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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 123/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वेनः देवता - वेनः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जा॒नन्तो॑ रू॒पम॑कृपन्त॒ विप्रा॑ मृ॒गस्य॒ घोषं॑ महि॒षस्य॒ हि ग्मन् । ऋ॒तेन॒ यन्तो॒ अधि॒ सिन्धु॑मस्थुर्वि॒दद्ग॑न्ध॒र्वो अ॒मृता॑नि॒ नाम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒नन्तः॑ । रू॒पम् । अ॒कृ॒प॒न्त॒ । विप्राः॑ । मृ॒गस्य॑ । घोष॑म् । म॒हि॒षस्य॑ । हि । ग्मन् । ऋ॒तेन॑ । यन्तः॑ । अधि॑ । सिन्धु॑म् । अ॒स्थुः॒ । वि॒दत् । ग॒न्ध॒र्वः । अ॒मृता॑नि । नाम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जानन्तो रूपमकृपन्त विप्रा मृगस्य घोषं महिषस्य हि ग्मन् । ऋतेन यन्तो अधि सिन्धुमस्थुर्विदद्गन्धर्वो अमृतानि नाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जानन्तः । रूपम् । अकृपन्त । विप्राः । मृगस्य । घोषम् । महिषस्य । हि । ग्मन् । ऋतेन । यन्तः । अधि । सिन्धुम् । अस्थुः । विदत् । गन्धर्वः । अमृतानि । नाम ॥ १०.१२३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 123; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विप्राः) मेधावी स्तोताजन (रूपं-जानन्तः) परमात्मा के स्वरूप को जानते हुए (अकृपन्त) उसकी स्तुति करते हैं (महिषस्य) महान् (मृगस्य) प्रापणीय प्राप्त करने योग्य (घोषं ग्मन् हि) ज्ञानघोष को प्राप्त होते हैं (ऋतेन यन्तः) ज्ञानमार्ग से जाते हुए (सिन्धुम्) उस आनन्दसिन्धु को (अधिस्थुः) अधिष्ठित होते हैं (गन्धर्वः) वह वेदवाणी का धारक (अमृतानि) अमृतरूप (नाम) नामों को (विदत्) प्राप्त करता है ॥४॥

    भावार्थ

    मेधावी विद्वान् परमात्मा के स्वरूप को जानते हुए उसकी स्तुति करते हैं, उसके ज्ञान की घोषणा करनेवाले वेद को प्राप्त होते हैं और यथार्थ आचरण करते हुए आनन्दसिन्धु में स्थिर होते हैं। वेदवाणी को धारण करता हुआ मनुष्य उसके अमृत नामों को प्राप्त करता है ॥४॥

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    विषय

    प्रभु के अनुरूप बनना

    पदार्थ

    [१] (विप्राः) = ज्ञानी लोग, ज्ञान के द्वारा अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले लोग (रूपं जानन्तः) = प्रभु के रूप को जानते हुए (अकृपन्तः) = [to havemercy for ] दया के स्वभाववाले बनते हैं। प्रभु दयालु हैं, ये भी दया को अपनाते हैं । [२] (हि) = निश्चय से (मृगस्य) = [मार्ष्ट: नि० १। २०] मानव - जीवनों को शुद्ध करनेवाले (महिषस्य) = पूज्य [मह पूजायाम्] प्रभु की (घोषम्) = अन्त: प्रेरणा को (ग्मन्) = प्राप्त होते हैं । प्रभु की वाणियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं । [३] इन वाणियों से प्रेरणा को लेकर (ऋतेन यन्तः) = ऋत से गति करते हुए, अर्थात् सब कार्यों को नियम से करते हुए (सिन्धुं अधि अस्थुः) = उस ज्ञान समुद्र प्रभु में स्थित होते हैं। प्रभु-स्मरणपूर्वक सब कार्यों को करनेवाले होते हैं। [३] (गन्धर्वः) = यह ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाला (अमृतानि) = अमृतत्वों को (नाम) = निश्चय से (वि दत्) = प्राप्त करता है। [नाम इति वाक्यालंकारे] । 'नाम' शब्द का अर्थ नमनशील उदक भी है। यह गन्धर्व अमृतत्वों को प्राप्त करता है। और अमृतत्व के लिए ही इन रेतः कणरूप उदकों को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के जानते हुए हम अपने जीवनों को शुद्ध बनायें । ज्ञान की वाणियों को धारण करते हुए अमृतत्व को प्राप्त करें ।

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    विषय

    विद्वानों द्वारा स्तुत्यपद। उपासक और उपास्य में चातक मेघ का-सा सम्बन्ध। नाविक जैसे समुद्र में प्रवेश करता है वैसे सिन्धु रूप प्रभु को प्राप्त होना।

    भावार्थ

    (विप्राः) विद्वान्, ज्ञानी पुरुष, (मृगस्य) उस परम शुद्ध प्रभु के (रूपम्) अति उज्ज्वल रूप, तेज को (जानन्तः) जानते हुए (अकृपन्त) उसी महान् पुरुष की स्तुति करते हैं। और वे (महिषस्य) उसी महान् प्रभु के (घोषं) नाद को, मेघ-ध्वनि को चातकों के तुल्य (ग्मन्) जानते, श्रवण करते हैं। (ऋतेन यन्तः सिन्धुम् अधि) जिस प्रकार जलमार्ग से जाते हुए नाविक समुद्र को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (ऋतेन) यज्ञ, प्रकाश, वा सत्य ज्ञानमय वेद से उसी की ओर जाते हुए (सिन्धुम् अधि अस्थुः) सब प्रकार से स्नेह से बांधने वाले उस प्रभु में ही विराजते हैं। और वह प्रभु (गन्धर्वः) जलद मेघ के समान, सूर्यादि लोकों का धारण करने वाला (अमृतानि नाम) अमृत रूप, जलों सुखों वा रूपों को (विदत्) प्राप्त कराता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वेनः॥ वेनो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २— ४, ६, ८ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विप्राः) मेधाविनः स्तोतारः (रूपं जानन्तः-अकृपन्त) तस्य परमात्मनः स्वरूपं जानन्तः सन्तस्तं स्तुवन्ति अत्र कृप धातुः अर्चनार्थे यथा “कृपा अर्चतिकर्मा” [निघ० ३।१४] (महिषस्य मृगस्य घोषं ग्मन् हि) तस्य महतः “महिषो महन्नाम”  [निघ० ३।८] प्रापणीयस्य “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघ० २।१४] यतो ज्ञानघोषं ज्ञानघोषणां-प्राप्नुवन्ति (ऋतेन यन्तः सिन्धुम्-अधिस्थुः) ज्ञानमार्गेण गच्छन्तस्तमानन्दसिन्धुमधितिष्ठन्ति (गन्धर्वः-अमृतानि नाम विदत्) स वेदवाचः-धारकोऽमृतरूपाणि नामानि विन्दते प्राप्नोति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The sages, knowing the form, structure and functioning of the cloud and the roaring thunder, celebrate it and realise it in practice. Going by laws of natural truth, waters, evaporation and cloud formation and catalysis in the depth of spatial ocean, they realise that it is really the sun which holds the earth and controls the immortal waters for sure.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मेधावी विद्वान परमात्म्याच्या स्वरूपाला जाणून त्याची स्तुती करतात. त्याच्या ज्ञानाची घोषणा करणारे वेदाला प्राप्त करतात व यथार्थ आचरण करत त्या आनंद सिंधूमध्ये स्थिर होतात. वेदवाणीला धारण करत माणूस त्याच्या अमृत नावाला प्राप्त करतो. ॥४॥

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