ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 153/ मन्त्र 3
ऋषिः - इन्द्रमातरो देवजामयः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वमि॑न्द्रासि वृत्र॒हा व्य१॒॑न्तरि॑क्षमतिरः । उद्द्याम॑स्तभ्ना॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒रः॒ । उत् । द्याम् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । ओज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्रासि वृत्रहा व्य१न्तरिक्षमतिरः । उद्द्यामस्तभ्ना ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । असि । वृत्रऽहा । वि । अन्तरिक्षम् । अतिरः । उत् । द्याम् । अस्तभ्नाः । ओजसा ॥ १०.१५३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 153; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् या राजन् ! (त्वम्) तू (वृत्रहा) पापनाशक या आक्रमणकारी का नाशक है (ओजसा) अपने आत्मबल से (अन्तरिक्षं वि-अतिरः) अन्तरिक्ष को विकसित करता है-नक्षत्रों से युक्त करता है या प्रजाओं को विविध गुणों से विकसित करता है (द्याम्-उत् स्तभ्नाः) द्युलोक को या ज्ञान से द्योतमान सभा को ऊपर सँभालता है या उन्नत करता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा पापनाशक है, अपने आत्मबल से अन्तरिक्ष को नक्षत्रों द्वारा विकसित करता है, सजाता है, द्युलोक को ऊपर सम्भालता है, उसी प्रकार राजा आक्रमणकारी को नष्ट करनेवाला, प्रजाओं को गुणों से विकसित करनेवाला, राजसभा को उत्पन्न करनेवाला होना चाहिए ॥३॥
विषय
उदार हृदय - उत्कृष्ट मस्तिष्क
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (त्वं वृत्राहा असि) = तू ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करनेवाला है । (अन्तरिक्षं वि अतिरः) = तू इन ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करके हृदयान्तरिक्ष को विशेषरूप से बढ़ानेवाला है। तू अपने हृदय को विशाल बनाता है । [२] तथा (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (द्याम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को (उत् अस्तभ्नाः) = उत्कृष्ट स्थान में थामता है। मस्तिष्क को उत्कृष्ट ज्ञान सम्पन्न बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- माता बालक को प्रेरणा देती है कि - [क] तूने वासनाओं को विनष्ट करनेवाला बनना है, [ख] हृदय को विशाल बनाना है, [ग] तथा ओजस्विता के साथ मस्तिष्क को ज्ञानोज्ज्वल करना है ।
विषय
उसका विशेष पराक्रम।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वम् वृत्रहा असि) तू विघ्नकारी शत्रुओं का नाश करने वाला है। (अन्तरिक्षम् वि अतिरः) वायु जिस प्रकार मेघ को छिन्न भिन्न कर आकाश भाग को विस्तृत करता है उसी प्रकार तू भी (अन्तरिक्षम्) बीच के भूमि वाले को (वि अतिरः) शत्रु बल के छेदन-भेदन से बढ़ाता है। और (ओजसा) पराक्रम से (द्याम्) आकाश को सूर्यवत् पृथिवी वा तेजस्विनी सेना वा सभा को (उत् अस्तभ्नाः) थामता, वश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषयः इन्द्र मातरो देव ममः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ निचृद् गायत्री। २-५ विराड् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र त्वम्) हे परमात्मन् वा राजन् ! त्वम् (वृत्रहा) पापनाशकः-आक्रमणकारिनाशको वा (ओजसा) स्वात्मबलेन (अन्तरिक्षं वि अतिरः) अन्तरिक्षमाकाशं प्रजा वा विकासयसि, “अन्तरिक्षमिमाः प्रजाः” [मै० ४।५] (द्याम्-उत्-स्तभ्नाः) द्युलोकं यद्वा ज्ञानेन द्योतमानां सभामुपरि स्तम्भयसि-उन्नयसि वा ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You, Indra, are destroyer of evil and demonic darkness of the system, breaker of the clouds for rain, you cross the skies and, like the sun sustaining the regions of light by its self-refulgence, you sustain the rule of light and law by your own charismatic grandeur of character and personality.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा पापनाशक आहे. आपल्या आत्मबलांनी अंतरिक्षाला नक्षत्रांद्वारे विकसित करतो, सजवितो. द्युलोकाला वर सांभाळतो. त्याच प्रकारे राजा आक्रमणकाऱ्यांना नष्ट करणारा, प्रजेचे गुण विकसित करणारा, राजसभेला उन्नत करणारा असला पाहिजे. ॥३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal