ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 135/ मन्त्र 4
यं कु॑मार॒ प्राव॑र्तयो॒ रथं॒ विप्रे॑भ्य॒स्परि॑ । तं सामानु॒ प्राव॑र्तत॒ समि॒तो ना॒व्याहि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । कु॒मा॒र॒ । प्र । अव॑र्तयः । रथ॑म् । विप्रे॑भ्यः । परि॑ । तम् । साम॑ । अनु॑ । प्र । अ॒व॒र्त॒त॒ । सम् । इ॒तः । ना॒वि । आऽहि॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं कुमार प्रावर्तयो रथं विप्रेभ्यस्परि । तं सामानु प्रावर्तत समितो नाव्याहितम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । कुमार । प्र । अवर्तयः । रथम् । विप्रेभ्यः । परि । तम् । साम । अनु । प्र । अवर्तत । सम् । इतः । नावि । आऽहितम् ॥ १०.१३५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 135; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कुमार) हे न मरणशील जीवात्मन् ! (यं-रथम्) जिस शरीर को (विप्रेभ्यः परि प्र अवर्तयः) विद्वानों-मेधावी लोगों से ज्ञान प्राप्त करके चलाता है (तं साम-अनु) उस देहरथ को शिक्षित जन-अध्यात्म सुख जिससे हो (नावि-समाहितम्) नौका में रखे रथ की भाँति शरीररथ को चलाता है ॥४॥
भावार्थ
जीवात्मा विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करके अध्यात्मिक सुख मिले, इस ढंग से नौका में रखे रथ के समान नदी पार करने को जैसे होता है, ऐसे संसारसागर को पार करने के लिए देह को अध्यात्ममार्ग में चलाता है ॥४॥
विषय
नाव में आहित रथ
पदार्थ
[१] हे (कुमार) = क्रीड़क की मनोवृत्ति से चलनेवाले पुरुष ! (यं रथम्) = जिस शरीर - रथ को (विप्रेभ्यः समित) = विशेषरूप से तेरा पूरण करनेवाले [वि-प्रा] माता, पिता व आचार्य आदि से संगत हुए हुए तूने (परि) = चारों ओर (प्रावर्तयः) = तूने गतिमय किया है। माता-पिता व आचार्य के सम्पर्क में आनेवाला व्यक्ति ही अपनी कमियों को दूर करके शरीर रथ को अच्छी प्रकार मार्ग पर ले चलता है । [२] (तम्) = उस (नावि आहितम्) = प्रभु रूप नाव में स्थापित किये हुए रथ को साम (अनु प्रावर्तत) = शान्ति अनुकूलता से प्राप्त होती है। यह रथ प्रभु रूप नाव में आहित होने के कारण इस भवसागर में डूब नहीं जाता। प्रभु नाव बनती है जो इसे विषय जल में डूबने नहीं देती । भाव यह है कि हमारे रथ के संचालक प्रभु हों। इसकी बागडोर प्रभु के हाथ में हो ।
भावार्थ
भावार्थ - इस शरीर - रथ के संचालन की शिक्षा माता, पिता व आचार्य से प्राप्त होती है। भवसागर से पार करने के लिए इसे प्रभु रूप नाव का सहारा होता है। इस सहारे से ही जीवन की गाड़ी शान्ति से चलती है ।
विषय
वह देह में आत्मज्ञान को प्राप्त करे।
भावार्थ
हे (कुमार) अनभिज्ञ बालकवत् अल्पज्ञ अबोध जीव ! (यं रथं) जिस रथरूप देह को तू (विप्रेभ्यः परि) ज्ञानवान् पुरुषों से रहित होकर (प्र अवर्त्तयः) चला रहा है (तं) उसको (नावि आहितम्) नाव से बंधे रथ के तुल्य, (नावि आहितं) वाणी में स्थिर (साम) विशेषज्ञान बल (अनु प्र अवर्तत्) दिनों दिन अच्छी प्रकार प्राप्त होता जाता है। वह अनुभव से ज्ञानवाणी के द्वारा अधिक ज्ञानवान् हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कुमारो यामायनः॥ देवता—यमः। छन्दः– १—३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। ७ भुरिगनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कुमार) हे अमरणशील जीवात्मन् ! (यं रथम्) यं शरीररथं त्वं (विप्रेभ्यः पर प्र अवर्तयः) मेधाविभ्यो ज्ञानं प्राप्य प्रवर्तयसि (तं साम-अनु नावि समाहितं प्र अवर्तत) तं देहरथं शिक्षितौ जनः साम-अध्यात्मसुखं यथा स्यात् नौकायां धृतं शरीररथं तथा प्रवर्तयति ‘अन्तर्गतणिजर्थः’ ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O soul, that body which you move like a chariot away from the sages, the wise man settled at peace in the heart moves the same chariot all secure as if it is safely placed in a boat to cross the seas.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवात्मा विद्वानाकडून ज्ञान प्राप्त करून आध्यात्मिक सुख मिळावे या दृष्टीने जसे नौकेत ठेवलेल्या रथासह नदी पार करता येते, तसे संसार सागराला पार करण्यासाठी देहाला अध्यात्म मार्गात चालवितो. ॥४॥
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