ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 4
ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ द्वि॒बर्हा॑ अमि॒नो या॒त्विन्द्रो॒ वृषा॒ हरि॑भ्यां॒ परि॑षिक्त॒मन्ध॑: । गव्या सु॒तस्य॒ प्रभृ॑तस्य॒ मध्व॑: स॒त्रा खेदा॑मरुश॒हा वृ॑षस्व ॥
स्वर सहित पद पाठआ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । अ॒मि॒नः । या॒तु॒ । इन्द्रः॑ । वृषा॑ । हरि॑ऽभ्याम् । परि॑ऽसिक्तम् । अन्धः॑ । गवि॑ । आ । सु॒तस्य॑ । प्रऽभृ॑तस्य । मध्वः॑ । स॒त्रा । खेदा॑म् । अ॒रु॒श॒ऽहा । वृ॒ष॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ द्विबर्हा अमिनो यात्विन्द्रो वृषा हरिभ्यां परिषिक्तमन्ध: । गव्या सुतस्य प्रभृतस्य मध्व: सत्रा खेदामरुशहा वृषस्व ॥
स्वर रहित पद पाठआ । द्विऽबर्हाः । अमिनः । यातु । इन्द्रः । वृषा । हरिऽभ्याम् । परिऽसिक्तम् । अन्धः । गवि । आ । सुतस्य । प्रऽभृतस्य । मध्वः । सत्रा । खेदाम् । अरुशऽहा । वृषस्व ॥ १०.११६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(द्विबर्हाः) विद्या और पुरुषार्थ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुआ (अमिनः) अपरिमित गुण शक्तिवाला (वृषा) सुखवर्षक राजा या आत्मा (परिषिक्तम्-अन्धः) अभिषिक्त आध्यानीय राजपद को या विद्या से अभिषिक्त स्नातक पद को (हरिभ्याम्) दुःखापहरण और सुखाहरण करनेवाले गुणों के द्वारा या अज्ञानापहरण ज्ञानाहरण करनेवाले अध्यापक उपदेशकों के द्वारा शिक्षित हुआ (आयातु) आवे-प्राप्त हो (गवि) पृथिवी पर (आसुतस्य) भलीभाँति उत्पन्न (प्रभृतस्य मध्वः) प्रकृष्टता से रसस्वाद पूर्ण पके फल के समान (खेदाम्) खिन्न पीड़ितों को (अरुषहा) पीड़ानाशक (सत्रा) यथावत् (आ वृषस्व) सत्य तत्त्व को ठीक-ठीक सम्पादन कर ॥४॥
भावार्थ
राजा विद्या और पुरुषार्थ के द्वारा बढ़ा हुआ तथा गुणशक्ति में अतुल हुआ राजपद पर अभिषिक्त होता है, प्रजा को दुःखहरण और सुखाहरण गुणों से राजपद पर सुशोभित होता है। रसस्वादपूर्ण पके हुए फल की भाँति राजपद का यथार्थ लाभ ले और दुःखी प्रजा के दुःख को दूर करनेवाला बने एवं आत्मा विद्यापुरुषार्थ से बढ़ा हुआ गुण और शक्तिपूर्ण स्नातक पद को प्राप्त करे। अध्यापक उपदेशकों द्वारा अज्ञान को-नष्ट कर ज्ञान को ग्रहण कर स्नातक पद प्राप्त करे, रसस्वादपूर्ण पके फल की भाँति सत्य तत्त्व को प्राप्त करे और दुःखितों के दुःख का नाशक बने ॥४॥
विषय
द्विबर्हाः अमिनः
पदार्थ
[१] (द्विबर्हाः) = विद्या व श्रद्धा दोनों से बढ़ा हुआ, (अमिनः) = गतिशील, विद्या व श्रद्धा से युक्त होकर कर्म करता हुआ (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष वृषा शक्तिशाली होता हुआ (आयातु) = प्रभु को प्राप्त हो। इसके जीवन में (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों के उद्देश्य से (अन्धः) = सोम [= वीर्य] (परिषिक्तम्) = अंग-प्रत्यंग में चारों ओर सिक्त हुआ है। इस सोम सेचन से इसका शरीर सबल बना है और सब इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों के करने में समर्थ हुई हैं । [२] हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (गव्या) = इन्द्रिय समूह के दृष्टिकोण से (सुतस्य) = उत्पन्न किये गये प्रभृतस्य शरीर में धारण किये गये (मध्वः) = सोम से तू (सत्रा) = सदा खेद के कारणभूत अरुशहा- शत्रुओं का हनन करनेवाला होता हुआ आवृषस्व शक्तिशाली पुरुष की तरह आचरण कर [ अरुशा:-शजव: सा० ] । [३] जब मनुष्य श्रद्धा व ज्ञान का विकास करके गतिशील होता है तो वह सोमरक्षण के द्वारा सब इन्द्रियों को सशक्त बनाता है, सब वासनारूप शत्रुओं को नष्ट करता है, अन्त में प्रभु को पानेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने शरीर में सोम का उत्पादन इसीलिए किया है कि हम सब इन्द्रियों को सशक्त बना पाएँ अन्त में वासनाओं के संहार के द्वारा प्रभु को पानेवाले बनें ।
विषय
राजा का कार्य शत्रुविजय। राजा उनके दुर्गों का नाश करे।
भावार्थ
(वृषा) बलवान् (इन्द्रः) शत्रुहन्ता राजा (द्वि-बर्हाः) सैन्य और सामान्य प्रजा दोनों का स्वामी, दोनों से बढ़ने वाला, (अमिनः) बलवानों के प्रति (आ यातु) प्राप्त हो, वा (अमिनः आयातु) गृह वाले जनों को प्राप्त हो। (गवि) भूमि पर (अन्धः) उत्तम अन्न (परि सिक्तम्) सींचा जावे। (सुतस्य) उत्पन्न हुए (प्र-भृतस्य) अच्छी प्रकार पुष्ट हुए (मध्वः) अन्न, जल की मेघवत् वा सूर्यवत् (अरुश-हा) दुःखों और पीड़ाओं का नाशक स्वामी (सत्रा) सदा, (खेदाम्) दुःखी जनों के निमित्त (आ वृषस्व) वर्षा करे। उन्हें खूब प्रदान करे। (२) सूर्य वा मेघ दोनों लोकों के स्वामी से, वा दोनों लोकों के बढ़ने से ‘द्वि-बर्हाः’ है। वह ताप, प्रकाश, या जल, वायु सहित आवे, अन्न सींचे, भूख से खिन्न प्राणियों को अन्न दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः। इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(द्विबर्हाः) विद्यापुरुषार्थाभ्यां वृद्धिं गतः “द्वाभ्यां विद्यापुरुषार्थाभ्यां यो वर्धते सः” [ऋ० ७।२४।२ दयानन्दः] (अमिनः) अपरिमितगुणशक्तिमान् “अमितः-अतुलपराक्रमोऽनुपमः” [यजु० ७।३९ दयानन्दः] (वृषा) सुखवर्षकः (इन्द्रः) राजा-आत्मा वा (परिषिक्तम्-अन्धः) अभिषिक्तमाध्यानीयं राज्यपदं विद्ययाभिषिक्तं स्नातकपदं वा (हरिभ्याम्-आ यातु) दुःखापहरणसुखाहरणगुणाभ्याम् “हर्योः हरणाहरणगुणयोः” [ऋ० १।७।२ दयानन्दः] सह यद्वा-अज्ञानहरणज्ञानाहरणाभ्यामध्यापकोपदेशकाभ्यां हरिभ्यां-अध्यापकोपदेशकाभ्यां मनुष्याभ्यां [ऋ० ६।२३।४ दयानन्दः] शिक्षितः सन्-आयातु (गवि-आसुतस्य प्रभृतस्य मध्वः) पृथिव्याम् “गौः पृथिवीनाम” [निघ० १।१] समन्तादुत्पन्नस्य प्रकृष्टतया रसस्वादपूर्णं पक्वं फलमिव “अन्नं वै मधु” [ऐ० आ० १।१।३] सर्वत्र ‘द्वितीयास्थाने षष्ठीव्यत्ययेन’ (खेदाम्-अरुषहा सत्रा-आ वृषस्व) खिन्नानां पीडितानां पीडानाशकः सन् सत्यं यथावत् सम्पादय-प्रापय ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May generous Indra, mighty ruler of the powers of heaven and earth, come with complementary powers of centrifugal and centripetal forces of nature and society and taste the sweet sustaining assets of food and energy created on earth. O lord breaker of clouds and destroyer of enemies, adversity and exhaustion, let there be ceaseless showers of abundant honey sweets of distilled and seasoned wealth, honour and excellence of life on earth.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा, विद्या व पुरुषार्थाद्वारे वर्धित होऊन, गुण शक्तीत अतुलनीय बनून राजपदावर सुशोभित होतो. प्रजेचे दु:खहरण व सुखाहरण गुणांनी राजपदावर सुशोभित होतो. पूर्ण पिकलेल्या फळाप्रमाणे त्याने राजपदाचा यथार्थ लाभ घ्यावा व दु:खी प्रजेचे दु:ख दूर करणारा बनावे. आत्म्याने विद्यापुरुषार्थाने वाढलेला गुण व शक्तिपूर्ण स्नातक पद प्राप्त करावे. अध्यापक उपदेशकाद्वारे अज्ञान नष्ट करून ज्ञान ग्रहण करून स्नातक पद प्राप्त करावे. रस स्वाद पूर्ण पिकलेल्या फळाप्रमाणे घेता येतो, तसे सत्यतत्त्व प्राप्त करावे व दु:खितांचे दु:ख नष्ट करावे. ॥४॥
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