ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 153/ मन्त्र 2
ऋषिः - इन्द्रमातरो देवजामयः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वमि॑न्द्र॒ बला॒दधि॒ सह॑सो जा॒त ओज॑सः । त्वं वृ॑ष॒न्वृषेद॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । बला॑त् । अधि॑ । सह॑सः । जा॒तः । ओज॑सः । त्वम् । वृ॒ष॒न् । वृषा॑ । इत् । अ॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः । त्वं वृषन्वृषेदसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । बलात् । अधि । सहसः । जातः । ओजसः । त्वम् । वृषन् । वृषा । इत् । असि ॥ १०.१५३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 153; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! या राजन् ! (त्वम्) तू (बलात्) बाह्यबल से (सहसः) मनोबल से-साहस से (ओजसः) आत्मबल से (अधिजातः) अध्यक्षता के लिए प्रसिद्ध है (वृषन्) हे बलवान् ! (वृषा-इत्-असि) तू सुखवर्षक ही है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा सभी बलों से युक्त है, कर्माध्यक्षता में प्रसिद्ध सदा सुखवर्षक है, इसी प्रकार राजा को समस्त बलों से युक्त होना चाहिये और प्रजा के लिये सुखवर्षक होना चाहिये ॥२॥
विषय
बालक को माता की प्रेरणा
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बननेवाले प्रिय ! (त्वम्) = तू (बलात्) = बल से, (सहसः) = सहस् से, सहनशक्तिवाले बल से तथा (ओजस:) = ओज से (अधि जातः असि) = आधिक्येन प्रसिद्ध हुआ है। तेरा मनोमयकोश 'बल व ओज' से सम्पन्न है तथा आनन्दमयकोश 'सहस्' वाला हुआ है । [२] हे (वृषन्) = शक्तिशाली इन्द्र ! (त्वम्) = तू (इत्) = निश्चय से (वृष) = शक्तिशाली (असि) = है | तूने अपने को शक्ति से सिक्त करना है ।
भावार्थ
भावार्थ - माता प्रारम्भ से बालक को यही प्रेरणा देती है कि तूने 'बलवान्, ओजस्वी व सहस्वी' बनना है। तू शक्तिशाली है ।
विषय
इन्द्र अध्यक्ष की उत्पत्ति।
भावार्थ
इन्द्र अध्यक्ष की उत्पत्ति। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रु-नाशक ! (त्वं) तू (बलात्) बल से, (सहसः) शत्रु-पराभवकारी सामर्थ्य से, और (ओजसः) पराक्रम से (अधि जातः असि) सबका अध्यक्ष, सर्वोपरि शासक हो जाता है। हे (वृषन्) बलवन् ! (त्वं) तू (वृषा इत् असि) सबसे बलवान्, सब सुखों का देने वाला, सर्व प्रबन्धक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषयः इन्द्र मातरो देव ममः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ निचृद् गायत्री। २-५ विराड् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र त्वम्) हे परमात्मन् ! राजन् वा ! त्वम् (बलात्) बाह्यबलात् (सहसः) मानसबलात्-साहसात् (ओजसः) आत्मिकबलात् (अधिजातः) अध्यक्षत्वे प्रसिद्धः (वृषन् वृषा-इत्-असि) हे बलवन् ! सुखवर्षक एवासि ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ruling power, Indra, you have risen high by virtue of your strength, patient courage, and grandeur of personality. Generous as showers of blissful rain, you are mighty, excellent and refulgent as the sun.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्व बलांनी युक्त आहे. तो कर्माध्यक्ष म्हणून प्रसिद्ध आहे. सदैव सुखवर्षक आहे. याच प्रकारे राजालाही संपूर्ण बलाने युक्त असले पाहिजे व प्रजेसाठी सुखवर्षक असले पाहिजे. ॥२॥
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