ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 143/ मन्त्र 5
यु॒वं भु॒ज्युं स॑मु॒द्र आ रज॑सः पा॒र ई॑ङ्खि॒तम् । या॒तमच्छा॑ पत॒त्रिभि॒र्नास॑त्या सा॒तये॑ कृतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । भु॒ज्युम् । स॒मु॒द्रे । आ । रज॑सः । पा॒रे । ई॒ङ्खि॒तम् । या॒तम् । अच्छ॑ । प॒त॒त्रिऽभिः॑ । नास॑त्या । सा॒तये॑ । कृ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं भुज्युं समुद्र आ रजसः पार ईङ्खितम् । यातमच्छा पतत्रिभिर्नासत्या सातये कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । भुज्युम् । समुद्रे । आ । रजसः । पारे । ईङ्खितम् । यातम् । अच्छ । पतत्रिऽभिः । नासत्या । सातये । कृतम् ॥ १०.१४३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 143; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नासत्या) हे असत्यव्यवहाररहित सत्याचरणवाले अध्यात्म के अध्यापक और उपदेशक ! (युवम्) तुम दोनों (रजसः समुद्रे) रञ्जनात्मक भोगविलास के समुद्रसमान गहन व्यवहार में (ईङ्खितं भुज्युम्) दोलायमान-डोलते हुए जीवात्मा को (अच्छ-आयातम्) भली प्रकार-प्राप्त होवो (पतत्रिभिः सातये) प्रापणप्रकारों से अध्यात्मसाधनों श्रवण आदियों से मोक्षप्राप्ति के लिए (पारे कृतम्) पार करो-संसारसागर के पार करो ॥५॥
भावार्थ
अध्यात्मविषय के अध्यापक और उपदेशक रञ्जनात्मक भोगविलास के समुद्र में झकोले खाते हुए-दोलायमान होते हुए भोगी जन को प्राप्त होते हो और अध्यात्मसाधनों श्रवणादि के द्वारा मोक्षप्राप्ति के लिए पार करते हो ॥५॥
विषय
[भवसागर के पार] भोगों से ऊपर
पदार्थ
[१] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! [न-असत्यौ] (युवम्) = आप (भुज्युम्) = भोगवृत्तिवाले, भोग-प्रवण इस मनुष्य को जो (रजसः समुद्रे) = रजोगुण के समुद्र में (आ ईङ्खितम्) = चारों ओर डाँवाडोल हो रहा है उसे (अच्छायातम्) = आभिमुख्येन प्राप्त होइये । जैसे एक वैद्य रोगी के अभिमुख जाता है और उसे उचित औषधोपचार से नीरोग करता है, इसी प्रकार आप इस रजोगुण के समुद्र में गोता खाते हुए, तृष्णा से पीड़ित मनुष्य को प्राप्त होवो । आपने ही इसे निर्दोष बनाना है। [२] हे प्राणापानो! आप (पतत्रिभिः) = इस (तृष्णा) = समुद्र के पार जाने के साधनाभूत यज्ञादि क्रियारूप नौ विशेषों से [पत गतौ] (पारे कृतम्) = इस समुद्र से पार करिये और इस प्रकार (सातये) = वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिये होइये । प्राणसाधना से तृष्णा नष्ट होती है और हम (रजः) = समुद्र के पार होकर वास्तविक आनन्द को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना भोगवृत्ति को नष्ट करती है और वास्तविक आनन्द को प्राप्त कराती है ।
विषय
रजः- समुद्र में बहते डूबते जीव पर दोनों की कृपा।
भावार्थ
हे (नासत्या) सदा सत्यशील ! (युवम्) आप दोनों (रजसः समुद्रे) रजोगुण के समुद्र में (ईखितम्) डोलते हुए, इधर उधर गोते खाते हुए (भुज्युम्) भोक्ता इस जीव को (पतत्रिभिः) नाना गमन साधनों वा प्राणों, देहों से, (सातये) इष्ट लाभ के लिये (अच्छ पारे कृतम्) उत्तम रीति से पार करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अत्रिः सांख्यः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:—१—५ अनुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नासत्या) हे असत्यव्यवहाररहितौ-सत्याचरणवन्तौ-अध्यात्माध्या-पकोपदेशकौ ! (युवम्) युवां (रजसः समुद्रे-ईङ्खितं भुज्युम्) रञ्जनात्मकस्य भोगविलासस्य “रजसा रागविषयस्य” [ऋ० १।५२।१४ दयानन्दः] समुद्रे-समुद्र इव गहने “समुद्रः समुद्द्रवन्ति कामुका यस्मिन् व्यवहारे सः” [यजु० १३।१६ दयानन्दः] दोलयन्तं भोक्तारं जीवात्मानम् “भुज्युं भोक्तारम् [ऋ० ४।२७।४ दयानन्दः] (अच्छ-आयातम्) समन्तात् प्राप्नुथः, अथ (पतत्रिभिः-सातये पारे कृतम्) प्रापणप्रकारैरध्यात्मसाधनभूतैः श्रवणादिभिः-मोक्षप्राप्तये पारे कुरुथः “कृ धातोश्छान्दसो विकरणलुक्” ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, bright like fire and the sun, inviolably committed to truth and law, pray come with faultless ark and oars to humanity beaten about in the depth of dust and rolling seas, to help us swim to the shore to freedom and victory.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यात्मविषयक अध्यापक व उपदेशकांनी रंजनात्मक भोगविलासाच्या समुद्रात दोलायमान होणाऱ्या जीवात्म्याला भोगी जनांना उपदेश करावा व अध्यात्मसाधन श्रवण इत्यादीद्वारे मोक्षप्राप्तीसाठी संसार सागरातून पार पाडावे. ॥५॥
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