञादि उत्तम कर्मों की ओर होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की गति किसी से च्यवनीय नहीं । योद्धा प्रभु को ही पुकारते हैं। प्रभु का विवेक ही हमें यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करता है ।

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    विषय

    पापनाशक सर्वाधार प्रभु।

    भावार्थ

    हे (अजर) अविनाशिन् ! (ज्रयसानस्य) व्यापक (यस्य) जिस (ते) तेरे (धक्षोः) भस्म करने वाले अग्नि के तुल्य सर्व पापनाशक (वाताः न) वायुओं के समान समस्त बलशाली (अच्युताः) अविनाशी पदार्थ (परि सन्ति) चारों ओर तुझ पर आश्रित हैं, (युयुधयः न सत्वनम्) योद्धा लोग जिस प्रकार बलवान् नायक को (इष्टये) संगति प्राप्त कराने के लिये (नशन्त) प्राप्त होते हैं उसी प्रकार (रण्वासः) स्तुतिशील भक्त जन (युयुधयः) बाधक कारणों से युद्ध करते हुए (सत्वनम्) अति बलशाली सत् जगत् के स्वामी (त्रितम्) तीनों लोकों में व्यापक तुझको (इष्टये) उपासना, प्राप्ति, संगति के लिये (शिषन्तः) स्तुति, प्रार्थना करते हुए, तुझे चाहते हुए (आ नशन्त) सब प्रकार से प्राप्त होते और (प्र नशन्त) अच्छी प्रकार से तुझे प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरुपस्तुतो वाष्टिर्हव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७ विराड् जगती। ३ जगती। ५ आर्चीभुरिग् जगती। ६ निचृज्जगती। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृच्छक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अजर) हे जरारहित-अग्रणेतः ! परमात्मन् ! (यस्य ते ज्रयसानस्य धक्षोः) यस्य तव विभुगतिशीलस्य “ज्रयसानौ गच्छन्तौ” [ऋ० ५।६६।५ दयानन्दः] “ज्रयति-गतिकर्मा” [निघ० २।१४] ‘ज्रि धातोः-असानच् प्रत्ययो बाहुलकात्’ पापदाहकस्य (वाताः-न-अच्युताः-वि परि सन्ति) वायव इव व्याप्तिवेगाः-अविनश्वराः विशेषेण सर्वत्र परि प्राप्नुवन्ति (रण्वासः युयुधयः-न) स्तुतिशब्दकर्त्तारः पापैः सह युध्यन्त इव “युध धातोः किन् प्रत्ययो लिट्वच्च छान्दसः’ (सत्वनं त्रितम्-आ नशन्त) त्वां सत्वानं बलवन्तम् ‘सत्वनमिति ह्रस्वत्वं छान्दसम्’ ‘सत्वा बलिष्ठः’ [ऋ० १।१७३।५ दयानन्दः] त्रिषु स्थाने लोकेषु ततं व्याप्तं यद्वा त्रिभिः-स्तुतिप्रार्थनोपासनैस्तन्यते साक्षात् क्रियते तथाभूतं त्वां समन्तात् प्राप्नुवन्ति “आनट्नशत् व्याप्तिकर्मा” [निघ० २।१८] (इष्टये प्र शिषन्तः) अभीष्टसिद्धये प्रकृष्टं विशेषयन्ति प्रशंसन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, power unaging and dynamic, inviolable and imperishable are your forces like the radiations of dazzling light and blazing fire which, like victorious warriors, come to you, power indomitable and presence pervasive in three worlds, and exhort you for their life’s fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासक जन अजर विभू गतिमान तिन्ही लोकात वर्तमान व ज्याची व्याप्ती संपूर्ण जगात पसरलेली आहे. त्या परमात्म्याच्या अभीष्ट सिद्धीसाठी अनेक प्रकारे स्तुती, प्रार्थना, उपासना करतात.

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