ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 138/ मन्त्र 1
तव॒ त्य इ॑न्द्र स॒ख्येषु॒ वह्न॑य ऋ॒तं म॑न्वा॒ना व्य॑दर्दिरुर्व॒लम् । यत्रा॑ दश॒स्यन्नु॒षसो॑ रि॒णन्न॒पः कुत्सा॑य॒ मन्म॑न्न॒ह्य॑श्च दं॒सय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्ये । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्येषु॑ । वह्न॑यः । ऋ॒तम् । म॒न्वा॒नाः । वि । अ॒द॒र्दि॒रुः॒ । व॒लम् । यत्र॑ । द॒श॒स्यन् । उ॒षसः॑ । रि॒णन् । आ॒पः । कुत्सा॑य । मन्म॑न् । अ॒ह्यः॑ । च॒ । दं॒सयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्य इन्द्र सख्येषु वह्नय ऋतं मन्वाना व्यदर्दिरुर्वलम् । यत्रा दशस्यन्नुषसो रिणन्नपः कुत्साय मन्मन्नह्यश्च दंसय: ॥
स्वर रहित पद पाठतव । त्ये । इन्द्र । सख्येषु । वह्नयः । ऋतम् । मन्वानाः । वि । अदर्दिरुः । वलम् । यत्र । दशस्यन् । उषसः । रिणन् । आपः । कुत्साय । मन्मन् । अह्यः । च । दंसयः ॥ १०.१३८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 138; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में मेघ से वृष्टि गिराने के प्रकार तथा शत्रु के परास्त करने की विधियाँ दर्शाई हैं। उसका फल प्रजा के लिये हो, यह कहा गया है।
पदार्थ
(इन्द्र) हे विद्युद्देव ! या राजन् ! (तव सख्येषु) तेरे मित्र भावों में (त्ये वह्नयः) हे मेघ के वहन करनेवाले मरुत्-हवाएँ-वायुवें-या कार्यभार के वहन करनेवाले विद्वान् (ऋतं मन्वानाः) जल को धारण करनेवाले या सत्य नियम या विधान को समझनेवाले (वलं वि अदर्दिरुः) मेघ को अत्यन्त विदीर्ण करते हैं या आवरक आक्रमणकारी शत्रु को विदीर्ण करते हैं (यत्र) जिस काल में (उषसः-दशस्यन्) तू अपनी तरङ्गों को फेंकता हुआ (अपः-रिणन्) जलों को स्रवित करता हुआ वर्तमान है या स्वतेजों-तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों को फेंकता हुआ वरुणास्त्रों को चलाता हुआ वर्तमान है, उस समय (च) और (कुत्साय) भूमिकर्षक किसान के लिए या स्वप्रशंसक प्रजागण के लिए (मन्मन्) उस मनोरथ के निमित्त (अह्यः-दंसयः) मेघ गिराने योग्य कर्म प्रवृत्त होते हैं या अपघातक शत्रुवधसम्बन्धी कर्म को प्रवृत्त होते हैं ॥१॥
भावार्थ
मेघों को वहन करनेवाली हवाएँ जल को धारण करने के हेतु मेघ को अत्यन्त विदीर्ण करती हैं, उसमें विद्युत् अपनी तरङ्गों को फेंकता हुआ जल को नीचे स्रवित करता हुआ किसान के मनोरथ के निमित्त मेघ निपातनकर्म में प्रवृत्त होते हैं, तो वर्षा होने लगती है एवं राष्ट्र के कार्यभार को वहन करनेवाले यथार्थ-विधान को समझते हुए आक्रमणकारी शत्रु को विदीर्ण करते हैं, तब राजा अपने तेजों, तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों को फेंकता हुआ फैले हुए शत्रुदल को नीचे गिराता है, सब प्रशंसक प्रजागण के लिए मनोरथसिद्धि के निमित्त शत्रुवधसम्बन्धी विविध कर्म प्रवृत्त हो जाते हैं ॥१॥
विषय
प्रभु की मित्रता में
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्ये) = वे स्वस्थ पुरुष (तव सख्येषु) = तेरी मित्रताओं में (वह्नयः) = कर्त्तव्य कर्मों का वहन करनेवाले होते हैं। आपका स्मरण करते हैं और अपने कर्त्तव्य कर्मों को करते हैं। [२] ये व्यक्ति (ऋतं मन्वानाः) = ऋत [ = सत्यज्ञान] का मनन करते हुए (वलम्) = ज्ञान पर आवरण के रूप में आ जानेवाली [veil] वासना को, वृत्र को (व्यदर्दिरुः) = विशेषरूप से विदीर्ण कर देते हैं। [२] यह होता तब है (यत्रा) = जब कि [ क] आप (उषसः) = दोष दहन की शक्तियों को (दशस्यन्) = देते हैं। [ख] (अपः रिणन्) = कर्मों के प्रेरित करते हैं, हमें कर्मशील बनाते हैं । [ग] (च) = और (कुत्साय) = इस दोषहिंसन करनेवाले के लिए (मन्मन्) = ज्ञान व स्तुति के होने पर (अह्यः) = [आहन्ति] इस नाश करनेवाली वासना को (दंसय:) = नष्ट करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें दोषदहनशक्ति प्राप्त होती है, हम कर्मशील बनते हैं और वासना को नष्ट कर पाते हैं । परिणामतः प्रभु मित्रता में हम कर्त्तव्यपथ पर निरन्तर आगे बढ़ते चलते हैं ।
विषय
इन्द्र। प्रभु के मैत्रीभाव में मननशील पुरुषों का अज्ञान नाश। पक्षान्तर में जगत् में सूर्य के सहयोग में वायुओं का मेघ वर्षणादि कार्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) विद्युत् के समान तीक्ष्ण कान्ति वाले स्वामिन् ! (त्ये) वे (वह्नयः) ज़िम्मेदारी और कर्त्तव्य को अपने ऊपर लेने वाले जन (तव सख्थेषु) तेर मित्रभावों में (ऋतम् मन्वानाः) सत्य ज्ञान का मनन करते हुए, (बलम्) घेर लेने वाले अज्ञानान्धकार के मोह को (वि अदर्दिरुः) विविध उपायों से छिन्न भिन्न कर देते हैं। (यत्र) जिस स्थिति में तू भी प्रभो ! (उषसः) कार्यों को दग्ध करने वाली शक्तियों को वा कान्तियुक्त विशोका, ऋतंभरा प्रज्ञाओं को (दशस्यन्) प्रदान करता हुआ और (अपः रिणन्) कर्म बन्धनों को दूर करता हुआ, सत्कर्म करता हुआ, (कुत्साय) स्तुति करने वाले भक्तजन के (मन्मन्) मननशील अन्तःकरण में विद्यमान (अह्यः) मेघ के तुल्य आवरण को सूर्य के समान ही (दंसयः) नष्ट करता है। (२) भौतिक संसार में (ऋतं मन्वानाः) जल का स्तम्भन करने वाले, जल ढोने वाले वायुगण ‘वह्नि’ हैं। वे विद्युतें या सूर्य के सम्पर्क में आकर मेघ को छिन्न भिन्न करते हैं। वही इन्द्र, विद्युत् दीप्तियां करता, जल को नीचे गिराता और मेघ का नाश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरंग औरवः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ४, ६ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३, ५ विराड् जगती। षडृच सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते मेघाद्वृष्टिनिपातनप्रकारास्तथा शत्रोः परास्तकरणविधयश्च दर्श्यन्ते तत्फलं च प्रजायै स्यादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे विद्युद्देव राजन् ! वा (तव सख्येषु) तव सखित्वेषु (त्ये वह्नयः) ते मेघस्य वोढारो मरुतः कार्यभारस्य वोढारो विद्वांसो वा (ऋतं मन्वानाः) उदकं धारयमाणाः, सत्यनियमं विधानं बुध्यमानाः वा (वलं वि अदर्दिरुः) मेघमत्यन्तं विदारितवन्तः-विदारयन्ति, आवरकमाक्रमणकारिणं शत्रुं विदारयन्ति (यत्र) यस्मिन्काले (उषसः-दशस्यन्-अपः-रिणन्) त्वं स्वतरङ्गान् क्षिपन्-अपः स्रावयन् वर्तसे, स्वतेजांसि तीक्ष्णशस्त्रास्त्राणि क्षिपन् वारुणास्त्राणि च पातयन् वा वर्तसे, तस्मिन् काले (च) तथा (कुत्साय) भूमेः कर्षकाय, स्वप्रशंसकाय प्रजागणाय वा (मन्मन्) तन्मनोरथनिमित्तं (अह्यः-दंसयः) मेघनिपातयोग्यानि कर्माणि प्रवर्तन्ते, यद्वाऽपघातकशत्रुवधसम्बन्धीनि कर्माणि “दंसयः कर्माणि” [निरु० ४।२५] प्रवर्तन्ते ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of cosmic energy, Indra, in consonance with your will and law, these flames of fire carrying yajnic fragrance, and these currents of wind bearing electrical energy, break the vaporous force of the mighty cloud, and when the mantras are chanted and you radiate the lights of the dawn, catalytic power is initiated and showers of rain are released in response to the wishes of the yajakas.
मराठी (1)
भावार्थ
मेघांचे वहन करणारे वायू जल धारण करण्याच्या हेतूने मेघांना विदीर्ण करतात. त्यात विद्युत आपल्या तरंगांद्वारे जल खाली स्रवित करते. शेतकऱ्यांच्या मनोरथाच्या निमित्ताने मेघ खाली पडण्यास प्रवृत्त होतात. तेव्हा वृष्टी होते व राष्ट्राचा कार्यभार पाहणारे विद्वान यथार्थ नियमांना समजून आक्रमणकारी शत्रूला विदीर्ण करतात. तेव्हा राजा आपल्या तेजाने तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रांना परजत शत्रूला पराजित करतो. सर्व प्रशंसकही प्रजेचे मनोरथ सिद्ध करण्यासाठी शत्रूचा वध करण्यासाठी विविध कर्मात प्रवृत्त होतात. ॥१॥
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